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Indian Ayurved :- भ्रूण और बच्चे का विकास Growth of embryo

परिचय-
कोई भी स्त्री और पुरुष जब आपस में सभोग क्रिया करते हैं तो निषेचन के कुछ ही घंटों के अंदर पुरुष के शुक्राणु और स्त्री के अंडाणु आपस में एकसाथ मिल जाते हैं। इसको जायगोर कहा जाता है। लगभग 24 घंटों के बाद यह जायगोर 2 भागों में बंट जाता है और इसके बाद यह दुबारा 4,8,16,32,64 कोषो में बंट जाता है। इस प्रकार की प्रक्रिया चलते रहने के अंदर 72 घंटों में इन कोषों का एक बड़ा समूह बन जाता है। गर्भावस्था के पहले 8 सप्ताहों (लगभग 2 महीने) तक गर्भ में पल रहे बच्चे को भ्रूण कहा जाता है।
निषेचित हो चुका स्त्री का अंडाणु अंडवाहिनी की गुहा में धीरे-धीरे एक हफ्ते तक गर्भाशय की ओर बढ़ता रहता है। इसके साथ-साथ जायगोर भी कोषों में बंटता रहता है। तीसरे हफ्ते में यह गर्भाशय की आंतरिक मुलायम परत के साथ संबंध जोड़ लेता है। यहां पर भ्रूण का विकास होता रहता है। भ्रूण का विकास होने के साथ-साथ ही गर्भाशय का आकार भी बढ़ता जाता है।
गर्भ ठहरने की शुरुआत में भ्रूण को चारों तरफ से एक झिल्ली लपेटकर अपनी थैली में बंद कर लेती है। इस थैली में एक खास प्रकार का तरल पदार्थ भरा होता है इसी तरल पदार्थ के अंदर भ्रूण तैरता रहता है। इस तरल का तापमान हमेशा एक जैसा ही रहता है जिससे भ्रूण अर्थात बच्चे को न तो सर्दी और न ही गर्मी का एहसास होता है।
गर्भधारण करने के 1 महीने के अंदर डिंब बढ़कर चौथाई इंच का हो जाता है। इसके एक तिहाई भाग में सिर और पीठ के उभार और हाथ-पैरों की संरचना दिखाई देती है। इसके बाद रीढ़ की हड्डी़ का विकास होना शुरू हो जाता है। पीठ के उभार मांस-पेशियों के रूप में बदल जाते हैं। फिर चेहरे, आंख , नाक , कान, मुंह आदि के चिन्हों का बनना शुरू हो जाता है। इसके एक सिरे पर लगभग 2 मिलीमीटर की एक पूंछ होती है जो गर्भ ठहरने के दूसरे महीने के अंत तक रहती है।
गर्भ ठहरने के चौथे हफ्ते में भ्रूण
गर्भाशय की अंदरूनी दीवार से संपर्क स्थापित करके पोषित होता रहता है और आक्सीजन ग्रहण करता है। पांचवें सप्ताह में भ्रूण के मस्तिष्क की रचना होना शुरू हो जाती है। इस हफ्ते में कोषों की ऊपरी परत में एक नली का निर्माण होने लगता है जो बच्चे का दिमाग और गर्भनाल बनाती है। इसके साथ-साथ बच्चे का हृदय भी निर्मित होना शुरू हो जाता है। इस अवस्था के दौरान भ्रूण 2 मिलीमीटर बढ़ जाता है।
गर्भ ठहरने के के छठे-सातवें सप्ताह में भ्रूण के सिर पर एक बड़ा सा उभार निकल आता है और हृदय का विकास होता रहता है। हृदय में धड़कन होना भी शुरू हो जाती है जिसे एक खास किस्म के यंत्र द्वारा ही सुना जा सकता है। भ्रूण के आंख और कान के उभार भी बढ़ जाते हैं। उसके हाथ और पैरों पर भी छोटे-छोटे उभार पैदा हो जाते हैं। लगभग 7 हफ्ते के बाद भ्रूण 8 मिलीमीटर तक बढ़ जाता है।
