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प्रथम अध्याय (रताववंस्थापन प्रकरण)

श्लोक-1. शशो वृषोऽश्वइति लिंगतो नायकविशेषः। नायिका पुनमृगी वडवा हस्तिनी चेति।

अर्थ- छोटे, बड़े या मध्यम आकार के लिंग के आधार पर पुरुष को शश (खरगोश), बैल और घोड़े की संज्ञा दी गई है। स्त्री की योनि कम गहरी, ज्यादा गहरी या साधारण गहरी होने के आधार पर उसे मृगी (हिरनी), घोड़ी तथा हथिनी की संज्ञा दी जाती है।

श्लोक-2. तत्र सद्दशसंप्रयोगे समपतानि त्रीणि।।

अर्थ- अपने जोड़े के स्त्री और पुरुष के संभोग करने को समरत कहते हैं। यह 3 प्रकार का होता है-

  1. शश (खरगोश) पुरुष का मृगी (हिरनी) स्त्री के साथ।
  2. वृष (बैल) पुरुष का बड़वा (घोड़ी) स्त्री के साथ।
  3. अश्व (घोड़ा) पुरुष का हस्तिनी (हथिनी) स्त्री के साथ।

श्लोक-3. विपर्ययेण विषमाणि षट्। विषमेष्वपि पुरुषाधिक्यं चेदनन्तरसंप्रयोगे द्वे उच्चरते। व्यवहितमेकमुच्चरतम्। विपर्यये पुनर्द्वे नीचरते। व्यवहितमेकं नीचकतररतं च। तेषु समानि श्रेष्ठानि। तरशब्दागिंते द्वे कनिष्ठे। शेषाणि मध्यमानि।।

अर्थ- संभोग क्रिया करने के लिए एक जोड़े के सदस्य का दूसरे जोड़े के सदस्य के साथ बदलकर संभोग करना जैसे शश (खरगोश) पुरुष का बड़वा (घोड़ी) स्त्री या हस्तिनी स्त्री के साथ संभोग करना, वृष (बैल) पुरुष का मृगी (हिरनी) स्त्री के साथ संभोग करना और अश्व (घोड़ा) पुरुष का मृगी (हिरनी) स्त्री या बड़वा (घोड़ी) स्त्री के साथ संभोग करना। यह 6 तरह के होते हैं। इस तरह की संभोग क्रियाओं में भी ज्यादा बड़े लिंग वाले पुरुष का छोटी योनि वाली स्त्री के साथ तथा मध्यम आकार के लिंग वाले पुरुष का साधारण योनि वाली स्त्री के साथ संभोग करना उच्चरत कहलाता है। बड़े लिंग वाले पुरुष का छोटी योनि वाली स्त्री के साथ संभोग करना उच्चरत होता है। इसके विपरीत ज्यादा गहरी योनि वाली हस्तिनी स्त्री के साथ मध्यम आकार के लिंग वाले वृष पुरुष के साथ, छोटे लिंग वाले शश पुरुष का ज्यादा साधारण योनि वाली स्त्री के साथ नीचरत तथा ज्यादा गहरी योनि वाली हस्तिनी स्त्री से छोटे लिंग वाले शश पुरुष का संभोग करना नीचरत माना जाता है। इन सब तरह की संभोग क्रियाओं में अपने बराबर के जोड़े के पुरुष के साथ संभोग करना चाहिए। उच्चतर और नीचतररत को सबसे नीची संभोग क्रिया माना जाता है।

श्लोक-4. साम्येऽष्युच्चाङ नीचाङाञ्ञयायः। इति प्रमाणतो नवरतानि।।

अर्थ- मध्यम संभोग में भी अश्व पुरुष का बड़वा स्त्री के साथ, वृष पुरुष का मृगी स्त्री के साथ संभोग करना कुछ हद तक ठीक है। लेकिन हस्तिनी स्त्री से वृष पुरुष का या बड़वा स्त्री का शश पुरुष से संभोग करना किसी भी मायने में सही नहीं कहा जा सकता।

