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आकाश तत्व चिकित्सा

 

परिचय-

            जल, पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि पांचों तत्वों में सबसे पहला और लाभकारी तत्व आकाश तत्व होता है। इस तत्व को `शून्य´ भी कहा जाता है। जिस तरह से भगवान निराकार लेकिन बिल्कुल सच है उसी तरह से आकाश तत्व भी निराकार लेकिन सच है। आकाश तत्व का कभी भी नाश नहीं हो सकता। आकाश तत्व विशुद्ध तथा निर्विकार होता है। इसलिए उससे हमें विशुद्धता और निर्मलता की प्राप्ति होती है। आकाश में देवताओं का वास माना जाता है जो अमर होते हैं। हम भी आकाश तत्व का भरपूर और सही मात्रा में सेवन करके अमर तो नहीं लेकिन निरोगी और लंबी उम्र तक तो जी सकते हैं। जो ताकत हमें आकाश तत्व से मिलती है, वह बहुत ज्यादा लाभकारी होती है। आकाश तत्व आत्मिक, मानसिक और शारीरिक तीनों तरह के स्वास्थ्य को अच्छा बनाने वाली होती है। यह सच है कि अगर आकाश तत्व का जन्म न हुआ होता तो न तो हम सांस ही ले सकते और न ही हमारी स्थिति और अस्तित्व ही होता। शेष चारों तत्वों का आधार भी आकाश तत्व होता है।

            आकाश ब्रह्माण्ड का आधार भी होता है। इस तत्व को प्राप्त करने का एक प्रबल साधन उपवास है। वैसे भी रोजाना भूख से थोड़ा सा कम खाकर हम इस कीमती और उपकारी तत्व को पाकर सुख शांति के भागी बन सकते हैं। किसी रोग से घिर जाने पर उपवास करके शरीर की जीवनीशक्ति के कामों को बंद करवाकर हम अपने शरीर में आकाश तत्व की कमी को पूरा कर सकते हैं जिसके नतीजतन हम खुद ही स्वस्थ हो जाते हैं। शोक, काम, गुस्सा, मोह और डर आकाश तत्व के ही काम हैं। शरीर के अन्दर आकाश तत्व के खास स्थान सिर, गला, दिल, पेट और कमर है। दिमाग में मौजूद आकाश, वायु का वह भाग है जो प्राण का मुख्य स्थान है। हृदय देशगत तेज का भाग है जो पित्त का मुख्य स्थान है। इससे अन्न हजम हो जाता है। पेट देशगत आकाश जल का भाग है, इससे हर तरह के मल को बाहर निकालने की क्रिया सम्भव होती है। कटि देशगत आकाश पृथ्वी का भाग है यह ज्यादा स्थूल होता है और गंध का आश्रय है।

            किसी महान विद्वान ने कहा है कि आकाश तत्व आरोग्य सम्राट है। उनके मुताबिक आकाश का राज जानना भगवान का राज जानने के समान है। ऐसे महान तत्व का जितना ही अभ्यास और इस्तेमाल किया जाएगा, उतना ही ज्यादा आरोग्य मिलेगा। जिस तरह से आकाश हमारे आसपास, ऊपर और नीचे है इसी तरह से वह हमारे अन्दर भी है। चमड़ी के 1-1 छेदों में तथा 2 छेदों के बीच में जहां जगह है वहां आकाश तत्व होता है। इस आकाश तत्व की खाली जगह को हमें भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अगर हम अपना रोजाना करने वाला भोजन जितनी शरीर को जरूरत है उतना ही लें और ज्यादा न खाएं तो शरीर में खाली जगह रहेगी। इसलिए अगर सप्ताह में एक बार उपवास कर लिया जाए तो सब घट-बढ़ सकती है। अगर पूरे दिन उपवास करना सम्भव न हो तो दिन में एक बार का भोजन न करने से भी लाभ होता है।

ब्रह्याचर्य, संयम और मैथुन-

            शास्त्रों के मुताबिक ब्रह्यचर्य को 2 भागों में बाटां गया है-

उपकर्वाण ब्रह्याचार्य और नैष्टिक ब्रह्याचर्य।

उपकर्वाण ब्रह्याचार्य-

            1-2 या 3 वेदों को पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त करके अपने गुरू की आज्ञा से जो विद्यार्थी गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है उसे उपकर्वाण ब्रह्याचर्य कहते हैं।

