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भगन्दर (FISTULA-IN-ANO)

भगन्दर (FISTULA-IN-ANO)

परिचय :

यह एक प्रकार का नाड़ी में होने वाला रोग है, जो गुदा और मलाशय के पास के भाग में होता है। भगन्दर में पीड़ाप्रद दानें गुदा के आस-पास निकलकर फूट जाते हैं। इस रोग में गुदा और वस्ति के चारो ओर योनि के समान त्वचा फैल जाती है, जिसे भगन्दर कहते हैं। `भग´ शब्द को वह अवयव समझा जाता है, जो गुदा और वस्ति के बीच में होता है। इस घाव (व्रण) का एक मुंख मलाशय के भीतर और दूसरा बाहर की ओर होता है। भगन्दर रोग अधिक पुराना होने पर हड्डी में सुराख बना देता है जिससे हडि्डयों से पीव निकलता रहता है और कभी-कभी खून भी आता है।

भगन्दर रोग अधिक कष्टकारी होता है। यह रोग जल्दी खत्म नहीं होता है। इस रोग के होने से रोगी में चिड़चिड़ापन हो जाता है। इस रोग को फिस्युला अथवा फिस्युला इन एनो भी कहते हैं।

रोग के प्रकार :

भगन्दर आठ प्रकार का होता है-1. वातदोष से शतपोनक 2. पित्तदोष से उष्ट्र-ग्रीव 3. कफदोष से होने वाला 4. वात-कफ से ऋजु 5. वात-पित्त से परिक्षेपी 6. कफ पित्त से अर्शोज 7. शतादि से उन्मार्गी और 8. तीनों दोषों से शंबुकार्त नामक भगन्दर की उत्पति होती है।

1. शतपोनक नामक भगन्दर : शतपोनक नामक भगन्दर रोग कसैली और रुखी वस्तुओं को अधिक खाने से होता है। जिससे पेट में वायु (गैस) बनता है जो घाव पैदा करती है। चिकित्सा न करने पर यह पक जाते हैं, जिससे अधिक दर्द होता हैं। इस व्रण के पक कर फूटने पर इससे लाल रंग का झाग बहता है, जिससे अधिक घाव निकल आते हैं। इस प्रकार के घाव होने पर उससे मल मूत्र आदि निकलने लगता है।

2. पित्तजन्य उष्ट्रग्रीव भगन्दर : इस रोग में लाल रंग के दाने उत्पन्न हो कर पक जाते हैं, जिससे दुर्गन्ध से भरा हुआ पीव निकलने लगता है। दाने वाले जगह के आस पास खुजली होने के साथ हल्के दर्द के साथ गाढ़ी पीव निकलती रहती है।

3. वात-कफ से ऋजु : वात-कफ से ऋजु नामक भगन्दर होता है जिसमें दानों से पीव धीरे-धीरे निकलती रहती है।

4. परिक्षेपी नामक भगन्दर : इस रोग में वात-पित्त के मिश्रित लक्षण होते हैं।

5. ओर्शेज भगन्दर : इसमें बवासीर के मूल स्थान से वात-पित्त निकलता है जिससे सूजन, जलन, खाज-खुजली आदि उत्पन्न होती है।  

4. शम्बुकावर्त नामक भगन्दर : इस तरह के भगन्दर से भगन्दर वाले स्थान पर गाय के थन जैसी फुंसी निकल आती है। यह पीले रंग के साथ अनेक रंगो की होती है तथा इसमें तीन दोषों के मिश्रित लक्षण पाये जाते हैं।

5. उन्मार्गी भगन्दर : उन्मर्गी भगन्दर गुदा के पास कील-कांटे या नख लग जाने से होता है, जिससे गुदा में छोटे-छोटे कृमि उत्पन्न होकर अनेक छिद्र बना देते हैं। इस रोग का किसी भी दोष या उपसर्ग में शंका होने पर इसका जल्द इलाज करवाना चाहिए अन्यथा यह रोग धीरे-धीरे अधिक कष्टकारी हो जाता है। 

लक्षण :

भगन्दर रोग उत्पंन होने के पहले गुदा के निकट खुजली, हडि्डयों  में सुई जैसी चुभन, दर्द, दाह (जलन) तथा सूजन आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। भगन्दर के पूर्ण रुप से निकलने पर तीव्र वेदना (दर्द), नाड़ियों से लाल रंग का झाग तथा पीव आदि निकलना इसके मुख्य लक्षण हैं।

भोजन और परहेज :

आहार-विहार के असंयम से ही रोगों की उत्पत्ति होती है। इस तरह के रोगों में खाने-पीने का संयम न रखने पर यह बढ़ जाता है। अत: इस रोग में खास तौर पर आहार-विहार पर सावधानी बरतनी चाहिए। इस प्रकार के रोगों में सर्व प्रथम रोग की उत्पति के कारणों को दूर करना चाहिए क्योंकि उसके कारण को दूर किये बिना चिकित्सा में सफलता नहीं मिलती है। इस रोग में रोगी और चिकित्सक दोनों को सावधानी बरतनी चाहिए।

चिकित्सा

पुनर्नवाः

पुनर्नवा, हल्दी, सोंठ, हरड़, दारुहल्दी, गिलोय, चित्रक मूल, देवदार और भारंगी के मिश्रण को काढ़ा बनाकर पीने से सूजनयुक्त भगन्दर में अधिक लाभकारी होता है। पुनर्नवा शोथ-शमन कारी गुणों से युक्त होता है।
पुनर्नवा के मूल को वरुण (वरनद्ध की छाल के साथ काढ़ा बनाकर पीने से आंतरिक सूजन दूर होती है। इससे भगन्दर के नाड़ी-व्रण को बाहर-भीतर से भरने में सहायता मिलती है।

नीम:

नीम की पत्तियां, घी और तिल 5-5 ग्राम की मात्रा में लेकर कूट-पीसकर उसमें 20 ग्राम जौ के आटे को मिलाकर जल से लेप बनाएं। इस लेप को वस्त्र के टुकड़े पर फैलाकर भगन्दर पर बांधने से लाभ होता है।
नीम की पत्तियों को पीसकर भगन्दर पर लेप करने से भगन्दर की विकृति नष्ट होती है।

गुड़:

पुराना गुड़, नीलाथोथा, गन्दा बिरोजा तथा सिरस इन सबको बराबर मात्रा लेकर थोड़े से पानी में घोंटकर मलहम बना लें तथा उसे कपड़े पर लगाकर भगन्दर के घाव पर रखने से कुछ दिनों में ही यह रोग ठीक हो जाता है।

शहद:

शहद और सेंधानमक को मिलाकर बत्ती बनायें। बत्ती को नासूर में रखने से भगन्दर रोग में आराम मिलता है।

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