           अगर सिर्फ संभोग करने में मिलने वाले सुख को ही सामने रखकर विचार करते हैं तो सीत्कार, विलास और उपसर्ग यह तीन क्रियाएं संभोग में प्रमुख मानी जाती हैं। लेकिन संभोग क्रिया का असली आनंद स्त्री और पुरुष के स्वभाव, शरीर की बनावट और जननेन्द्रियों की बनावट पर ज्यादा निर्भर करता है। आचार्य वात्स्यायन ने जननेन्द्रियों के नाप के अनुसार 3 तरह के पुरुष बताए हैं-

  1. शश (खरगोश)- ऐसे पुरुषों का लिंग लगभग 6 इंच का होता है।
  2. वृष (बैल)- इस तरह के पुरुषों का लिंग 8 इंच का होता है।
  3. अश्व (घोड़ा)- इनका लिंग लगभग 12 इंच का होता है।

ऐसी ही स्त्रियों में भी होता है-

  1. मृगी (हिरनी) स्त्री।
  2. बड़वा (घोड़ी) स्त्री।
  3. हस्तिनी (हथिनी) स्त्री।

           पुरुष के लिंग का मापन लंबाई तथा मोटाई के आधार पर किया जाता है और स्त्री की योनि का मापन उसकी गहराई तथा चौड़ाई से होता है। जिन स्त्री और पुरुषों के लिंग और योनि का माप एक ही आकार में होता है उनके आपस में संभोग करने की क्रिया को सम कहा जाता है। सम संभोग मुख्यताः 3 तरह का होता है और विषम संभोग अर्थात अदल-बदलकर संभोग करना मुख्यताः 6 तरह का होता है। सम अर्थात शश पुरुष का मृगी स्त्री के साथ, वृष पुरुष का बड़वा स्त्री के साथ और अश्व पुरुष का हस्तिनी स्त्री के साथ संभोग करना। इस तरह से यह 3 तरह की संभोग क्रिया होती है। शश पुरुष का बड़वा तथा हस्तिनी स्त्री के साथ, वृष पुरुष का मृगी या हस्तिनी स्त्री के साथ और अश्व पुरुष का बड़वा स्त्री के साथ संभोग करना। इस तरह से यह 6 तरह की संभोग क्रिया होती है।

श्लोक-5. यस्य संप्रयोगकाले प्रीतिरुदासीना वीर्यमल्पं क्षतानि च न सहते न मन्दवेगः।।

अर्थ- इसके अंतर्गत कामजन्य मानसिक आवेश के अनुसार पुरुष और स्त्री के संभोग करने के भेद बताए जा रहे हैं-

संभोग क्रिया के समय जिस व्यक्ति की काम-उत्तेजना बहुत कम होती है, वीर्य कम निकलता है और जो स्त्री के द्वारा अपने शरीर पर नखक्षत (नाखूनों को गढ़ाना) और दन्तक्षत (दांतों को गढ़ाना) आदि प्रहारों को सहने में असमर्थ हो तो वह मन्दवेग कहलाता है।

श्लोक-6. तद्विपर्ययौ मध्यमचण्डवेगौ भवतः। तथा नायिकापि।।

अर्थ- इसके विपरीत मध्यम और तेज संभोग करने की इच्छा रखने वाले पुरूषों को चण्डवेग कहा जाता है। इसी तरह संभोग की इच्छा के मुताबिक स्त्रियां भी 3 प्रकार की होती हैं- मंदवेग, मध्यम वेग और चंडवेग।

श्लोक-7. तत्रापि प्रमाणवदेव नवरातानि।।

अर्थ- लिंग प्रमाण के प्रकार के अनुरूप बताए जा रहे 9 प्रकार के रतों की तरह यहां भी 9 प्रकार के स्त्री और पुरुष की संभोग क्रिया होती है।