नैष्टिक ब्रह्याचार्य -

            जिस विद्यार्थी ने जीवन भर के लिए ब्रह्यचर्य का व्रत ले लिया हो उसे नैष्ठिक ब्रह्यचारी कहा जाता है।

            हर तरह के मैथुन का त्याग कर देना ही ब्रह्यचार्य कहलाता है। शास्त्रों में मैथुन के निम्नलिखित प्रकार के वर्णन मिलते हैं।

मैथुन के प्रकार-

मानसिक मैथुन-

  • किसी स्त्री के शरीर अथवा हाव-भाव आदि को मन में याद करना।
  • गलत तरह के पुरुषों की गलत क्रियाओं को याद करना।
  • अपने द्वारा पहले के समय में की गई सैक्स आदि क्रियाओं के बारे में सोचना।
  • आने वाले समय में किसी स्त्री के साथ सैक्स करने के बारे में सोचना।
  • किसी स्त्री के गंदे चित्रों को देखकर मन में अश्लील बातें आना।

केलि मैथुन-

  • स्त्रियों के साथ हंसी-मजाक करना या नाचना गाना।
  • मजे लेने के लिए क्लबों, बार आदि में जाना।
  • स्त्रियों के साथ गंदी हरकतें करना।

कीर्तन मैथुन-

  • अश्लील बातें करना।
  • स्त्रियों के रूप-रंग, यौवन आदि का वर्णन करना।
  • सैक्स के बारे में बातें करना।
  • गंदे गाने गाना, गंदी किताबें पढ़ना आदि।

प्रेक्षण मैथुन-

  • स्त्रियों के शरीर के अंगों को देखना।
  • किसी सुंदर स्त्री के चित्र को देखना, श्रंगार रस के नाटक, सिनेमा आदि देखना।
  • उत्तेजक वस्तुओं तथा सजावट के सामान को देखना।

श्रृंगार मैथुन-

            खुद को सुन्दर दिखाने के लिए बालों को बनाना, बालों में कंघी करना, अच्छे-अच्छे कपड़े पहनना, परफ्यूम आदि लगाना, फूलों की माला पहनना, आंखों में सुरमा लगाना, दांतों में सोना लगवाना, होंठों को लाल करने के लिए लिपिस्टिक लगाना ये सभी श्रृंगार मैथुन के अंर्तगत आते हैं।

गुह्नयभाषण मैथुन-

            किसी शांत सी जगह पर स्त्री को ले जाकर गंदी-गंदी बातें करना, उनकी खूबसूरती, जवानी और शरीर की तारीफ करना, हंसी-मजाक करना आदि सब गुह्नयभाषण मैथुन में आते हैं।

स्पर्श मैथुन-

            कामवासना की दृष्टि से किसी स्त्री को छूना, चुम्बन करना, स्त्री के नाजुक अंगों को छूना, स्त्री के साथ संभोग करना आदि स्पर्श मैथुन में आते हैं।

रूप मैथुन-

            स्त्रियों को गंदी तथा यौन उत्तेजना बढ़ाने वाले किस्से सुनाना, स्त्री के रूप, खूबसूरती और अंगों के बारे में बातें सुनना आदि रूप मैथुन के अंतर्गत आते हैं।

वीर्य और रज:-

            जिस तरह से दूध के अन्दर मक्खन, तिल या सरसों के अन्दर तेल, मीठी चीजों में मिठास और फूलों में खुशबू रहती है उसी तरह से पुरुषों के शरीर में वीर्य और स्त्री के शरीर में रज: मौजूद रहता है। पुराने ग्रंथों में यह लिखा गया है कि यदि भोजन की मात्रा 40 किलो हो तो उससे 1 लीटर खून बनेगा और 1 लीटर खून से सिर्फ 20 मिलीलीटर वीर्य बनता है। अगर कोई भी स्वस्थ आदमी रोजाना 1 किलो भोजन खाए तो इस हिसाब से वह 40 दिनों में 40 किलो भोजन करेगा। इसका मतलब यह है कि सिर्फ 20 मिलीलीटर वीर्य को बनने में 40 दिन लग जाते हैं। इस प्रकार यदि शरीर से 20 मिलीलीटर वीर्य निकलता है तो तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि शरीर से 1 लीटर खून निकल गया। लेकिन आज के शरीर विज्ञानी इस सच नहीं मानते। शास्त्रों के मुताबिक 1 बार का वीर्य निकलने से किसी भी मनुष्य की उम्र 1 महीने के करीब कम हो जाती है। अब सोचने वाली बात तो यह है कि थोड़ी देर के मजे के लिए अपने वीर्य को बर्बाद करना कितनी बड़ी बेवकूफी सिद्ध होती है।

