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नवजात शिशु

 

नवजात शिशु का वजन-

        आमतौर पर प्रसव के बाद बच्चे का वजन शुरुआत में कुछ घटता है। एक सप्ताह में उसका वजन उतना ही हो पाता है, जितना की उसके जन्म के समय होता है। इसके बाद एक स्वस्थ बच्चे का वजन लगभग 30 ग्राम नियमित रूप से बढ़ता है। परन्तु यह तभी सम्भव होता है, जब बच्चा सामान्य विधि द्वारा दूध पीने लगता है।

तापमान-

        जन्म लेने के बाद बच्चे के शरीर का तापमान कम होना शुरू हो जाता है। इस कारण बच्चे के शरीर का तापमान बनाने के लिए बच्चे को गर्म बनाये रखना चाहिए।

पीलिया-

        कई बच्चों को जन्म के बाद पीलिया हो जाता है। पीलिया 3 प्रकार का होता है।

1. फिजियोलोजिकल जौण्डिस-

  • शारीरिक क्रिया द्वारा पीलिया का होना। इस प्रकार का पीलिया बच्चो को जन्म लेते ही हो जाता है। दूसरे दिन इस पीलिये के लक्षण बच्चे के शरीर पर काफी दिखाई देने लगते हैं लेकिन सातवें दिन तक इसके लक्षण कम हो जाते हैं। इस प्रकार के पीलिए से नवजात शिशु को हानि नहीं होती है। इस प्रकार का पीलिया बच्चे में अधिक रक्त में लाल कण होने से होता है। बच्चे के जन्म लेने पर इतने अधिक लालकण की जरूरत नहीं होती है। इस कारण यह कण टूटना या नष्ट हो जाना शुरू हो जाता है तथा बिलीरूबिन के रूप में त्वचा के नीचे इकट्ठा हो जाते हैं। जिस कारण बच्चे के शरीर की त्वचा का रंग पीला दिखाई पड़ता है। इसको शारीरिक क्रिया द्वारा उत्पन्न पीलिया कहते हैं। इसके उपचार हेतु बच्चे को सूर्योदय का प्रकाश दिखाने से लाभ होता है क्योंकि सुबह के समय सूर्य के प्रकाश में अल्ट्रावायलेट किरणें होती हैं। यह पीलिया उन बच्चों को अधिक होता है। जिनको प्रसव के लिए प्रेरित करना पड़ता है। प्रसव के लिए प्रेरित करने से बच्चेदानी का दबाव अधिक हो जाता है तथा अधिक रक्त के लालकण बच्चे में आ जाते हैं और पीलिया रोग उत्पन्न करते हैं।
  • जन्म लेने के तुरंत बाद मां का कोलोस्ट्राम युक्त दूध पीने से बच्चे को पीले और हरे रंग का मल आता है। इस मल में बिलीरूबिन होता है। इस प्रकार से बिलीरूबिन मल के द्वारा बच्चे के शरीर से बाहर निकल जाता है और बच्चा जल्द ही पीलिया रोग से मुक्त हो जाता है। यदि मां यह कोलेस्ट्रम युक्त दूध बच्चे को नहीं पिलाती है तो बच्चा मल त्याग नहीं कर पाता है तथा यही बिलरुबिन फिर से रक्त में चला जाता है। इस प्रकार फीजियोलोजिकल पीलिया को समाप्त करने में मां के दूध की प्रमुख भूमिका होती है। बच्चे को अधिक पानी पिलाने से भी इस प्रकार के पीलिया में लाभ मिलता है।
  • रक्त की जांच कराके यदि इस समय बच्चों में पीलिया देखा जाए तो यह अधिक से अधिक यह 10 मिलीग्राम/100 मिलीलीटर होगा।

