मैथुन उस क्रिया को कहते हैं जिसमें वंश वृद्धि की मूल प्रवृत्ति- काम-वासना के वशीभूत होकर दोनों भिन्न लिंगी प्राणी, स्त्री और पुरुष, एक-दूसरे के शारीरिक सम्पर्क में आ जाते हैं। पुरुष अपने शिश्न को योनि में प्रविष्ट करता है जिससे दोनों को ही बड़ा आनन्द मिलता है। इस आनन्द के कारण पुरुष बार-बार शिश्न का प्रहार योनि में करता है- और स्त्री चाहती भी है कि कुछ देर तक यह जनन अंगों की घर्षण क्रिया चलती रहे जिसके फलस्वरूप दोनों का आनन्द बढ़ता ही चला जाता है। जब यह आनन्द अपनी चरम-सीमा पर पहुंच जाता है जिसे चरमोत्कर्ष, चरम आवेग या पूर्ण उद्वेग (Orgasm) कहा जाता है तो पति और पत्नी दोनों ही स्खलित हो जाते हैं। पुरुष बीज या शुक्राणु वीर्य में मिलकर शिश्न के मार्ग से योनि में पहुंचे जाते हैं और इस प्रकार एक नये प्राणी को जन्म देने के लिए बीज बो दिया जाता है।
मैथुन क्रिया या सम्भोग को उसी समय सफल समझा जाता है जबकि दोनों के जनन अंगों में उचित समय तक और अच्छी तरह से घर्षण होता रहे। इसके लिए पुरुष के शिश्न में कड़ापन या उत्थान होना एक आवश्यक शर्त है। अतः हम अब मुख्य रूप से इस पर विचार करेंगे कि शरीर के कौन-कौन से अंग शिश्न में उत्थान लाने में सहायक होते हैं तथा किन उपायों से शिश्न को उत्थित और दृढ़ रखा जा सकता है। ताकि वह उस कार्य को पूरा कर सके जिसके लिए इसकी रचना की गई है। इस संबंध में हम सबसे पहले उस शारीरिक यन्त्र पर विचार करेंगे जो शिश्न पर नियन्त्रण रखता है, यह है मस्तिष्क।
मनुष्य के प्रमस्तिष्क के उच्च क्षेत्रों (कोर्टेक्स) में कुछ विशिष्ट क्षेत्र ऐसा है जिसे उद्दीपन मिलने से मनुष्य की यौन सक्रियता बढ़ जाती है। करोड़ों न्यूरोन कोशिकाएं जो मस्तिष्क का निर्माण करती हैं उनका विकास भी लाखों वर्षों में हुआ है। प्रत्येक न्यूरोन को प्रकृति ने दो गुण दिए हैं- एक से यह मनुष्य को ऐसे कार्य करने के निर्देश देता रहे जिससे जीवित रहने के लिए वह समुचित मात्रा में भोजन जुटाता रहे और दूसरे से सैक्स क्रिया के लिए प्रेरित करता रहे ताकि मानव की वंश वृद्धि होती रहे। आज से लाखों साल पहले जब मानव शरीर सरल एक कोशिकीय रूप में था। उस समय प्रत्येक कोशिका अपना अलग भोजन ढूंढती थी और अपनी निजी सैक्स क्रिया करती थी। कुछ समय पश्चात इन प्राणियों ने अनुभव किया कि इन कार्यों को करने का उत्तर दायित्व एक केन्द्रीय संस्थान- स्नायु संस्थान या तान्त्रिक तन्त्र (Nervous system) को सौंप दिया जाए। अतः मस्तिष्क की तथा तन्त्रिका तन्त्र की प्रत्येक कोशिका का जब पहली-पहल विकास हुआ तो प्रकृति ने अपनी अमिट आज्ञा द्वारा इसको दो कार्य करने को दिये- भोजन प्राप्त करना और सेक्स क्रिया के लिए साथी को तलाश करना। चूंकि मनुष्य शरीर की प्रत्येक कोशिका में ये गुण हैं अतः हम सरलता से समझ सकते हैं कि जिस समय हम निश्चिन्त अवस्था में होते हैं उस समय स्त्री को देखने, उसकी बोली सुनने या शरीर की गन्ध मात्र से हमारे शरीर में कामवासना जाग्रत होने लगती है।
कामोत्तेजना के समय मस्तिष्क के अन्दर बड़े परिवर्तन होने लगते हैं। मस्तिष्क को जाने वाली रक्तवाहिनियों में रक्त का दबाव (प्रेशर) बढ़ जाता है और मस्तिष्क को अधिक मात्रा में रक्त मिलने लगता है।