वीर्य और रज: की 2 गतियां होती है-

  • ऊर्ध्वगति।
  • अधोगति।

ऊर्ध्वगति-

         जब वीर्य और रज: पैदा होकर शरीर में खून के जरिये ऊर्ध्व हो जाए तो उसे ऊर्ध्वगति कहते हैं।

अधोगति-

         रज: या वीर्य का निकल जाना उसकी अधोगति कहलाता है।

जानकारी-

            जब शरीर के अन्दर रज: और वीर्य बन जाता है और उन्हें नष्ट नहीं किया जाता तो वह शरीर में मौजूद खून में मिलकर ओज में बदल जाता है और पूरे शरीर में फैल जाता है जिसके नतीजतन पुरुष के अन्दर मर्दानगी के सारे लक्षण और स्त्रियों में यौवन के सारे लक्षण प्रकट होकर उनमें तेज, चमक, ताकत की बढ़ोत्तरी होती है।

वीर्यपात से बचने के आसान तरीके-

  • वीर्यपात न हो इसके लिए आठों प्रकार के मैथुनों से दूर रहना चाहिए।
  • अपने रोजाना खाने वाले भोजन में तेज पदार्थों जैसे- लालमिर्च, गर्म मसाले, खटाई, अचार, मांस-मछली, चाय-कॉफी को निकालकर सादा और प्राकृतिक भोजन का सेवन करना चाहिए।
  • किसी भी तरह की नशीली चीजें या पीने वाले पदार्थ जैसे- शराब, भांग, अफीम, चरस, स्मैक आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। यहां तक कि चाय और कॉफी को भी त्याग देना चाहिए।
  • सुबह के समय सूरज उगने से कम से कम 2 घंटे पहले उठ जाना चाहिए और ताजी हवा में घूमने जाना चाहिए। इस समय सूरज उगने तक रोजाना हर मौसम में `दक्षिणायन हवा´ चलती है जो बहुत ज्यादा स्वास्थ्यवर्द्धक होती है, इस हवा का लाभ उठाना चाहिए। यह हवा सूरज उगने के बाद बंद हो जाती है।
  • रात को बचा हुआ बासी भोजन नहीं खाना चाहिए। अगर किसी कारण से रात के भोजन को खाना पड़े तो उसे पहले गर्म कर लें।
  • ऐसा भोजन नहीं खाना चाहिए जिससे कि पेट में कब्ज होने का खतरा हो क्योंकि कब्ज ही दूसरे रोगों को पैदा करता है।
  • स्वाद-स्वाद में ज्यादा भोजन नहीं खाना चाहिए, जितनी भूख हो उससे थोड़ा सा कम ही खाना चाहिए।
  • रोजाना कोई न कोई आसन या व्यायाम जरूर करना चाहिए।
  • हफ्ते में 1 दिन सिर्फ पानी पर रहकर उपवास करना चाहिए।
  • सुबह-शाम खुली और ताजी हवा में जरूर घूमना चाहिए।
  • हस्तमैथुन आदि करने से हमेशा दूर रहना चाहिए।
  • कई स्त्रियों के साथ अधिक संभोग करने से बचना चाहिए।
  • अपने मन में आने वाले विचारों को हमेशा शुद्ध रखना चाहिए और प्राकृतिक जीवन बिताना चाहिए।
  • मन को हमेशा अच्छे कामों में लगाना चाहिए।
  • रात को सोते समय पेशाब करके पैरों को ठंडे पानी से धोकर अपने भगवान का नाम लेते हुए सोना चाहिए।
  • रात में सोने से पहले-पहले गर्म-गर्म दूध नहीं पीना चाहिए क्योंकि इससे बहुत बुरे सपने आते हैं और व्यक्ति का स्वप्नदोष (नाईट फाल) हो जाता है। अगर ऐसी आदत हो तो उसे छोड़ देना चाहिए और उसकी जगह आधा या 1 गिलास भर गुनगुने पानी में आधा या 1 कागजी नींबू का रस निचोड़कर पीना चाहिए।
  • रात को सोते समय टाईट अण्डरवियर, कच्छा या लंगोट या इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से स्वप्नदोष होता है तथा लिंग की कमजोरी आदि रोग पैदा होकर नपुंसकता का रोग पैदा हो सकता है।
  • वीर्यपात न हो इससे बचने के लिए औषधियों का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • वीर्यपात से बचने के लिए टॉनिकों का इस्तेमाल भी नहीं करना चाहिए क्योंकि ये भी हानिकारक होते है।
  • अगर वीर्यपात, स्वप्नदोष में बदल जाए तो ऐसी हालत में किसी योग्य प्राकृतिक चिकित्सक से उपचार करवाकर मुक्ति पाई जानी चाहिए।