2. असामान्य पीलिया-

        जब बच्चे का रक्त मां के रक्त से नहीं मिलता हैं और उसमें भिन्नता होती है तो बच्चे के शरीर में शीघ्र पीलिया पनपने लगता है। यह हानिकारक होता है तथा इसकी चिकित्सा शीघ्र ही करनी चाहिए। वरना बच्चे को हानि हो सकती है। बच्चे का मस्तिष्क क्षीण होने लगता है और बच्चा कोमा में पहुंच जाता है। इस प्रकार के बच्चों का शीघ्र पूर्ण रक्त बदलना पड़ता है। ऐसी अवस्था में भी स्त्री बच्चे को दूध पिला सकती है। इस समय बच्चे को अच्छे हॉस्पिटल में रखना चाहिए जहां सभी प्रकार की सुविधा उपलब्ध हों।

पीलिया और मां का दूध-

        इस प्रकार के पीलिए में बच्चे अस्पताल में ठीक रहते हैं लेकिन अस्पताल से घर जाने के लगभग एक सप्ताह बाद उनमें पीलिया के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। यह मां के दूध के कारण होता है। इस प्रकार के पीलिए में भी सीरम बिलीसबिन 20 मिलीग्राम/100 एम.एल. तक बढ़ जाता है परन्तु यह अधिक हानिकारक नहीं होता क्योंकि बच्चे के मस्तिष्क में रक्त संचार अच्छा बन चुका होता है। सभी प्रकार के पीलिये का शीघ्रता और सावधानी से उपचार कराना चाहिए।

        बच्चे के रक्त में शक्कर की मात्रा कम होने पर या मां के द्वारा अधिक दवाइयों का सेवन करने के कारण भी बच्चे को पीलिया हो सकता है।

        पीलिया में अधिक मात्रा में पानी, सूर्य का प्रकाश, फोटोथैरपी (अल्ट्रावायलेट किरणें देने का यन्त्र) देने से बच्चे को लाभ होता है। इस पर भी मां को बच्चे के पीलिया रोग पर नजर रखनी चाहिए, अपने डॉक्टर की समय-समय पर राय लेते रहने चाहिए और रक्त की भी जांच करवाते रहना चाहिए।