यौन समागम या सम्भोग के समय दो अन्य केन्द्र भी निश्चित रूप से क्रियाशील हो उठते हैं ये हैं ताप नियन्त्रक केन्द्र और शर्करा का चयापचय करने वाला केन्द्र। सम्भोग के समय शरीर का ताप बढ़ जाता है ताकि प्रत्येक कोशिका के अन्दर तेजी के साथ होने वाले असाधारण रासायनिक परिवर्तन सुगमतापूर्वक होते रहें।
इस तनावपूर्ण भावनात्मक क्षणों में मस्तिष्क के साथ-साथ मेरुरज्जु (Spinal Chord) भी सक्रिय सहती है। मेरुरज्जु के नीचे के भाग में स्थित उत्थान केन्द्र (Erection Centre) लगातार उन तन्त्रिकाओं को उद्दीपन पहुंचाता रहता है जो शिश्न में जाने वाले रक्त पर नियन्त्रण रखती हैं। त्वचा के हर स्थान से मेरुरज्जु में होकर मस्तिष्क में उद्दीपन पहुंचते रहते हैं और मस्तिष्क से शरीर के प्रत्येक अंग और रक्तवाहिनियों में ये उद्दीपन पहुंचते रहते हैं।
इन तनावपूर्ण क्षणों में प्रोस्टेट ग्रन्थि और शुक्राशय भी महत्वपूर्ण कार्य कर रहे होते हैं। यौन समागन के प्रारम्भिक चरणों में प्रोस्टेट ग्रन्थि फूल जाती है। प्रोस्टेट ग्रन्थि में स्राव अधिक मात्रा में बनने लगता है और इसमें अधिक मात्रा में रक्त आने लगता है। पेशियों का हर तन्तु तनाव की अवस्था में आ जाता है। मूत्रमार्ग जहां पर मूत्राशय में से मूत्र निकलता है वहां इसके उदगम स्थल पर वृत्त के रूप में जो प्रोस्टेटिक पेशी होती है वह मजवूती से संकुचित हो जाती है ताकि स्खलित होने वाला वीर्य मूत्राशय में न पहुंच जाए। प्रोस्टेट के अन्दर श्लेष्म भर जाता है और वेरुमोन्टेनम रक्त से भरकर फूल जाता है और इस स्थान पर प्रोस्टेट से आने वाले मार्ग को पूर्णतः अवरुद्ध कर देता है। सम्पूर्ण प्रोस्टेट की पेशियों की ऐंठन के रूप में होने वाले संकुचनों के कारण वीर्य के स्खलन में सुविधा हो जाती है।
जैसे-जैसे सम्भोग होता है शुक्राशय भी फैलते जाते हैं। जिस समय स्खलन होने को होता है इन थैलियों की दीवारों में अत्यधिक तनाव आ जाता है। कामोत्तेजना के समय इन ग्रन्थियों में से एक पतला निरंग और अत्यन्त ही चिकना स्राव उत्पन्न होकर मूत्रमार्ग से निकलकर शिश्न मुण्ड को चिकना कर देता है ताकि शिश्न सुगमता से योनि में प्रविष्ट हो सके। इसके अतिरिक्त यह स्राव मूत्रमार्ग को भी चिकना कर देता है ताकि वीर्य सरलता से बाहर जा सके ऐसा समझा जाता है कि शिश्न मुण्ड इस स्राव से चिकना हो जाने पर इसके अन्दर की कोमल तन्त्रिकाएं अधिक संवेदनशील हो जाती है जिससे यौन समागम का आनन्द बढ़ जाता है। यह पारदर्शक स्राव समागम के समय ही निकलता हो ऐसी बात नहीं है। यह एक संबंधी विचार मन में उठने से भी यह स्राव निकलने लगता है। यह एक प्राकृतिक स्राव है और यह वीर्य नहीं है।
स्रावी या हार्मोन पैदा करने वाली ग्रंथियां यौन समागम के समय लगातार काम करती हैं। पीयूष ग्रन्थि के दोनों भाग अपने-अपने विशिष्ट हार्मोनों का उत्पादन करने लगते हैं जो मांस-पेशियों में ऐंठन जैसे संकुचन लाने के लिए आवश्यक हैं ताकि यौन अंग अपना काम सुचारू रूप से कर सकें। थायराइड ग्रन्थि से भी एक स्राव निकलता है ताकि यौन समागम के समय शरीर में जो तीव्र आँक्सीकरण क्रिया ऊतकों में होने वाले परिवर्तन को प्रेरित करने के लिए होती है, यह निर्बाध रूप में होती रहे। एड्रीनल ग्रन्थियों में भी अधिक सक्रियता की आवश्यकता इस समय होती है ताकि रक्तदाब को ऊंचा किया जा सके और सिम्पेथेटिक तन्त्रिका तन्त्र को सक्रिय बनाया जा सके। इस समय वृषणों के अन्तःस्राव का शरीर अवशोषण करने लगता है और शरीर के पर भाग में इन्हें पहुंचाता रहता है।