संयमरूपी दिव्य अस्त्र का इस्तेमाल करें-

         ब्रह्मचर्य और संयम का आपस में बहुत गहरा सम्बंध है। संयम, मानव जीवन का सबसे ऊंचा आदर्श है। खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, व्यवहार आदि जीवन के सारे कार्यकलापों में इस मर्यादा का पालन करके मनुष्य शरीर और मन दोनों से पूरी तरह से स्वस्थ रह सकता है। उच्छ्रंखल इन्द्रियों का निग्रह करना ही जीवन कला है। संयमित जीवन का पुनीत मार्ग भले ही प्रकट होने पर नीरस सा लगे, लेकिन इसका नतीजा बहुत ही लाभ देने वाला होता है।

मन को काबू में कैसे करें?-

            मन को काबू में करने मे इन्द्रियों की गुलामी सबसे बड़ी रुकावट है जो चित्त-चांचल्य का असली कारण है। विभिन्न प्रकार की सांसारिक वासनाओं के हाथों में पड़ा यह मानव कठपुतली की तरह नाचता रहता है। वासनाएं इंसान को जिस तरह नचाना चाहती हैं, इंसान उसी तरह नाचता है। बोली, छूना, रूप, रस, गंध, काम, गुस्सा, लालच तथा घमंड में घिरा हुआ मनुष्य किसी गेंद की तरह उछलता रहता है। इन वासनाओं की न तो कभी पूर्ति होती है और न ही इन्हें कभी शांति मिलती है। मनुष्य को एक वासना से छुटकारा मिलता नहीं कि वह दूसरी वासना के जाल में फंस जाता है, फिर तीसरी के जाल में और यही सब मनुष्य के जीवन की समाप्ति तक चलता रहता है। मनुष्य को अपने भले के बारे में सोचने का समय ही नहीं मिल पाता। यही मनुष्य के पतन का रास्ता है, इसलिए अपनी इन्द्रियों के इशारों पर न चले तो मनुष्य के लिए अच्छा रहता है।

            मनुष्य के जीवन में भोजन करना और घूमना, मेहनत करना और आराम करना आदि सभी की जरूरत होती है, लेकिन भोजन में कौन-कौन सी चीजें लाभकारी हैं और उनको कितना खाना चाहिए, घूमना कब और कैसे करना चाहिए तथा मेहनत और आराम कितना करना चाहिए आदि बातों का फैसला इन्द्रियों पर छोड़ देना बेवकूफी का काम है, इन कामों को अगर दिमाग करे तो ही अच्छा है। दिमाग को धीरे-धीरे अभ्यास कराने से शुद्ध रहने पर वह एक न एक दिन इस काबिल बन जाता है कि वह खुद इन्द्रियों को अपने अनुसार चला सके और अगर मन को इन्द्रियों का गुलाम बने रहने दिया जाए तो हमेशा धोखा ही होता रहेगा। इसलिए मन को शुद्ध करने के लिए किसी शांत जगह में आत्मपर्यालोचन से बड़ी मदद मिलती है। रोजाना रात को सोने से पहले उस पूरे दिन के अच्छे और बुरे कामों का तथा कोशिशों का लेखाजोखा लेते रहना महान लोगों का काम है। इससे कालान्तर में मन की चंचलता दूर करना सम्भव हो जाता है। हम लोग दूसरों से अपने बहुत सारे अवगुण छुपा सकते हैं, लेकिन अपने आपसे कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। इसलिए जब तटस्थ होकर अपने पूरे दिन के कामों की आलोचना करने लगते हैं तो चित्त के न जाने कितने ही दोष और पाप एक-एक करके सामने आ जाते हैं। उस समय हम अपने दम्भ, कपट, नीचता और बुरे कर्मों को देखकर खुद ही डर जाते हैं और फिर दुबारा कभी भी ऐसा न करने की कसम खाते हैं।