  • मां को यदि टी.बी. कैंसर या मिर्गी का दौरा पड़ता हो या फिर वह कोई ऐसी दवा आदि का सेवन करती हो जिससे बच्चे को नुकसान पहुंच सकता हो तो ऐसी अवस्था में उसे बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाना चाहिए।
  • यदि मां को सर्दी-जुकाम या बुखार हो तो उसे सावधान रहना चाहिए कि बच्चे को दूध पिलाने से यह रोग बच्चे में भी न पहुंच जाए।
  • स्वस्थ स्त्रियां जितना अधिक स्तनपान अपने बच्चे को कराती हैं, बच्चे का शरीर उतना ही रोगों से सुरक्षित रहता है। इस प्रकार बच्चे में रोग से लड़ने की क्षमता स्वयं ही आ जाती है।
  • मां द्वारा नींद की दवा, थाईरायड की दवा, दस्तों के होने की दवा आदि लेने से बच्चे को भी नींद होती है। ऐसी अवस्था में उसे अपने बच्चे को स्तनपान नहीं कराना चाहिए।
  • यदि बच्चे का दूध छुड़ाना हो तो धीरे-धीरे छुड़ाना ही ठीक रहता है।
  • बोतल से दूध पीने वाला बच्चा मोटा और भारी हो सकता है लेकिन स्तनपान कराने वाला बच्चा शरारती और चुलबुले स्वभाव का होता है।
  • मां को उसके कार्य के आधार पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
  • पहली, गृहस्थी में रहने वाली स्त्रियां जो हर समय बच्चे के पास रहती हैं और उसे कभी भी स्तनपान करा सकती हैं।
  • दूसरी, नौकरी पर जाने वाली स्त्रियां जो सात-आठ घंटे की नौकरी करती हैं। वह सुबह 2 बार बच्चे को स्तनपान करा के नौकरी पर जा सकती है। बीच के समय बच्चे को बोतल का दूध भी पिया जा सकता है तथा फिर आने के बाद बच्चे को अपना दूध दे सकती हैं।
  • तीसरी, वह स्त्रियां जो लम्बी नौकरी पर रहती हैं जैसे डॉक्टर, एयर होस्टेस या टूर पर रहने वाली आदि। ये स्त्रियां अपने बच्चे को स्तनपान नहीं करा पाती है इसलिए इसका समाधान केवल बोतल वाला दूध होता है।
  • यदि मां को कोई अन्य रोग हो, स्तन में बीमारी हो, स्तन पक गये हों, निप्पल फट गये हों या त्वचा का रोग हो तो बच्चे को बोतल का दूध पीने को दिया जा सकता है।
  • कई स्त्रियों में यह गलतफहमी होती है कि स्तनपान कराने से स्तन ढीले होकर लटक जाते हैं तथा शरीर खराब हो जाता है। जबकि स्तनपान कराने के स्त्रियों के शरीर की सुन्दरता बढ़ती है।
  • मां के दूध से बच्चे को कोई एलर्जी नहीं हो पाती तथा बच्चा छोटे-मोटे रोगों जैसे- खांसी, जुकाम, दस्तसांस का रोग, त्वचा के रोग से बचा रहता है।
  • मां का दूध हमेशा बच्चे के पीने के लिए तैयार रहता है। मां का दूध न तो गर्म करना पड़ता है न ही इस दूध में मीठा पदार्थ डालना पड़ता है। यह दूध बच्चे को सभी रोगों से दूर रखता है। यह शीघ्र पाचक तथा अधिक लाभदायक होता है।
  • बोतल का दूध साफ और उबला न होने पर बच्चे को दस्त, बुखार आदि होने की संभावना होती है। बोतल का दूध देने से पहले उसका तापमान अवश्य देख लेना चाहिए। अधिक गर्म दूध पिलाने से बच्चे का मुंह जल सकता है।
  • बच्चे को दूध का पाउडर भी दिया जा सकता है। 25 ग्राम पानी में एक चम्मच पाउडर डालना चाहिए। अधिक पतला दूध बच्चे के वजन को बढ़ने नहीं देता तथा अधिक गाढ़ा दूध भी बच्चे के लिए हानिकारक होता है। गाढे़ दूध से बच्चे के रक्त में मिनरल की मात्रा अधिक हो जाती है जिससे बच्चे में कब्ज, पानी की कमी और अन्य रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
  • बच्चे को एक ही पाउडर का दूध पीना चाहिए ताकि उसका पेट ठीक रहता है।
  • बचा हुआ दूध बच्चे को दुबारा से गर्म करके पिलाना हानिकारक होता है।
  • गाय के दूध में ममता होती है। भैंस के दूध में चर्बी अधिक होती है। गाय का दूध हल्का होता है तथा शीघ्र ही पच जाता है। गाय के दूध में प्रोटीन मां के दूध से भी अधिक होता है। अधिक मात्रा में प्रोटीन शरीर में अधिक नाइट्रोजन उत्पन्न करता है। यह बच्चों के गुर्दों को कमजोर करता है। इस कारण गाय के दूध में 25 प्रतिशत पानी मिलाकर बच्चों को पिलाना चाहिए जिससे प्रोटीन, सोडियम और नाईट्रोजन हल्के हो जाएं और बच्चे के गुर्दे कमजोर न हों।
  • मां का दूध गाय के दूध से अधिक मीठा होता है क्योंकि मां के दूध में लैक्टोज अधिक होता है।

3. फोन्टेनली-

        जन्म के बाद बच्चे के सिर के अगले भाग व पिछले भाग पर एक मुलायम त्रिकोण आकार का उभार होता है जिसको फोन्टेनली कहते हैं। इस भाग में क्योंकि हड्डी नहीं बन पाती, इस कारण ये भाग केवल एक मुलायम झिल्ली और त्वचा से ढका रहता है जिसको भरने में 9 से 18 महीने लग जाते हैं।

जन्म के निशान-

        बच्चे का जन्म होने के बाद बच्चे की पलकों, माथे, हाथ व शरीर के अन्य अंगों पर छोटा और लाल रंग का निशान होता है। यह निशान एक साल के अन्दर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।