इस समय शरीर का हर हिस्सा अधिक सक्रिय हो उठता है। थूक उत्पादन करने वाली ग्रन्थियां अधिक मात्रा में थूक का उत्पादन करने लगती हैं। स्वेद ग्रन्थियां अधिक सक्रिय हो उठती हैं, हृदय का प्रकम्पन हल्का मगर परन्तु तेज गति से होने लगता है और फेफड़े अपनी साधारण गति की अपेक्षा तेजी से फैलने व सिकुड़ने लगते हैं। गले, आमाशय, छोटी व बड़ी आंतों तथा गुदा संकोचन पेशियों में संकुचन बढ़ जाता है। सम्भवतः सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन शिश्न में दिखाई पड़ता है जिसमें जाने वाली धमनियां रक्त से पूरी तरह भर जाती हैं और शिराओं के मार्ग से केवल इतना ही रक्त वापस जाता रहता है जिससे ऊतकों के अन्दर उचित आक्सीकरण होता है।
शिश्न में उत्थान-
संभोग या सैक्स क्रिया में शिश्न के उत्थान का महत्व बहुत अधिक है क्योंकि इसके बिना संभोग करना असम्भव है। शिश्न में उत्थान लाने में कई संरचनाएं सहायता करती हैं। शिश्न के मुख्य रूप से तीन भाग होते हैं-
सिर या मुण्ड अथवा सुपारी, डण्डी या मध्य भाग और जड़। शिश्न मूल पेट से शुरू होती है। शिश्न अन्दर से स्पन्ज जैसा खोखला होता है। कामोत्तेजना के समय जब इसमें आने वाली धमनियां इसकी खोखली कोठरियों में रक्त भर देती हैं तो यह फूलकर ऊपर की ओर उठ आती हैं।
मेरुरज्जु के उस भाग में जो हमारे कटि क्षेत्र (Lumbar Area) में लगभग नाभि के नीचे होता है इसमें एक केन्द्र होता है जो उत्थान पर नियन्त्रण रखता है। इसी के निकट एक और केन्द्र होता है जो स्खलन पर नियन्त्रण रखता है। ये दोनों केन्द्र एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करते हैं। स्त्री के मेरुरज्जु में भी इसी भाग में उत्थान तथा स्खलन पर नियन्त्रण रखने वाले केन्द्र होते हैं।
शिश्न में उत्थान क्रिया मुख्य रूप से मानसिक क्रिया का ही प्रतिबिम्ब है। जब मस्तिष्क में काम सम्बन्धी विचार आते हैं तो शिश्न में उत्थान आ जाता है। शिश्न में उत्थान एक प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action) हैं। हम अपनी इच्छा शक्ति द्वारा हाथ-पैर हिला सकते हैं परन्तु इच्छा से शिश्न में उत्थान नहीं ला सकते। जिस प्रकार गर्म-गर्म जलेबियां बनते देखकर अनजाने ही हमारे मुंह में पानी आ जाता है उसी प्रकार सुन्दर नारी को देखकर शिश्न में उत्थान आ जाता है। शिश्न में उत्थान दो तरह से आता है-
1- मानसिक अर्थात् मस्तिष्क में कामोत्तेजक विचार आने से,
2- शिश्न मुण्ड या शिश्न को हाथ से सहलाने या इसके घर्षण से।
इसे प्रतिवर्ती(Reflex) क्रिया कहते हैं।
संभोग क्रिया का शास्त्रीय विवरण इस प्रकार होता है- जब पुरुष के सामने स्त्री वास्तव में उपस्थित होती है अथवा उसकी आवाज, शरीर की गन्ध या उसके शरीर से स्पर्श होता है अथवा पुरुष अपनी कल्पना में स्त्री के साथ सेक्स करता है तो प्रमस्तिष्क में कामेच्छा उत्पन्न होती है। जब एक बार कामवासना (लिबिडो) जाग्रत हो जाती है तो उद्दीपन मस्तिष्क से चलते हुए मेरुरज्जु के उत्थान केन्द्र में पहुंचते हैं और यहां से तन्त्रिकाओं द्वारा