        मन को काबू में करने का दूसरा साधन है भगवान की भक्ति करना। इसलिए संसार के हर धर्मों में पूजा-पाठ, अजान-नमाज आदि करने के नियम हैं और रोजाना इनकी उपासना करना ग्रन्थों का आदेश है जो बेकार नहीं है। इससे मन को काबू में करने अथवा गंदे मन को साफ करने में बड़ी मदद मिलती है। अगर रोजाना 20 से 30 मिनट भी सच्चे दिल से भगवान की भक्ति कर ली जाए तो बिना कोई शक मन आपके काबू में हो जाएगा।

            कुछ महान लोगों को कहना है कि मन को विषय-भोग करने की खुली छूट दे देनी चाहिए, ताकि जब वह विषय भोग करके पूरी तरह साफ हो जाएगा तो वो खुद ही स्थिर हो जाएगा, लेकिन हमारी अपनी दुष्ट बुद्धि से विचार नितांत भ्रममूलकर और प्रतिकूल प्रतीत होता है क्योंकि जनकादि प्रभूति राजर्षिगणों ने अच्छे विषयों का लंबे समय तक पूरी तरह सेवन किया, लेकिन फिर भी उनके मन की संतुष्टि नही हुई और उनकी इच्छा और भी तेज होती गई।

वाणी को काबू में कैसे करें?-

            वाणी में इन्द्रियों को चलाने की शक्ति होती है। इसलिए वाणी को काबू में करना मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है। किसी को ताने देना, चिढ़ाना, गाली देना, घृणा का भाव दिखाना, गलत नज़र से देखकर गंदा मजाक करना आदि असंयमित वाणी के लक्षण हैं। इन सबसे बचना वाणी को काबू में करना कहलाता है। कठोर शब्द वैमनस्य पैदा करते हैं और सालों पुरानी पक्की दोस्ती को सिर्फ एक ही पल में तोड़ देते हैं। इसके विपरीत प्यार भरी मीठी वाणी से बड़े से बड़ा दुश्मन भी दोस्त बन जाता है।

             शब्द में बहुत ज्यादा शक्ति होती है। मंत्र का दूसरा नाम शब्द ही तो है, जिससे न होने वाले काम भी हो जाते हैं। लेकिन हर शब्द मंत्र नहीं हो सकता। इसी तरह हर व्यक्ति के मुंह से निकला हर शब्द अपना असर नहीं दिखा सकता। जिस मनुष्य को काबू करना आता है, सिर्फ उसी की वाणी में वह चमत्कारिक शक्ति होती हे जो सुनने वालों को अपना बना लेती है।

          वाणी को काबू में करने का एकमात्र उपाय `मौन रहना´ है। मौन में बड़ी ताकत होती है। मौन का दूसरा नाम शांति भी है, जिससे दुनिया की सारी वस्तुएं उदभूत हुई है। जिसमें  वह स्थित रहती है और अंत में उसी में विलीन भी हो जाती है। वेदों में जिस स्थल पर मौन की व्याख्या की गई है, वहां पर उसको `शांतम´ कहा गया है। जिसका मतलब सुख और आनन्द है। `शांतम´ को ही प्रणव अथवा सोहम् कहा जाता है जो हमारे सांस लेने और सांस छोड़ने में समाया हुआ रहता है। दुनिया का सारा काम मौनव्रत रहता है। स्त्री के गर्भ में पल रहे बच्चे की वृद्धि मौनव्रत होती है। वृक्षादि मौनव्रत पैदा होते हैं, मौनव्रत बढ़ते हैं।