नीला दाग-

        गहरा नीला दाग बच्चे की पीठ के निचले भाग पर होता है। यह दाग भी लगभग एक-डेढ़ साल में समाप्त हो जाता है।

नींद-

        बच्चे को जन्म लेने के 6 महीने के बाद तक 18 से 20 घंटे तक प्रतिदिन सोना चाहिए।

रोना-

        बच्चा तभी रोता है जब वह भूखा हो, गीला हो, सर्दी-जुकाम, गैस या फिर पेट में दर्द हो। ऐसी स्थिति में अधिक समय तक बच्चे को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए तथा डॉक्टर से सलाह-मशविरा करते रहना चाहिए।

मल-

        सामान्यत: बच्चे को जन्म के पहले 24 घंटों में मलत्याग कर देना चाहिए। बच्चे का पहला मल काला और चिकना होता है। इसके बाद मल का रंग हरा और काला हो जाता है। 3-4 दिनों के बाद इसका रंग पीला हो जाता है। प्रतिदिन बच्चे को 3 से 4 बार मलत्याग करना चाहिए। लगभग 6 महीने के बाद बच्चे को मलत्याग प्रतिदिन केवल दो बार ही करना चाहिए।

मूत्र-

        जन्म के 36 घंटे में शिशु द्वारा मूत्र त्यागना आवश्यक होता है। ऐसा न होने पर डॉक्टर को सूचित करना चाहिए।

स्तन-

        कभी-कभी बच्चे के स्तन में सूजन और दूध की बूंद निकल सकती है। ये मां के उत्तेजित द्रव के कारण होता है। ये सूजन कुछ सप्ताह में स्वयं ही समाप्त हो जाती है। इसे न तो दबाना चाहिए और न ही मालिश करनी चाहिए। इसी उत्तेजित द्रव के कारण स्त्री बच्चे (फीमेल चाइल्ड) में योनिद्वार पर रक्त के कुछ निशान भी देखें जा सकते हैं जो धीरे-धीरे स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं।

अण्डकोष-

        नर बच्चे के पैदा होने के बाद अण्डकोष के आकार से गर्भ में बच्चे की अनुमानित आयु लगायी जा सकती है। समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चे के अण्डकोष आकार में छोटे होते हैं। अण्डकोष का रंग काला या भूरा होता है।

बच्चे को नहलाना-

        जब तक नाभि की नाल लगी हो, नाल के गिर जाने के बाद नाभि सूखी न हो या बच्चे के पैदा होने पर आपने खतना करा रखा हो हो ऐसी सूरत में बच्चे को केवल गुनगुने पानी से ही हल्का सा नहलाना ठीक रहता है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रतिदिन गुनगुने पानी का प्रयोग करें। बच्चे के चेहरे तथा पेशाब व मलद्वार को साफ करके सूखा रखना आवश्यक होता है।

        बच्चे को टब में स्नान कराते समय इतना पानी लें जिससे बच्चे की कमर तक पानी रहे। स्नान कराते समय बच्चे को टब में उल्टा नहीं करना चाहिए, टब में बच्चे को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। बच्चे को कम समय तक स्नान करायें तथा बच्चे के शरीर पर साबुन का उपयोग न करें। बच्चे के गर्दन, हाथ-पैरों के मोड़ों को अधिक साफ रखना चाहिए। नहलाने के बाद बच्चे के शरीर पर इत्र (परफ्यूम) का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

बच्चे के आंख और कान की साफ-सफाई-

        स्नान कराते समय बच्चे के कान में पानी नहीं जाने देना चाहिए। इसलिए स्नान कराते समय दोनों कानों में रूई लगा देनी चाहिए। स्नान के बाद कानों की रूई बाहर निकालकर कान को सुखाना चाहिए। कानों में किसी भी प्रकार के तेल का उपयोग नहीं करना चाहिए। गुनगुने पानी में रूई को गीला करके बच्चे की आंखों को साफ करना चाहिए।