शिश्न में पहुंचते हैं। इसके फलस्वरूप शिश्न में रक्त भर जाता है जिससे शिश्न में उत्थान आ जाता है। यहां तक कि इस क्रिया को मानसिक उत्थान कहा जा सकता है। शिश्न का, विशेषकर मुण्ड का, नारी के हाथों द्वारा अथवा योनि के साथ स्पर्श होने पर समाचार शिश्न से उत्थान केन्द्र में पहुंचता है और उत्थान केन्द्र तुरन्त ही उद्दीपन शिश्न को भेजता है जिससे शिश्न में उत्थान आ जाता है। इस दशा में मस्तिष्क से सम्पर्क रहने की जरूरत नहीं है। योनि क्षेत्र का स्पर्श करने पर इसी प्रकार नारी की योनि में भी उत्थान आता है।
जब शिश्न को योनि में प्रवेश कर प्रहार किए जाते हैं तो बड़ी संख्या में उद्दीपन शिश्न की संवेदनग्राही तन्त्रिकाओं के मार्ग से उत्थान केन्द्र में पहुंचने लगते हैं। इस समय फूले हुए प्रोस्टेट और शुक्राशयों से भी उद्दीपन इस केन्द्र में पहुंचते रहते हैं। ये उद्दीपन मिलकर उत्थान को शक्ति तथा दृढ़ता देते रहते हैं। इस चरण को हम तन्त्रिकाओं और रक्तवाहिनियों द्वारा लाया गया उत्थान कह सकते हैं।
जैसे-जैसे संभोग होता है मस्तिष्क और तन्त्रिकाओं से प्राप्त उद्दीपनों की मात्रा बढ़ती जाती है और तन्त्रिकाओं में तनाव बढते-बढ़ते आखिरी बिन्दु पर पहुंच जाता है।
आखिरी में स्खलन केन्द्र का फ्यूज उड़ जाता है। मूत्रमार्ग, प्रोस्टेट, शुक्राशयों और मूलाधार की पेशियों में शक्तिशाली आंकुचन होने लगते हैं और पुरुष का वीर्य स्खलित हो जाता है तथा शिश्न बैठ जाता है।
नारी में उत्थान तथा स्खलन-
पुरुष अथवा स्त्री दोनों में एक जैसे कारणों से ही कामवासना जाग्रत होती है और कामवासना जाग्रत होने का प्रभाव अर्थात उत्थान लगभग एक ही जैसा होता है। चूंकि शिश्न शरीर से बाहर होता है अतः इसमें उत्थान आने पर यह स्पष्ट दिखाई देने लगता है परन्तु योनि छुपी होने के कारण उत्थान इतना स्पष्ट दिखाई नहीं देता। जिस समय नारी कामोत्तेजित हो जाती है तो उसकी सम्पूर्ण योनि शिश्न की तरह रक्त से भर जाने के कारण फूल जाती है, योनि का आगे का भाग कुछ खुलकर फैल जाता है और गर्भाशय में भी तनाव आ जाता है। इस समय योनि की दीवार में से रिस-रिसकर एक स्राव योनि में आने लगता है जो योनि को गीला बना देता है ताकि शिश्न का इससे घर्षण होने पर शिश्न अथवा योनि को कोई क्षति पहुंचने न पावे।
यौन समागम अर्थात योनि में शिश्न के घर्षण से स्त्री और पुरुष दोनों को ही आनन्द मिलता है और जब यह आनन्द बढ़ते-बढ़ते अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है तो स्त्री और पुरुष दोनों ही स्खलित हो जाते हैं। स्खलन में पुरुष का तो वीर्य निकलता है परन्तु स्त्री में से कुछ नहीं निकलता। आम बोल-चाल में कहा जाता है कि स्त्री का रज छूटता है। यह एक गलत धारणा है। वास्तव में अत्यधिक कामोत्तेजित हो जाने पर किसी-किसी स्त्री की योनि में से उपरोक्त चिकना स्राव इतनी अधिक मात्रा में निकलने लगता है कि योनि के बाहर तक आ जाता है। सम्भव है प्राचीन काल में काम-शास्त्रियों ने इसे ही स्त्री का वीर्य या रज मान लिया हो।
कामवासना-