श्लोक-8. तद्वत्कालतोऽपि शीघ्रमध्यचिरकाला नायकाः।।

अर्थ- लिंग की लंबाई, मो़टाई और संभोग करने की इच्छा की तरह समय से भी स्त्री और पुरुष के शीघ्र, मध्य और चिरकाल 3 भेद होते हैं।

श्लोक-9. तत्र स्त्रियां विवादः।।

अर्थ- स्त्री के बारे में यहां पर आचार्यों में मतभेद हैं।

श्लोक-10. न स्त्री-पुरुषवदेव भावमधिगच्छति।।

अर्थ- पुरुष की तरह ही स्त्री को संभोग क्रिया में सुख नहीं मिलता है।

श्लोक-11. सातत्यात्त्वस्याः पुरुषेणा कण्डूतिरपनवद्यते।।

अर्थ- फिर स्त्री किस कारण से संभोग क्रिया में लीन होती है।

पुरुष के साथ संघर्षण (संभोग करने से) होने से स्त्री की खुजली दूर हो जाती है।

श्लोक-12. सा पुनराभिमानिकेन सुखेन संसृष्टा रसान्तरं जनयति तस्मिन् सुखबुद्धिरस्याः।।

अर्थ- यदि स्त्री को केवल अपनी खुजली ही दूर करनी है तो उसके लिए उसके पास दूसरे उपाय भी हैं। स्त्री को तो चुम्बन, आलिंगन और प्रहार आदि उत्तेजना पैदा करने वाली क्रियाओं की वजह से पुरुष के साथ संभोग क्रिया करने में चरम सुख की प्राप्ति होती है।

श्लोक-13. पुरुषप्रीतेश्चानभिज्ञत्वात्कथं ते सुखमिति प्रष्टमशक्यत्वात।।

अर्थ- स्त्री और पुरुष को संभोग क्रिया में जो आनंद प्राप्त होता है उसका लाभ उनके अपने सिवा आपस में दोनों में से किसी को नहीं हो सकता और न ही इस बारे में उनसे पूछकर ही पता लगाया जा सकता है क्योंकि मानसिक आनंद को शब्दों के द्वारा नहीं बताया जा सकता।

श्लोक-14. कथमेतदुपलम्यत इति चेत्पुरुषो हि रतिमधिगम्या स्वेच्छया विरमति न स्त्रियमपेक्षते, न त्वेवं स्त्रीत्यौद्दालकिः।।

अर्थ- इस वजह से इस बात को कैसे मान लिया जाए कि स्त्री को पुरुष की तरह संभोग का चरम सुख प्राप्त नहीं होता।

इस बारे में आचार्य औद्दालिक अपना मत देते हुए कहते हैं कि एक बार संभोग क्रिया में स्खलित होने के बाद पुरुष की उत्तेजना समाप्त हो जाती है और उसे स्त्री की जरूरत नहीं रहती लेकिन स्त्री की प्रवृत्ति ऐसी नहीं है।

श्लोक-15. तत्रैतस्यात्। चिरवेगे, नायके स्त्रियोऽनुरज्यन्ते, शीघ्रवेगस्य भावमनासाद्यावसानेऽभ्यसूयिन्यो भवन्ति। तत्सर्व भावप्राप्तेरप्राप्तेश्च लक्षणम्।।

अर्थ- यहां एक बात और भी जानने वाली यह है कि जो पुरुष संभोग क्रिया को बहुत तेजी और देर तक करता है स्त्रियां उससे बहुत लगाव रखती है। लेकिन जो पुरुष संभोग क्रिया के समय कुछ ही देर में स्खलित हो जाता है स्त्रियां उनकी निन्दा करती है। इसलिए स्त्री अगर पुरुष को कुछ ज्यादा ही प्यार कर रही है तो उसे समझ जाना चाहिए कि स्त्री को संभोग क्रिया का पूरा सुख मिल रहा है।

श्लोक-16. तञ्ञ न। कण्डूतिप्रतीकारोऽपि हि दीर्घकालं प्रिय इति। एतदुपपद्यत एव। तस्मात्संदिग्धत्वादलक्षर्णामति।।