मलद्वार की सफाई-

        मलत्याग करने के बाद बच्चे के मलद्वार को गुनगुने पानी या रूई से साफ करना चाहिए तथा किसी सूती कपड़े से उसे पोंछकर सुखा लेना चाहिए। सप्ताह में एक बार वेसलीन या क्रीम आदि का प्रयोग करना चाहिए। अधिक मात्रा में डाइपर का प्रयोग या अधिक समय तक मलद्वार का गीला बना रहना बच्चे की त्वचा के लिए हानिकारक होता है।

बच्चों से सम्बन्धित अन्य जानकारियां-

दिन

1

2

3

4

5

6

7

दिल की धड़कन

132

128

124

128

120

116

112

सांस

32

30

28

24

28

32

24

दूध ग्राम में

125

300

300

350

350

425

425

मल

गहरा हरा

गहरा हरा

हरा

पीला हरा

पीला हरा

पीला हरा

पीला हरा

उल्टी

-

-

-

-

-

-

-

नाड़ की अवस्था

लगा रहेगा

लगा रहेगा

लगा रहेगा

लगा रहेगा

लगा रहेगा

गिर जाएगा

-

बच्चों के दांत-

        बच्चे के पहले दांत जिन्हे दूध के दांत भी कहते हैं, केवल बीस ही होते हैं। 10 ऊपर तथा 10 नीचे के जबडे़ में। दांतों का निकलना, बच्चे के स्वास्थ्य, परिवार तथा देश पर निर्भर करता है। भारत में स्वस्थ बच्चे के दांत जन्म के 7-9 महीने तक निकल आते हैं तथा कमजोर बच्चों में 8-11 महीने तक में निकलते हैं।

बच्चे के जन्म के घाव और शारीरिक त्रुटियां-

        पैदा होते समय कभी-कभी बच्चे के सिर या चेहरे पर घाव हो जाते हैं। कभी-कभी कुछ गहरे घाव भी हो जाते हैं। मामूली घाव शीघ्र ही कुछ दिनों में ठीक हो जाते हैं। कुछ घाव लम्बा समय ले लेते हैं। चेहरे पर मामूली खरोंच के चिन्ह, प्रसव के ऑपरेशन के निशान आदि दिखाई पड़ सकते हैं।

चेहरे पर फालिश-

        शरीर की सातवीं नस जिसे फेशियल नस कहते हैं, कान के पीछे से होती हुई चेहरे तक आती है। औजारों से बच्चे के जन्म के समय कभी-कभी यह नस दब जाती है, जिस ओर की नस दबती है। उस तरफ चेहरे पर फालिश हो जाता है। परन्तु कुछ ही दिनों में धीरे-धीरे यह स्वयं ही पूरी तरह ठीक हो जाती है। 

अर्बपालिसी-

        ब्रेकियल पलेक्सिस में चोट लग जाने या खिंचाव आ जाने के कारण ये अवस्था पैदा हो जाती है। जिससे बच्चे का हाथ दर्द करता है तथा बच्चे के हाथ-पैर का हिलना-डुलना लगभग समाप्त हो जाता है। हाथ शरीर के साथ लटका हुआ तथा हथेली बाहर की ओर मुड़ी हुई होती है। इसका मुख्य कारण बच्चे का बड़ा होना या प्रसव के समय गर्दन खिंच जाना होता है। लगभग 95 प्रतिशत बच्चे इससे ठीक हो जाते हैं।

आंखे-

        बच्चे के जन्म के समय या तो औजारों द्वारा या साधारण प्रसव में भी नसों के दबाव के कारण बच्चे की आंखों में रक्त आ जाता है। इस प्रकार आंखों के सफेद भाग में रक्त के कुछ लाल निशान देखे जा सकते हैं। यह निशान भी धीरे-धीरे स्वयं ही ठीक हो जाते हैं।

