परिचय-
एक्युप्रेशर और एक्युपंचर का जन्म लगभग एक साथ ही हुआ था। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसका जन्म भारत में लगभग 6,000 साल पहले हुआ था और चीनी व्यापारियों के कारण यह भारत से चीन ले जाया गया था। आसान व प्राकृतिक रूप से सहज-सुलभ और लाभकारी होने के कारण चीन के लोगों ने इसे आसानी से अपना लिया जहां चीन में यह चिकित्सा प्रचलित हुई वहीं दूसरी तरफ भारत से इसका पतन हो गया। जिसका मुख्य कारण भारत में विदेशी शासन व आक्रमण से सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन में परिवर्तन का आना था।
आज कई देशों के डॉक्टर व विशेषज्ञ इस पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने चीन जाते हैं। चीन में एक्युप्रेशर को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त चिकित्सा पद्धति के रूप में सदियों से अपनाया जाता रहा है। चीन के प्राचीन ग्रन्थों में एक्युप्रेशर तथा एक्युपंचर के उल्लेख हैं। डॉ. चु. लिएन के द्वारा लिखित चेन चियु सुएह (अर्वाचीन एक्युपंचर) नामक ग्रंथ, आज चीन में इस विषय का अधिकृत प्रमाणित ग्रंथ माना जाता है। इसमें एक्युप्रेशर के लगभग 669 बिन्दुओं की सूची दी गई है कुछ अन्य चार्टों में 1000 तक बिन्दु दिखाए गये हैं। मगर रोजाना प्रयोग में 100-120 बिन्दु ही अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
इन सबके बावजूद भी चीन को एक्युप्रेशर की मान्यता नहीं मिल पा रही थी क्योंकि अमेरिका के वैज्ञानिक बिना तथ्यों के कोई बात स्वीकार नहीं करते। सन् 1971 में तत्कालीन अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चीन यात्रा पर गए। उनके साथ गए पत्रकारों के प्रतिनिधि मण्डल में जेम्स रस्टन नामक पत्रकार भी था चीन पहुंचने पर कुछ घंटों बाद ही रस्टन को अपेंडिसाइटिस का दर्द उठा। अपेंडिक्स पर सूजन बढ़ने या उसके बढ़ जाने से बहुत सी परेशानियां हो सकती थी इसलिए उसका जल्द ही आप्रेशन करना पड़ा मगर आप्रेशन के बाद भी जेम्स रस्टन को आराम न आया। तब रस्टन का उपचार एक्युपंचर (जिसमें चांदी की सुइयों का इस्तेमाल करते हैं) व एक्युप्रेशर से किया गया इससे थोड़ी ही देर बाद उन्हें आराम आ गया। इस उपचार पद्धति से रस्टन ही नहीं अपितु अमेरिका के सुप्रीमो निक्सन भी प्रभावित हुए। इसके बाद तो यह पद्धति पूरे यूरोप में तेजी से फैलने लगी। अमरीका में बीसवीं सदी में एक्युप्रेशर थैरेपी पर काफी रिसर्च किया गया और लगभग वहीं से इस थैरेपी को विकसित करने में अनुसंधान ने अपना योगदान दिया। आजकल अनेक डॉक्टर एवं एक्युप्रेशर विशेषज्ञ इस थैरेपी का उपयोग करते हैं।
एक्युप्रेशर का सफर अभी खत्म नहीं हुआ था यह पद्धति चीन से जापान गई जिसे बौद्ध भिक्षुओं द्वारा ले जाया गया था वहां के लोगों ने इसका नाम शिआत्सु रखा। शिआत्सु का संधिविच्छेद करने पर दो शब्द बनते हैं शि+आत्सु जिसका जापानी भाषा में अर्थ है ´शि´ यानी अंगुली और ´आत्सु´ यानी दबाव से बना होना। इस पद्धति के अनुसार सिर्फ हाथों के अंगूठों और उंगलियों के साथ ही विभिन्न ´शिआत्सु´ केन्द्रों पर प्रेशर दिया जाता है।
प्राचीन काल में भी चरक जैसे बड़े चिकित्सकों ने भी इस पद्धति का लाभ मालिश व मसाज के रूप में लिया है।
आज एक्युप्रेशर द्वारा कई डॉक्टर तथा विशेषज्ञ गंभीर से गंभीर रोग का इलाज आसानी से कर देते हैं। इस पद्धति में बिना दवा तथा आप्रेशन के रोगी को रोग मुक्त किया जा सकता है और इसे हर जगह और हर समय अपनाया जा सकता है।