अर्थ- लेकिन यह सही नहीं माना जा सकता क्योंकि स्त्री के द्वारा पुरुष को ज्यादा प्यार आदि करने से यह साबित नहीं हो सकता कि उसकी काम-उत्तेजना शांत हो गई है। वैसे भी अगर पुरुष स्त्री के साथ बहुत देर तक संभोग करता है तो इससे काफी देर तक स्त्री की संभोग की खुजली तो शांत रहेगी तो वह पुरुष से प्यार आदि करने में मशरूफ रहेगी ही।

श्लोक-17. संयोगे योषितः पुसां कण्डूतिरपनुद्यते। तञ्ञाभिमानसंसृष्ट सुखमित्यभिधीयते।।

अर्थ- इसलिए इस बात को सिद्ध करने के लिए आचार्य ने एक श्लोक का उदाहरण दिया है। पुरुषों के साथ संभोग करने से स्त्रियों की खुजली दूर हो जाती है और आलिंगन, चुम्बन आदि संभोग की सहायक क्रियाएं मिलकर संभोग सुख कहलाती हैं।

श्लोक-18. सातत्याद्युवतिराम्भात्प्रभृति भावमधिगच्छति। पुरुषः पुनरन्त एव। एतुदुपपन्नतरम्। नह्यसत्यां भावप्राप्तौ गर्भसम्भव इति वाभ्रवीयाः।।

अर्थ- बभ्रु आचार्य के शिष्यों के अनुसार पुरुष जिस समय स्खलित लगता है उसे उसी समय आनंद आता है और स्खलित होने पर समाप्त हो जाता है। लेकिन स्त्री को संभोग की शुरूआत से ही बराबर आनंद की अनुभुति होती रहती है। यह बात बहुत अच्छी तरह से साबित हो चुकी है कि संभोग करने की इच्छा न हो तो कभी भी स्त्री को गर्भ स्थिर नहीं हो सकता है।

श्लोक-19. अत्रापि तावेवाशङापरिहारौ भूयः।।

अर्थ- बाभ्रव्य आचार्यों के दिए गए मत में भी उसी तरह की शंकाएं पैदा होती है जो आचार्य औद्दालिक के मत में कही जा चुकी है। उन समस्याओं का हल भी पहले की ही तरह करना चाहिए।

श्लोक-20. तत्रैतत्स्यात् सातत्येन रसप्राप्तावारम्भकाले मध्यरथचित्तता नातिसहिष्णुता च। ततः क्रमेणाधिको रागयोगः शरीरे निरपक्षेत्वम् अन्ते च विरामाभीप्सेत्येतदुपपन्नमिति।।

अर्थ- यहां पर इस बात पर सवाल उठ सकता है कि अगर स्त्री को लगातार आनंद की अनुभूति हुआ करती है तो किस वजह से संभोग की शुरुआत में पुरुष बहुत ज्यादा उत्तेजित होकर बेचैन हो जाता है और स्त्री शांत सी लेटी रहती है। वह पुरुष के द्वारा अपने शरीर पर नाखूनों को गढ़ाना, दांतों से काटना और स्तनों को दबाना आदि के लिए मना करती है और सिर्फ यही चाहती है कि पुरुष उसके साथ संभोग करता रहे। इस बात से एक चीज पता चलती है कि यह कहना गलत है कि स्त्री को आदि से अन्त तक आनंद की अनुभूति होती है।

श्लोक-21. कस्या वा भ्रान्तावेव वर्तमानस्य प्रारम्भे मन्दवेगता तत्पश्च क्रमेण पूरणं वेगस्येत्युपपद्यते। धातुक्षयाच्च विरामाभीप्सेति। तस्मादनाक्षेपः।।

