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प्रजनन-अंग

स्त्री जननांग-

          सभी स्त्रियों के लिए यह आवश्यक होता है कि उन्हे अपने शरीर के सभी अंगों और उनके कार्यों के बारे में जानकारी हो। यहां पर केवल स्त्री के जननांगों के बारे में जानकारी दी जा रही है। कुछ स्त्रियां अपने जनन अंग को शरीर का सबसे गन्दा हिस्सा समझती हैं परन्तु स्त्रियों का यह विचार गलत है। स्त्रियों का यह अंग प्रत्येक महीने स्वयं ही साफ होता रहता है। यदि स्त्रियों के जनन अंग की तुलना मुंह से की जाए तो यह पता चलता है कि स्त्रियों का यह भाग मुंह से भी कहीं अधिक साफ रहता है।

स्त्री जननांग की बनावट :

          स्त्री के जननांग में सबसे पहले बाहर की तरफ बाल होते हैं जिन्हे प्यूबिक बाल कहा जाता है। ये बाल स्त्री जननांग को चारों ओर से घेरे रहते हैं। ऊपर की तरफ एक अंग जो उल्टे वी के आकार का होता है उसे ``क्लाईटोरिस`` कहते हैं। यह भाग काफी संवेदनशील होता है। क्लाइटोरिस के नीचे एक छोटा सा छेद होता है जोकि मूत्रद्वार होता है।

          मूत्रद्वार के नीचे एक बड़ा छिद्र होता है जिसको जनन छिद्र कहते हैं। इसी के रास्ते प्रत्येक महीने महिलाओं को मासिक स्राव (माहवारी) होती है। इसी रास्ते के द्वारा ही बच्चे का जन्म भी होता है। इसकी दीवारे लचीली होती हैं जो बच्चे के जन्म समय फैल जाती है। इसके नीचे थोड़ी सी दूरी पर एक छिद्र होता है जिसे मलद्वार या मल निकास द्वार कहते हैं।

गर्भाशय-

          गर्भाशय 7.5 सेमी लम्बा और 5 सेमी चौड़ा होता है तथा इसकी दीवार 2.5 सेमी मोटी होती है। इसका वजन लगभग 35 ग्राम तथा इसकी आकृति नाशपाती के आकार के जैसी होती है। इसका चौड़ा भाग ऊपर फण्डस तथा पतला भाग नीचे इस्थमस कहलाता है। महिलाओं में यह मूत्र की थैली और मलाशय के बीच में होता है। गर्भाशय का झुकाव आगे की ओर होने पर उसे एन्टीवर्टेड कहते हैं अथवा पीछे की तरफ होने पर रीट्रोवर्टेड कहते हैं। गर्भाशय के झुकाव से बच्चे के जन्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

        गर्भाशय के ऊपरी चौड़े भाग को बॉडी (Body of uterus) तथा निचले तंग भाग को इस्थमस (Isthumus) कहते हैं। इस्थमस नीचे योनि में जाकर खुलता है। इस क्षेत्र को औस (Os) कहते हैं। यह क्षेत्र 1.5 से 2.5 सेमी बड़ा होता है तथा ठोस मांसपेशियों से बना होता है।

        गर्भावस्था के विकास के साथ गर्भाशय का आकार बढ़कर स्त्री की पसलियों तक पहुंच जाता है। इसके साथ ही गर्भाशय की दीवारे पतली हो जाती हैं।

गर्भाशय की मांसपेशिया-

          महिलाओं के गर्भाशय की मांसपेशियों को प्रकृति ने एक अदभुत क्षमता प्रदान की है। इसका वितरण दो प्रकार से है-

        पहले वितरण को लम्बी मांसपेशियां और दूसरे को घुमावदार मांसपेशियां कहते हैं। गर्भावस्था में गर्भाशय का विस्तरण तथा बच्चे के जन्म के समय लम्बी मांसपेशियां प्रमुख रूप से कार्य करती हैं। घुमावदार मांसपेशियां बच्चे के जन्म के बाद गर्भाशय के संकुचन तथा रक्त के बहाव को रोकने में प्रमुख भूमिका निभाती है।