अलग-अलग व्यक्तियों में कामेच्छा की मात्रा भी अलग-अलग होती है। कुछ लोग सैक्स को कोई विशेष महत्व नहीं देते हैं जबकि कुछ लोगों का जीवन सैक्स रूपी धुरी के चारों ओर घूमता रहता है। इस अन्तर का कारण यह नहीं होता कि कोई व्यक्ति शारीरिक गठन और स्वास्थ्य में बहुत तगड़ा है। पुरुष की पुंसत्व शक्ति अर्थात् सैक्स क्षमता पर कई चीजें प्रभाव डालती हैं। उसकी हार्मोन उत्पादक ग्रन्थियों की क्रियाशीलता, उसकी मानसिक विचारधारा और पर्यावरण, ये सब पुंसत्व शक्ति में अपना-अपना हाथ रखती हैं। आनुवंशिकता (Heredity) और पालन-पोषण का भी प्रभाव पड़ता है। एक वैज्ञानिक का मत है कि जिन लोगों में पुंसत्व शक्ति कम है वे प्रायः उन पिताओं की सन्तान होते हैं जिनमें यह क्षमता कम थी। ऐसे व्यक्तियों की सैक्स पावर कृत्रिम साधनों द्वारा एक निश्चित सीमा से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती। यह भी याद रखना चाहिए कि कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो बाहरी तौर पर सैक्स में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाएं परन्तु उनमें सैक्स पावर अच्छी हो। या तो उसकी कामवासना किसी अन्य दिशा में मुड़ चुकी है अथवा कुछ प्रकार के भय, चिन्ताओं या मनोविकारों के कारण इसका दमन हो गया है।
कामइच्छा की तेजी ही नहीं बल्कि इसका समय भी अलग-अलग व्यक्तियों में कम व ज्यादा पाया गया है। मोटेतौर पर यह कहा जा सकता है कि सैक्स पावर उन लोगों में अधिक होता है जो भावुक प्रकृति के होते हैं और कामोत्तेजक वातावरण में रहते हैं जैसेकि संगीतज्ञ, कलाकार तथा कवि आदि।
कामेच्छा में उतार-चढ़ाव
यौन समागम होने के लिए यह जरूरी है कि तन्त्रिका-तन्त्र तथा हार्मोन उत्पादक ग्रन्थियां दोनों ही संतुलित रूप से सक्रिय हों। जैसाकि पहले बताया जा चुका है संभोग के तुरन्त पश्चात एक अवस्था क्लान्ति (थकान) की आती है जिसके दौरान कामोद्दीपन पंहुचने से भी कामेच्छा जाग्रत नहीं होती। स्वस्थ व्यक्ति में यह अवस्था बहुत थोड़ी देर की होती है तथा कुछ समय के विश्राम के बाद दोबारा कामोद्दीपन मिलने पर शिश्न में उत्थान आ सकता है। कामेच्छा में उतार-चढ़ाव अन्य कारणों से भी होता है। अधिकांश स्त्रियों में मासिक-धर्म से कुछ ही दिन पहले और कुछ समय पश्चात कामवासना अपने उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है। अनुभव में आया है कि पुरुषों में कामेच्छा सप्ताह में एक दिन अपने शिखर पर पहुंच जाती है और शायद यही कारण है कि अधिकांश विवाहित दम्पत्ति सप्ताह में एक बार यौन समागम करते हैं।
कामेच्छा पर बाहरी कारणों जैसेकि जलवायु तथा मौसम का भी काफी प्रभाव पड़ता है।
यद्यपि उचित मात्रा में शारीरिक व्यायाम किया जाए तो इससे प्रायः सैक्स सक्रियता को उत्तेजना मिलती है लेकिन अधिक शारीरिक थकान से इसमें बाधा पड़ जाती है। अधिक मानसिक कार्य करने तथा केन्द्रिय तन्त्रिका तन्त्र में थकावट हो जाने से भी कामेच्छा दब जाती है।
अन्त में यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि व्यक्ति का स्वास्थ्य गिर जाने पर कामेच्छा पूरी तरह लुप्त हो सकती है। यौन समागम में तन्त्रिकाओं की शक्ति बड़ी मात्रा में खर्च हो जाती है और यदि वह शक्ति कम है तो कामेच्छा स्वयं ही गायब होने लगती है। एक अनुभवी अर्थशास्त्री की तरह शरीर का भण्डार अपने अन्दर रिजर्व रखता है और अपनी शक्ति उन कार्यों में नहीं खर्च करता जो शरीर के लिए तात्कालिक महत्त्व के नहीं हैं। यौन समागम भी ऐसा ही कार्य है।