अर्थ- स्त्री की संभोग करने की इच्छा शुरू में कम और फिर धीरे-धीरे तेज होती जाती है और पुरुष के स्खलित होने के बाद शांत हो जाती है। इस प्रकार कहा जाता है कि संभोग क्रिया के शुरू से लेकर वीर्य-स्खलन तक स्त्री की संभोग करने की इच्छा लगातार बनी रहती है।

श्लोक-22. सुरतान्ते सुखं पुंसां स्त्रीणां तु सततं सुखम्। धातुक्षयनिमित्ता च विरामेच्छोपजायते।।

अर्थ- संभोग क्रिया के अंत में पुरुष के स्खलित होने पर ही पुरुष को चरम सुख मिलता है लेकिन स्त्रियों को इस क्रिया की शुरूआत से ही सुख महसूस होने लगता है और स्खलन होने के बाद रुक जाने की इच्छा होती है।

श्लोक-23. तस्मात्पुरुषवदेव योषितोऽपि रसव्यक्तिद्रष्टव्या।।

अर्थ- आखिर में वात्स्यायन जी का कहना है कि-

इससे यही बात पता चलता है कि पुरुषों की ही तरह स्त्रियों को भी संभोग क्रिया के अंत में चरम सुख की प्राप्ति होती है।

श्लोक-24. कथ हि समानायामेवाकृतावेकार्थमभिप्रपन्नयोः कार्यवैलक्षण्यं स्यात्।।

अर्थ- एक ही जाति और एक ही मकसद में लगे हुए स्त्री और पुरुष का सुख एक-दूसरे से अलग कैसे हो सकता है।

श्लोक-25. उपायवैलक्षण्यादभिमानवैलक्षण्याच्च।।

अर्थ- या स्थिति तथा अनुभूति में अंतर पड़ने पर आनंद में अंतर आ सकता है।

श्लोक-26.. कथमुपायवैलक्षण्यं तु सर्गात्। कर्ता हि पुरुषोऽधिकरणं युवतिः। अन्यथा हि कर्ता क्रियां प्रतिपद्यतेऽन्यथा चाधारः। तस्माच्चोपायवैलक्षण्यात्सर्गादभिमानवैलक्षण्यमपि भवित। अभियोक्ताहमिति पुरुषोऽनुरज्यते। अभियुक्ताहमनेनेति युवातिरिति वात्स्यायनः।।

अर्थ- आचार्य वात्स्यायन के मुताबिक संभोग क्रिया के दौरान मिलने वाला भेद किस प्रकार हो सकता है। अवस्था भेद तो जन्म से ही होता है। यह बात तो सभी जानते है कि पुरुष करने वाला होता है और स्त्री कराने वाली होती है। पुरुष की क्रिया और स्त्री की क्रिया अलग-अलग होती है जैसे- संभोग क्रिया के समय पुरुष चरम सुख के दौरान यह सोचता है कि मैं संभोग कर रहा हूं और स्त्री यह सोचती है कि मैं पुरुष से संभोग करा रही हूं। इस प्रकार अवस्था तथा अनुभूति के अलग होने से सिर्फ इतना अंतर होता है लेकिन संभोग में कोई अंतर नहीं होता है।

श्लोक-27. तत्रैतस्यादुपायवैलक्षण्यवदेव हि कार्यवैलक्षण्यमपि कस्मान्न स्यादिति। तच्च न। हेतुमदुपायवैलक्षण्यम्। तत्र कर्त्राधारयोर्भिन्नलक्षणत्वादहेतुमत्कार्यवैलक्षण्यमन्याय्यं स्यात्। आकृतेरभेदादिति।।

अर्थ- अब दुबारा यह आक्षेप पेश किया जा रहा है कि जब स्त्री और पुरुष की स्थितियों में भेद है तो फिर उनको मिलने वाले संभोग के समय में अंतर क्यों नहीं होगा। आक्षेप का जवाब यह है कि ऐसा नहीं हो सकता। अगर स्त्री और पुरुष के अंगों में भेद होगा तो उनकी स्थिति में तो भेद होगा ही। लेकिन बिना कारण ही स्त्री और पुरुष के संभोग क्रिया के फल और चरमसुख में अंतर संभव नहीं हो सकता है क्योंकि स्त्री और पुरुष एक ही जाति के नहीं हैं।