डिम्बग्रन्थि-

          महिलाओं में गर्भाशय के दोनों ओर डिम्बग्रन्थियां होती हैं। यह देखने में बादाम के आकार की तथा 3.5 सेमी लम्बी और 2 सेमी चौड़ी होती है। इसके ऊपर ही डिम्बनलिकाओं की तन्त्रिकाएं होती हैं जो अण्डों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। डिम्बग्रन्थियों का रंग गुलाबी होता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ ये हल्के सफेद रंग की हो जाती है। वृद्धावस्था में यह सिकुड़कर छोटी हो जाती है। इनका प्रमुख कार्य अण्डे बनाना तथा उत्तेजित द्रव और हार्मोन्स बनाना होता है। डिम्बग्रन्थियों के मुख्य हार्मोन्स ईस्ट्रोजन और प्रोजैस्ट्रोन हैं। माहवारी (मासिक-धर्म) स्थापित होने के पूर्व इसका कोई काम नहीं होता है परन्तु माहवारी के बाद इसमें प्रत्येक महीने डिम्ब बनते और छोडे़ जाते हैं, जो शुक्राणुओं के साथ मिलकर गर्भधारण करते हैं।

डिम्बवाहिनियां-

          डिम्बवाहिनियां गर्भाशय के ऊपरी भाग के दोनों ओर से निकलती हैं तथा दोनों तरफ कूल्हे की हडि्डयों तक जाती है। इनकी लम्बाई लगभग 10 सेमी और मोटाई लगभग आधा सेमी होती है। दोनों ओर इसका आकार एक कीप की तरह का होता है। इस कीप का अन्तिम छोर लम्बी-लम्बी अंगुलियों की तरह होता है जिसको तन्त्रिकाएं कहते हैं। इनका प्रमुख कार्य डिम्बग्रन्थियों से निकले अण्डे को घेरकर उसे वाहिनियों में भेजना होता है।

          यह नलियां मांसपेशियों से तथा इनके अन्दर की दीवार एक झिल्ली की बनी होती है जिसको म्यूकस झिल्ली कहते हैं।

          डिम्बग्रन्थियों से पकडे़ अण्डे, वाहिनियों के आगे के भाग में जाकर रुकते हैं। जहां ये पुरुष के शुक्राणु के साथ मिलकर एक नये जीवन का निर्माण करते हैं। स्त्री जनन अंग में इस संरचना को जाइगोट कहते हैं। जाइगोट के चारों तरफ एक खास परत उत्पन्न होती है। जिसको ’कैरिओनिक परत’ कहते हैं। यह परत बच्चेदानी से संपर्क बनाती है। यदि जाइगोट बच्चेदानी में नहीं पहुंच पाता तथा नलों में ही पनपने लगता है तो इसे एक्टोपिक गर्भावस्था कहते हैं। अंडों का जीवन सिर्फ 18 घंटों का होता है जिसके बाद ये नष्ट हो जाते हैं।

शुक्राणुओं का सफर :

          गर्भाशय में शुक्राणुओं की यात्रा लगभग 23 सेमी लम्बी होती है। पुरुष के शुक्राणु लगभग चार सौ करोड़ की मात्रा में स्त्री के गर्भाशय में प्रवेश करते हैं। पुरुषों के वीर्य में टेस्टीकुलर, प्रोस्टेटिक और सेमीनल वेसाइकिल नाम के तीन द्रव पाये जाते हैं।

          पुरुषों के वीर्य में पाया जाने वाला सेमीनल वेसाइकिल द्रव ही पुरुष के शुक्राणुओं को जीवित रहने में सहायता करता है। पुरुष का वीर्य लगभग 15 मिनट में पानी में परिवर्तन हो जाता है। योनि का वातावरण अम्ल (एसिडिक) के समान होता है। इस वातावरण में पुरुष के शुक्राणु जीवित नहीं रह पाते हैं और धीरे-धीरे नष्ट होने लगते हैं। पुरुष के कुछ शुक्राणु ``सरवायकल कैनाल`` में प्रवेश कर जाते हैं। सरवायकल कैनाल का वातावरण खारा (एल्कालिन) होता है। लगभग 8 से 10 प्रतिशत शुक्राणु इस वातावरण से होते हुए नलों को पार करके आखिरी किनारे पर आकर अण्डे से मिलते हैं। इस प्रक्रिया में लगभग 1500 से 2000 शुक्राणु ही नलों के किनारे तक पहुंच पाते हैं।