कर्म का संयम कैसे करें?-

            सच-झूठ को समझना और तदनुसार आचरण करना कर्म का संयम कहलाता है। इस काम में विवेक बुद्धि से सहायता लेनी चाहिए। जब कोई सत काम सामने आए और वह दिमाग को अच्छी तो उसे तुरंत ही करने लग जाना चाहिए। अगर आपका मन करता है कि दान करना है तो तुरंत ही दान करना चाहिए। इसलिए सत कर्म की राह पकड़ लो फिर वह आपको कभी नहीं छोड़ेगा। यह स्वाद कर्म में ही होता है। जो कर्मयोगी हैं उनके रास्ते में चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं उनको अपने कर्म के रास्ते से नहीं हटना चाहिए। निष्काम कर्म, जीवन यात्रा का एकमात्र सहचर होता है। लोगों की सेवा करनी चाहिए लेकिन इस सोच से नहीं कि कि आप लोगों पर कोई उपकार कर रहे हैं बल्कि यह समझकर कि यह आपका कर्तव्य है। कर्म का संयम निष्काम सतकर्म करने में है। मुश्किले तो हर काम में आती हैं लेकिन मुश्किलों का सामना करने से ही वे हल होती हैं। कर्म में आसक्त न होना, कर्म के संयम का दूसरा साधन है। शरीर अपना कर्म करता रहे किन्तु मन को उनसे तटस्थ रखना चाहिए। कर्म में ही लगे रहने का नाम ही तो बंधन है। कर्म का संधम और कर्म बंधन दोनों अलग-अलग बातें हैं।

सदाचार-

           श्रीमदभागवत गीता में सारे मनुष्यों के लिए धर्म के 30 लक्षण दिए गए हैं। उन 30 लक्षण वाले धर्म का पालने करने का नाम ही `सदाचार´ है अथवा तन और मन दोनों की पवित्रता को ही सदाचार कहते हैं। सदाचार से ही आत्मा का सुधार संभव है। सदाचार, आत्मा की शाश्वत शांति का सच्चा रास्ता है। यह संसार में मानव समाज में प्रतिष्ठा पाने का एक बहुत ही आसान उपाय है तथा एक शब्द से ही पूरी दुनिया को हिला देने वाली ताकत है। अगर एक ही वाक्य में सदाचार की परिभाषा दी जाए तो सदाचार में हर जाति,हर समाज, हर देश तथा हर व्यक्ति के शाश्वत सुख और शांति मौजूद है।

मानसिक अनुशासन और संतुलन-

        मन की शक्ति अपार होती है, वहीं मन की प्रबल शक्ति से ही व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा होता है, इसलिए रोग की हालत में व्यक्ति की जैसी मनोभावना होती है उसी के मुताबिक उसका रोग बढ़ जाता है या समाप्त हो जाता है। रोगी ही क्यों? बल्कि मौत भी तभी किसी व्यक्ति के पास आ सकती है जब उस व्यक्ति ने मन से उसे स्वीकार कर लिया हो। मृत्यु हो या कोई रोग हो या अच्छा स्वास्थ्य हो उसे पाने के लिए अगर मन की इच्छा होगी तब उसको पाने का माहौल अपने आप ही पैदा हो जाता है। यह एक प्राकृतिक नियम है। मन एक गुप्त शक्ति केन्द्र है, जिसका अधिष्ठान मस्तिष्क है। मनुष्य की प्रगति, अवनति, दुख-सुख सभी मन पर निर्भर हैं। मन की बुरी इच्छाओं का असर आज नहीं तो कल मनुष्य के शरीर पर जरूर पड़ता है तथा शारीरिक या मानसिक रोगों को पैदा करता है। इसी प्रकार भूत-प्रेत, जिन्न आदि से डरकर कितने ही व्यक्तियों ने अपनी जान दे दी है। यह सब डर मन का ही होता है। इससे पता चलता है कि हमारे शरीर में पैदा होने वाले रोगों का कारण हमारे मन की बुरी इच्छाएं ही होती हैं और अगर मन के विचार अच्छे हों तो यह किसी रोगी के लिए औषधि का काम भी कर देते हैं।