श्लोक-28. तत्रैतस्यात्। संहत्य कारकैरेकोऽर्थोऽभिनिर्वर्त्यते। पृथक्पृथक्स्वार्थसाधकौ पुनरिमौ तदयुक्तमिति।

अर्थ- अब सवाल यह पैदा होता है कि जब अलग-अलग यानी कि करने वाला और कराने वाला मिलकर कोई काम करते हैं तो एक ही काम पूरा होता है और जब स्त्री और पुरुष मिलकर एक ही क्रिया अर्थात संभोग क्रिया करते हैं तब यह कहना कि उन्हें इसमें अलग-अलग प्रकार का चरम सुख प्राप्त होता है, सही नहीं है।

श्लोक-29. तच्च न। युगपदनेकार्थसिद्धिरपि द्दश्यते। यथा मेषयोरभिघाते कपित्थयोर्भेदे मल्लयोर्युद्ध इति। न तत्र कारकभेद इति चेदिहापि न वस्तुभेद इति। उपायवैलक्षण्यं तु सर्गादिति तदभिहितं पुरस्यात्। तेनोभयोरपि सदृशी सुखप्रतिपत्तिरिति।।

अर्थ- ऐसा बिल्कुल सही नहीं है क्योंकि वैसे तो एक साथ कई सारे कामों को सिद्ध होते देखा गया है जैसे 2 मेढ़ों की लड़ाई में, 2 पके हुए फलों को एकसाथ तोड़ने में और पहलवानों की कुश्ती में एक ही फल मिलता है। यदि कहा जाए कि मेढ़ों, फलों और पहलवानों में स्त्री और पुरुषों की तरह लिंग का अंतर नहीं है तो स्त्री और पुरुष में भी वस्तु अंतर नहीं है क्योंकि दोनों ही मनुष्य है और यह पहले ही बताया जा चुका है कि लिंग में अंतर तो स्वाभाविक ही होता है। इसलिए यह बात साबित होती है कि संभोग क्रिया के समय स्त्री और पुरुष दोनों को ही एक ही प्रकार का चरम सुख मिलता है।

श्लोक-30. जातेरभेदाद्देम्पत्योः सदृशं सुखमिष्यते। तस्मात्तथोपचर्या स्त्री यथाग्रे प्राप्नुयाद्रतिम्।।

अर्थ- इसके अंतर्गत महर्षि वात्स्यायन मुनि ने संभोग में मिलने वाले चरम सुख को प्राप्त करने की पद्धति बताई गई है।

एक ही जाति के होने के कारण स्त्री और पुरुष को संभोग में बराबर सुख मिलता है इसलिए संभोग के समय में चुंबन, आलिंगन और स्तनों को दबाना आदि बाहरीय संभोग द्वारा स्त्री को इस तरह से द्रवित करना चाहिए कि पुरुष से पहले स्त्री को चरम सुख प्राप्त हो जाए। फिर अपनी संभोग करने की इच्छा को पूरी करने के लिए तेज गति से संभोग करना चाहिए।

श्लोक-31. सद्दशत्वस्य सिद्धत्वात्, कालयोगीन्यापि भावतोऽपि कालतः प्रमाणवदेव नव रतानि।।

अर्थ- निष्कर्ष में संभोग के 9 प्रकार बताए गए हैं-

पुरुष और स्त्री में बराबरी साबित होने पर समय, भाव तथा प्रमाण के अनुसार स्त्री और पुरुषों के 9 तरह के संभोग होते हैं।

श्लोक-32. रसो रतिः प्रीतिर्भावो रागो वेगः समाप्तिरिति रतिपर्यायः। संप्रयोगो रतं रहः शयनं मोहनं सुरतपर्याया।।