पुरुष के शुक्राणु और स्त्री के अण्डे (अण्डाणु) का मिलना-

          पुरुष के केवल एक शुक्राणु से ही जीवन की रचना हो सकती है। पुरुष के शुक्राणुओं के तीन भाग होते हैं। 1. सिर 2. गर्दन 3. दुम। पुरुषों के शुक्राणु दुम की सहारे सेमिनल वेसाईकल द्रव में तैरते हुए स्त्री के अण्डाणु तक पहुंचते हैं। स्त्री के अण्डाणु से मिलने के बाद शुक्राणुओं का सिर स्त्री के अण्डे की झिल्ली को फाड़कर उसमें प्रवेश कर जाता है तथा शुक्राणुओं का गर्दन और दुम बाहर रह जाता है। जब स्त्री-पुरुषों के अण्डाणु और शुक्राणु आपस में मिलते हैं तो जाइगोट का जन्म होता है। स्त्री और पुरुष के गुणों के कण आपस में मिलने के बाद बढ़ने लगते हैं। ये बढ़ते-बढ़ते 2 से 4, 8, 16, 32 कोश बनाते हैं। यह कोश इसी तरह 266 दिन तक बढ़ने के बाद एक बच्चे का रूप ले लेते हैं।

स्त्रियों का मासिक स्राव (माहवारी)-

          स्त्रियों में माहवारी पारिवारिक वातावरण, देश, मौसम आदि पर निर्भर करती है। हमारे देश में माहवारी 10 वर्ष से 12 वर्ष की उम्र में आती है तथा ठण्डे प्रदेशों में यह 13 या 14 साल की उम्र में आती है।

          स्त्रियों की अण्डेदानी में 7-8 वर्ष की उम्र से ही उत्तेजित द्रव `हार्मोन्स` निकलना प्रारम्भ हो जाता हैं। इस हार्मोन्स को इस्ट्रोजन हार्मोन्स कहते हैं। इस हार्मोन्स के निकलने के कारण स्त्रियों के स्तनों का आकार बढ़ने लगता है तथा धीरे-धीरे इनका विकास होता रहता है। 18 वर्ष की आयु तक लड़कियों का शरीर पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है। इसके बाद उनके शरीर में चर्बी का जमाव, शरीर का गठीला होना, बालों का विकसित होना, गर्भाशय में बच्चेदानी का पनपना और बढ़ना, जननांगों का विकास, नलियों का बढ़ना तथा प्रत्येक महीने के बाद माहवारी का आना प्रमुख पहचान बन जाती है। स्त्रियों में प्रारम्भ में माहवारी अनियमित रहती है और इसके नियमित होने में कई महीने का समय लग सकता है माहवारी को नियमित करने के लिए किसी उपचार की आवश्यकता नहीं होती है। धीरे-धीरे स्त्रियों में यह स्वयं ही नियमित रूप से होने लगती है।

स्त्रियों के शरीर की हडि्डयों की बनावट-

          स्त्रियों के शरीर की हडि्डयों की रचना प्रकृति ने विशेष रूप से की है जिससे वे बच्चे को आसानीपूर्वक जन्म दे सकती हैं।

         स्त्रियों के कूल्हे की हड्डी पुरुष के कूल्हे की हड्डी की तुलना में अधिक स्थान रखती है। कूल्हे की हडि्डयां मुख्य रूप से तीन प्रकार की हडि्डयों से बनी होता है। पीछे की तरफ की हड्डी को सेक्रम, दोनों तरफ की हडि्डयों को इलियास तथा सामने की ओर हड्डी को प्यूबिस कहते हैं। सेक्रम के नीचे पूंछ के आकार की नुकीली हड्डी होती है। जिसको कोसिक्स कहते हैं। कूल्हे की हडि्डयों का प्रमुख कार्य कूल्हे की मांसपेशियों, अंगों तथा बच्चे को जन्म के लिए पर्याप्त जगह देना होता है। जब स्त्री प्रसव के समय बच्चे को जन्म देती है तो उस समय अधिक स्थान देने के लिए प्रत्येक जोड़ कुछ खुलता और ढीला होता है ताकि स्त्री बच्चे को आसानी से जन्म दे सके। इसको जन्ममार्ग (Birth canal) कहते हैं।