            व्यक्ति के मन के 2 भाग होते हैं- प्रत्यक्ष भाग और अप्रत्यक्ष भाग। अगर किसी व्यक्ति के मन की इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती तो वे उसके अप्रत्यक्ष मन में जमा होकर उसको चिंतित रखती हैं। इसी कारण से चिंतित लोग अक्सर अजीब-अजीब से सपने देखा करते हैं। ज्यादा समय तक चिंता से घिरे रहने से या चिड़चिड़ा बने रहने से खून में कई प्रकार की खराबियां पैदा हो जाती हैं। खून में खराबी पैदा होने पर खून का प्रवाह नाड़ियों में रुक जाता है जिसके कारण किसी भी व्यक्ति के शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने शोध द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि किसी भी व्यक्ति को यदि एक बार गुस्सा आता है तो उसके दिमाग के करीब डेढ़ लाख कोषाणु समाप्त हो जाते हैं, जो कभी भी पूरे नहीं हो सकते। यह इस कारण से होता है कि शरीर के समाप्त हुए कोषाणुओं की पूर्ति तो फिर भी किसी तरह होना सम्भव है लेकिन दिमाग के कोषाणु एक बार समाप्त हो जाने के बाद दुबारा कभी पैदा नहीं होते। एक चिकित्सक के मुताबिक घर की चिंताओं से घिरे हुए मनुष्यों में ज्यादातर लोगों को पेट की खराबी का रोग होता है, जो कुछ समय के बाद पेट के दूसरे रोगों में बदल जाता है। इसी तरह अगर किसी व्यक्ति को कोई बुरी खबर सुना दी जाए तो उससे पहले चाहे उसे कितनी भी तेज भूख क्यों न लगी हो वह तुरंत ही गायब हो जाती है क्योंकि उस खबर का असर सबसे पहले दिमाग पर पड़ता है। किसी-किसी मामले में तो ऐसी खबर सुनकर कमजोर दिल वालों की धड़कन ही रुक जाती है।

मानसिक अनुशासन रोगों को दूर करने की सबसे असरकारक औषधि है-

            जिस तरह से मन में किसी चिंता के होने से शरीर धीरे-धीरे रोगी बन जाता है, उसी तरह से मन में अच्छी बाते सोचने से रोग को पूरी तरह से दूर भी किया जा सकता है। मन के विचारों में बदलाव लाते ही शारीरिक बदलाव भी शुरू हो जाते हैं। मनुष्य का स्वास्थ्य उसके मन की इच्छाओं पर निर्भर करता है। आज के समय में सिर्फ `आत्म निर्देश´ के द्वारा ही बहुत से रोगों को दूर किया जा सकता है। चिकित्सा की इस पद्धति को `मानसिक चिकित्सा´ कहा जाता है। मनोविज्ञान का एक सिद्धांत है- जो व्यक्ति अपने विचार जिस तरह के रखता है वह वैसा ही हो जाता है।` यह सिद्धांत रोग को दूर करने के सम्बंध में निश्चय ही लागू होता है। जब तक मनुष्य के विचार निराशावादी होते हैं, उस समय तक रोग ही क्यों? बल्कि जीवन की सारी बुरी घटनाएं उसके दुख को और बढ़ा देती हैं लेकिन जब विचार आशावादी हो जाते हैं तो सारी दुख की घटनाएं उसके स्वास्थ्य को अच्छा रखने वाली होती हैं। इसलिए रोजाना सुबह और शाम को सोने से पहले अगर रोगी विश्वास के साथ और सच्चे मन से यह संकल्प कर ले कि उसको जो रोग है वह दूर हो जाए और अपने पूरे शरीर पर हाथ फेरता जाए तो वह देखेगा कि उसके पूरे शरीर पर एक अलग ही तरह की चमक नज़र आ रही है और वह निरोगी और सुन्दर बन गया है। इस काम में विश्वास पक्का होने में थोड़ी देर लगती है लेकिन भावना का असर शरीर के अणुओं पर तुरंत ही पड़ता है। जैसे ही रोगी मन में यह ठान लेता है कि उसको अपना रोग दूर ही करना है तभी उस रोग के अणु बदलने लगते हैं और मन की जादुई ताकत शरीर के हर अणु की गति को रोगी से दूर कर देगी और रोगी ठीक हो जाएगा।


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