अर्थ- इसके अंतर्गत संभोग शब्दों के पर्यायवाची शब्दों की परिगणना करते हैं- रस-रति, प्रीति, भाव, राग, वेग और समाप्ति। यह शब्द संभोग में प्रयुक्त होते हैं और सम्प्रयोग, रत, रहः (अकेले में सोना), शयन मोहन यह शब्द सुरत संभोग में इस्तेमाल होते हैं।

श्लोक-33. प्रमाणकालभावजानां संप्रयोगाणामेकैकस्य नवविद्यत्वात्तेषां यतिकरे सुरतसंख्या न शक्यते कर्तुम्। अतिबहुत्वात्।।

अर्थ- रत (संभोग) के मुख्य प्रकार-

लिंग और योनि के प्रमाण, संभोग के समय तथा मानसिक भाव इनसे पैदा होने वाले हर प्रकार के रत है और यही मिलकर कई प्रकार के बनते हैं। ये बहुत ज्यादा की संख्यां में होते हैं इसलिए इनकी गिनती नहीं की जा सकती है।

श्लोक-34. तेषु तर्कादुपयारान्प्रयोजयेदिति वात्स्यायनः।।

अर्थ- वात्स्यायन के मुताबिक इन कई प्रकारों के रतों में पूरी तरह से दिमाग का प्रयोग करके संभोग क्रिया में लगना चाहिए।

श्लोक-35. प्रथमरते चण्डवेगता शीघ्रकालता च पुरुषयत, तद्विपरीतमुत्तरेषु। योषितः पुनरेतदेव विपरीतम्। आ धातुक्षयात्।।

अर्थ- प्रथम रत (पहली बार संभोग करना) के समय जब तक वीर्य स्खलित नहीं होता तब तक पुरुष की गति बहुत ज्यादा होती है जिसके कारण उसकी संभोग करने की इच्छा जल्दी ही समाप्त हो जाती है लेकिन उसी रात में जब पुरुष दुबारा संभोग करता है तो वह इस क्रिया को काफी देर तक कर लेता है। स्त्रियों की प्रवृति इसके विपरीत होती है। उनकी काम-उत्तेजना पहले कम होती है और फिर धीरे-धीरे तेज होकर ठहरती है लेकिन दूसरी बार में वह ज्यादा देर तक नहीं ठहर पाती है। स्त्री और पुरुष की काम-उत्तेजना में यही स्वाभाविक अंतर होता है।

श्लोक-36. प्राक् च स्त्रीधातुक्षयात्पुरुषाधातुक्षय इति प्रायोवादः।।

अर्थ- इसलिए महर्षि वात्स्यायन कहते हैं-

ऐसा पाया गया है कि संभोग क्रिया के समय में स्त्री से पहले पुरुष स्खलित हो जाता है।

श्लोक-37. मृदुत्वादुपमृद्यत्वान्निसर्गाच्चैव योषितः। प्राप्तुवन्त्याशु ताः प्रीतिमित्याचार्या व्यवस्थिताः।।

अर्थ- कामशास्त्र में सभी आचार्यों का मानना है कि संभोग क्रिया के दौरान स्त्रियां पुरुषों से पहले चरम सुख को प्राप्त करती हैं क्योंकि वह स्वभाव से ही नाजुक होती हैं। चुंबन और आलिंगन करने से उनकी कामो-उत्तेजना जल्दी तेज हो जाती है।

श्लोक-38. एतावदेव युक्तानां व्याख्यातं सांप्रयोगिकम्। मन्दानामवबोधार्थ विस्तरोऽतः प्रवक्ष्यते।।

अर्थ- यहां पर स्त्री और पुरुष के बारे में जो बताया जा रहा है सिर्फ बुद्धिमान लोगों के लिए है। साधारण मनुष्यों के लिए इसका वर्णन विस्तार से किया गया है।

श्लोक-39. अभ्यासाभिमानाच्च तथा संप्रत्ययादपि। विषयेभ्यश्च तन्त्रज्ञाः प्रीतिमाहुश्चुतर्विधाम्।।