गर्भ ठहरने के के आठवें और नौवें हफ्ते में भ्रूण में चेहरा और आंखें साफ-साफ नजर आने लगती है। उसके मुंह में जीभ, हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े, गुर्दे, हाथ-पैरों की उंगलियां और अंगूठे का विकास होना शुरू हो जाता है। नौवें सप्ताह में भ्रूण 17 मिलीमीटर बड़ा हो जाता है।
लगभग 12 सप्ताह तक बच्चे के सभी अंदरूनी अंग काफी विकसित हो चुके होते हैं लेकिन उनके विकास की प्रकिया लगातार चलती रहती है। जैसा कि पहले ही बताया ज चुका है कि भ्रूण गर्भाशय की पतली झिल्ली में भरे ’एम्निओटिक फ्लयूड’ (तरल पदार्थ) में तैरता रहता है। यह तरल पदार्थ भ्रूण को बाहरी समस्याओं से सुरक्षा प्रदान करता है। इस समय तक बच्चे की गतिमय स्थिति का मां को एहसास नहीं हो पाता। स्त्री का गर्भाशय ऊपर की ओर बढ़ता रहता है और पेड़ू में उभार के रूप में दिखाई देने लगता है। लगभग चौदहवें हफ्ते में बच्चे की लंबाई 56 मिलीमीटर तक हो जाती है। बच्चे के बाहरीय लैंगिक अंगों का विकास शुरू हो जाता है लेकिन अब तक ये पहचान नहीं किया जा सकता कि स्त्री के गर्भ में लड़का है या लड़की।
लगभग 15 से 22 हफ्ते में बच्चे की बढ़ोतरी तेज गति से होती है। उसके सिर पर बाल उगने लगते हैं। आंखों पर पलकें बनने लगती है लेकिन बंद रहती है। अब तक बच्चा काफी गतिशील हो चुका होता है। बच्चे की गति का अनुभव स्त्री को गर्भ ठहरने के अठारह से बीसवें हफ्ते में होता है। इस अनुभव को ’क्विकनिंग’ कहा जाता है। बच्चे के मसूढ़ों में दांतों का निर्माण होना शुरू हो जाता है। 22 हफ्ते के बाद बच्चे की लंबाई 160 मिलीमीटर तक हो जाती है।
23 से 30 हफ्ते में बच्चा ज्यादा गतिमान हो जाता है और पेट पर हाथ लगाने से कभी-कभी झटके के साथ कूद सकता है। बच्चा हिचकियां भी लेने लगता है जिसको मां हल्के झटकों के रूप में महसूस करती है। बच्चा ’एम्निओटिक झिल्ली’ में भरे तरल पदार्थ को थोड़ी मात्रा में पीता है और मूत्रत्याग करता है। इस समय बच्चे के हृदय की धड़कन को स्त्री के पेट पर कान लगाकर सुना जा सकता है। अगर किसी कारण से अठाईसवें हफ्ते में ही बच्चे का जन्म हो जाता है तो उसके बचने की संभावना बहुत कम होती है। इसके लिए डाक्टरी सहायता की जरूरत पड़ती है। छबीसवें हफ्ते में बच्चे की आंखों की पलकें पहली बार खुलती है।
इकतिसवें से चालीसवें हफ्ते के बीच में बच्चे के शरीर पर बहुत सारा मांस चढ़ जाता है। बतीसवें हफ्ते में बच्चे का सिर स्थिर हो जाता है। छतीसवें हफ्ते में बच्चा 46 सेमीमीटर का हो जाता है। अंडकोषों में अंड आ जाते हैं। चालीसवें हफ्ते में बच्चा पूरी तरह से विकसित हो जाता है और प्रसव द्वारा दुनिया में आने के लिए तैयार हो जाता है। कुछ स्त्रियों में बच्चे का विकास बहुत धीमी गति से होता है जिससे बच्चे का जन्म तयशुदा तारीख से देर में होता है।
बच्चे का विकास कम या ज्यादा होने के अनुसार उसके जन्म की दी हुई तारीख से 5 से 7 दिन का अंतर आ जाता है लेकिन अगर 41 हफ्ते तक बच्चे का जन्म नहीं होता है तो जल्द से जल्द डाक्टर की सहायता लेनी चाहिए।