जन्म मार्ग-

          जन्म मार्ग कूल्हे की हडि्डयों के ऊपर की सतह से नीचे की सतह तक होता है। यह मार्ग पीछे की ओर चौड़ा तथा आगे की तरफ छोटा होता है। बच्चे को पैदा होने के लिए कूल्हे की हडि्डयों में पहले सीधा नीचे की ओर उतरना पड़ता है। फिर 90 अंश के कोण पर घूमने के बाद बच्चे का जन्म होता है। प्रकृति ने स्त्रियों में यह कोण प्रदान कर बच्चे के जन्म में आसानी की है नहीं तो बच्चा जन्म लेते ही सीधे नीचे की ओर गिर सकता है। बच्चे के जन्म मार्ग की मांसपेशियां सामने की ओर अधिक मजबूत होती हैं और बच्चे को साधने में सहायक होती है। इनकी तुलना में पीछे और नीचे की मांसपेशियां कमजोर होती हैं। 

कूल्हे के नीचे का भाग-

          कूल्हे के नीचे का भाग मांसपेशियों और तन्तुओं से मिलकर बना होता है। कूल्हे का निचला भाग सैक्रम हड्डी से प्यूबिक सिम्फाईसिस तक होता है। इसमें मलद्वार, मूत्रद्वार और जननद्वार खुलते हैं। यह पेट के सभी अंगों को नियन्त्रण में रखता है तथा खांसी और छींक आने पर मांसपेशियां पेट के अंगों को नीचे की ओर आने से रोकती हैं। कब्ज होने के समय मलद्वार को यहीं मांसपेशियां रोकती हैं। इन मांसपेशियों को लिवेटर एनाई कहते हैं।

          योनि की मांसपेशियां बच्चे के जन्म के समय एक विशेष प्रकार का रूप धारण कर लेती हैं। मांसपेशियों की तन्तुएं एक-दूसरे से मिलकर एक सरल रास्ता बनाती है जिससे जन्म के समय बच्चे को अधिक स्थान सरलतापूर्वक मिल जाता है।

          जन्म के समय बच्चे के सिर की हडि्डयों की विशेष भूमिका होती है। सिर की हडि्डयों के बीच में थोड़ा सा स्थान होता है। बच्चे के जन्म के समय सिर की हडि्डयां एक-दूसरे के ऊपर चढ़ जाती हैं जिससे बच्चे का जन्म आसानी से हो जाता है।

          बच्चे का जन्म मार्ग लगभग 10 सेंटीमीटर चौड़ा होता है जबकि बच्चे का सिर मात्र 9.5 सेंटीमीटर का होता है। इस कारण प्रसव आसानी से हो जाता है। यदि बच्चे का सिर या आकार बढ़ा हो या कूल्हे का आकार छोटा हो तो ऐसी अवस्था में बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन करना पड़ सकता है।

पैरानियम (मूलाधार)-

          स्त्रियों के दोनों टांगों के बीच के त्रिकोण भाग को पैरानियम कहते हैं। पैरानियल बॉडी मलद्वार के आगे तथा जननद्वार के पीछे होती है। इसमें कूल्हे के निचले भाग की सभी मांसपेशियां आपस में मिलती हैं। यह प्रत्येक व्यक्तियों में अलग-अलग होती हैं। किसी में यह कमजोर और किसी में यह अधिक शक्तिशाली होती है।

          इस प्रकार से पैरानियम जननद्वार के पीछे तथा नीचे की दीवार को सहारा दिये रहती है। संभोग क्रिया के समय पैरानियम जननद्वार को पीछे की ओर से साधे रहती है। बढ़ती आयु के साथ-साथ यह कमजोर हो जाती है। कूल्हे के चारों ओर की मांसपेशियों के यहां एकत्र होने के कारण यहां का रोग या पस चारों ओर फैल सकता है। बच्चे के जन्म से पहले जननद्वार को यहीं से काटकर चौड़ा बनाया जाता है। ताकि बच्चे के जन्म के समय अधिक से अधिक स्थान प्राप्त हो सके तथा बच्चे के जन्म के लिए अधिक चीड़-फाड़ न करनी पडे़। प्रसव के बाद टांके इन्हीं मांसपेशियों में लगाये जाते हैं जिसको ऐपिजियोटोमी कहते हैं।  


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