अर्थ- कामसूत्र के आचार्यों के अनुसार प्रेम 4 प्रकार से उत्पन्न होता है-

  1. अभ्यास से।
  2. विचारों से।
  3. याद रखने से।
  4. विषयों से।

श्लोक-40. शब्दादिभ्यो बहिर्भूता या कर्माभ्यासलक्षणा। प्रीतिः साभ्यासिकी ज्ञेया मृगयादिषु कर्मसु।।

अर्थ- जो प्रेम अभ्यास करने से बढ़ता है उसे अभ्यासिकी कहते हैं जैसे शिकार, संगीत, नृत्य, नाटक आदि। यह प्रेम विषयों से होने वाले प्रेम से भिन्न होती है।

श्लोक-41. अनभ्यस्तेष्वपि पुरा कर्मस्वविषयात्मिका। संकलपाञ्ञायते प्रीतिर्या सा स्यादाभिमानिकी।।

अर्थ- किसी अभ्यास को करे बिना सिर्फ सोचने से ही जो प्रेम पैदा होता है उसे अभिमानी कहा जाता है। यह प्रेम भी विषयों से होने वाले प्रेम से भिन्न होता है।

श्लोक-42. प्रकृतेर्या तृतीयस्याः स्त्रियाश्चैवोपरिष्टके। तेषु तेषु च विज्ञेया चुम्बनादिषु कर्मसु।।

अर्थ- वेश्याओं तथा किन्नरों (हिजड़े) को मुखमैथुन करने में जिस तरह का सुख मिलता है वह मानसिक कहलाता है। इसी तरह चुंबन-आलिंगन आदि से होने वाली प्रीति भी होती है।

श्लोक-43. नान्योऽमिति यत्र स्यादन्यस्मिन्प्रीतिकारणे। तन्त्रज्ञैः कथ्यते सापि प्रीतिः संवत्धयात्मिका।।

अर्थ- अचानक ऐसे इंसान को देखकर जिसकी सूरत उस इंसान से मिलती हो जिसको आप बहुत पसंद करते थे तो आपको उसी की याद आ जाती है। इसको सम्प्रययात्मक प्रीति कहा जाता है।

श्लोक-44. प्रत्यक्षा लोकतः सिद्धा या प्रीतिर्विषयात्मिका। प्रधानफलवत्त्वात्सा तदर्भाश्चेतरा अपि।।

अर्थ- इन्द्रियों के विषयों से होने वाली प्रीति के बारे में उन सभी लोगों को मालूम होता है लेकिन इन्द्रिय विषयजन्य प्रीति प्रधान होने के कारण बाकी सारी प्रीतियां इसी के अंतर्गत आती हैं।

श्लोक-45. प्रीतीरेताः परामृश्य शास्त्रतः शास्त्रलक्षणाः। यो यथा वर्तते भावस्तं तथैव प्रयोजयेत्।।

अर्थ- जो स्त्री और पुरुष कामशास्त्र के बारे में जानकारी रखते हैं उनको चाहिए कि इन चारों तरह की प्रीतियों को शास्त्र में बताए गए तरीकों से समझकर स्त्री, पुरुष के और पुरुष, स्त्री के भावों के अनुसार इस तरह का बर्ताव करें कि उनमें आपस में प्रीति बढ़ती जाए।

वात्स्यायन ने यह सब उन लोगों के बारे में बताया है जिनकी सोच साधारण किस्म की होती है। उनके अनुसार अभ्यास के द्वारा, विचार करने से, याद रखने से तथा विषयों से स्त्री और पुरुष में आपसी प्रेम को बढ़ाया जा सकता है।

श्लोक-46. इति श्री वात्स्यायनीये कामसूत्रे सांप्रयोगिके द्वितीयेऽधिकरणे रतावस्थापन प्रीतिविशेष प्रथमोऽध्यायः।।


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