वैसे तो गर्भ ठहरने से लेकर प्रसव होने तक की अवधि 280 दिनों की है। यह नौंवा महीना होता है जिसमें बच्चे की लंबाई लगभग 20 इंच और उसका वजन लगभग 3.5 किलोग्राम होता है। बच्चे का सिर नीचे आ जाता है, हाथ-पैर चलने लगते हैं. त्वचा के नीचे काफी मात्रा में चर्बी (फेट) जमा हो जाता है। इस समय बच्चे की शिराएं (नसें) दिखाई नहीं देती है। बच्चे का हर अंग साफ नजर आने लगता है और वह जन्म लेने के लिए तैयार हो जाता है।
गर्भाशय में बदलाव-
गर्भ में बच्चे का विकास होने के साथ-साथ गर्भाशय में भी कुछ खास किस्म के बदलाव होते रहते हैं। बच्चा गर्भनाल द्वारा गर्भाशय की अंदरूनी दीवार से संपर्क बनाकर पोषित होता रहता है। गर्भनाल द्वारा ही बच्चे का हृदय और रक्त-संचार मां के रक्त-संचार से संबंधित होता है। इसी वजह से मां के शरीर में
खून की कमी होने पर, दवाईयों के सेवन करने पर और भोजन करने पर सबका असर बच्चे पर भी पड़ता है। कभी-कभी अपरा (प्लासेंटा) गर्भाशय के निचले भाग में स्थित हो जाता है। इससे गर्भाशय और अपरा अलग भी हो सकते हैं। ऐसी अवस्था में गर्भावस्था के दौरान या फिर प्रसव से पहले योनि से रक्त का स्राव भी हो सकता है।
सामान्य तौर पर स्त्री का गर्भाशय 7 सेमीमीटर लंबा, 5 सेमीमीटर चौड़ा और 2.5 सेमीमीटर मोटा होता है। गर्भावस्था की अंतिम अवस्था में यह बढ़कर 38 सेमीमीटर लंबा, 25 सेमीमीटर चौड़ा हो जाता है। गर्भाशय का सामान्य वजन लगभग 40 ग्राम होता है जो गर्भावस्था के दौरान 800 ग्राम हो जाता है। गर्भाशय के बढ़ जाने से स्त्री का पेट भी बढ़ जाता है।
एम्निओटिक झिल्ली-
जैसे की पहले ही बताया जा चुका है कि गर्भ में पल रहे बच्चे को बाहर की समस्याओं से बचाने के लिए वह एक एम्निओटिक झिल्ली में बंद हो जाता है जिसके अंदर एम्निओटिक फ्लूड भरा होता है जिसमें बच्चा तैरता रहता है।
यही झिल्ली स्त्री के प्रसव के समय टूट जाती है और उसमें भरा हुआ एम्निओटिक फ्लूड बाहर निकल जाता है जिसके कारण गर्भाशय सिकुड़ जाता है। गर्भाशय के सिकुड़ने से उसका दबाव बच्चे पर पड़ता है और वह जन्म ले लेता है।
इसके अलावा बच्चे की बहुत सी शारीरिक जानकारियों के बारे में भी इस एम्निओटिक फ्लूड से पता लगाया जा सकता है। बच्चे के शरीर का विकास होने के दौरान उसकी कुछ कोशिकाएं शरीर से झड़कर इस तरल पदार्थ में गिर जाती है। सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से इन कोशिकाओं का अध्ययन करके बच्चे के लिंग और वंशानुगत रोगों के बारे में पता लगाया जाता है। इस तरल पदार्थ की जांच सुई द्वारा की जाती है। इस जांच करने की विधि को एम्नि ओसेन्टिसिस कहते हैं।
सावधानी-
एम्नि ओसेन्टिसिस जांच को हमेशा किसी कुशल चिकित्सक से ही करवाना चाहिए क्योंकि इस जांच से कभी-कभी गर्भपात होने के आसार भी पैदा हो जाते हैं। गर्भाशय में पल रहे बच्चे की गतिविधियां सिर्फ इसी तरल पदार्थ द्वारा पता की जा सकती है। इस तरल पदार्थ में बच्चा गर्भनाल से बंधा होने के बावजूद बिना किसी परेशानी के गतिशील रह सकता है और यही गतिशीलता बच्चे के विकास के लिए जरूरी है।
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