मस्तिष्क में रक्त का इकट्ठा हो जाना-

        कमजोर बच्चे में, समय से पूर्व प्रसव हो जाने पर या औजारों के प्रयोग द्वारा जिस प्रसव में अधिक डर होता है। यह कई बार मस्तिष्क की कोई छोटी नस से रक्त निकल आने के कारण हो जाता है जिससे बच्चे को हानि हो सकती है। समय से पहले या फिर कमजोर बच्चे के होने के समय कुछ डॉक्टर तो ऑपरेशन द्वारा बच्चे का जन्म होना ठीक समझते हैं, क्योंकि उनको डर रहता है कि कमजोर बच्चे को साधारण रास्ते से पैदा करने के कारण मस्तिष्क में कोई कमी रह सकती है।

हडि्डयों का टूटना-

        नवजात शिशु की हडि्डयां बहुत ही मुलायम होती है। कई बार बच्चे के जन्म के समय हाथ, पैर और कंधों की हडि्डयां भी टूट जाती है। इस प्रकार की घटना में कोई पट्टी या प्लास्टर आदि नहीं लगाना पड़ता बल्कि यह हडि्डयां स्वयं ही जुड़ जाती हैं। बच्चे के जन्म के समय हुई असावधानी से कभी-कभी बच्चे के सिर की हडि्डयां भी टूट जाती हैं परन्तु वर्तमान समय में बच्चे के जन्म के समय इतनी अधिक सावधानी बरती जाती है कि ऐसा नहीं होता है।

शिशु का टीकाकरण-

समय

टीके का नाम

जन्म के समय

हैपीटाईटिस-बी

जन्म के समय

बी.सी.जी. और पोलियों की दो बून्दे

दो महीने में

पोलियों, डी.पी.टी., एच.आई.बी. और हैपीटाईटिस-बी

तीसरे महीने में

पोलियों व डी.पी.टी

चौथे महीने में

पोलियों, डी.पी.टी और एच.आई.वी

पांचवें  महीने में

पोलियों की दो बून्दे

छठे महीने में

हैपीटाईटिस और एच.आई.वी

नौवें महीने में

खसरा

बारहवें महीने में

चिकनपाक्स और हैपीटाईटिस-ए

पंद्रहवें महीने में

एम.एम.आर

अठारहवें महीने में

पोलियो, डी.पी.टी, एच.आई.वी और हैपीटाईटिस-ए

2 वर्ष

टायफाइड

3 से 4 वर्ष

पोलियो, डी.पी.टी, हैपीटाईटिस-बी

5 से 7 वर्ष

पोलियो, डी.पी.टी, टाईफाइड

8 से 10 वर्ष

टेटनेस

गर्भावस्था के समय पति का कार्य-

         आज भी हमारे समाज और देश में बड़ों का सम्मान किया जाता है। घर की बहू-बेटियां बड़ों का आदर और सम्मान करती है। इसी कारण स्त्रियां अपनी गर्भावस्था के गम्भीर विकारों को छिपाये रहती हैं तथा इनके बारे में किसी को नहीं बताती है।

        वर्तमान समय में पुस्तकों, समाचार पत्रों, दूरदर्शन, रेडियों आदि संचार के माध्यम से समाज को सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त हो जाती है। स्त्रियों को गर्भावस्था के समय होने वाले विकारों को घर के लोगों से नहीं छिपाना चाहिए। इस दौरान आराम, भोजन, व्यायाम, डॉक्टरी जांच आदि चीजों का गर्भावस्था में विशेष महत्व होता है। स्त्री तथा पति दोनों को गर्भावस्था तथा अन्य बातों की पूर्ण जानकारी रखनी चाहिए। 

        गर्भावस्था के दौरान पति को अपनी पत्नी के पास होना आवश्यक होता है। इससे पत्नी अपनी समस्याओं को अपने पति को बिना झिझक बता सकती हैं। इससे स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक रूप से राहत मिलती है।

        कभी-कभी गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के मन में गर्भावस्था और उसके परिणामों का भय, दर्द तथा अन्य पारिवारिक बातें सामने आती है, जिससे स्त्रियां विचलित हो जाती है। ऐसी स्थिति में पति की भूमिका ही मुख्य होती है। यदि पति घर से कहीं दूर पर हो तो गर्भधारण और प्रसव का समय आदि पति को मालूम होना चाहिए ताकि वह समय पर वहां आ सके।

        स्त्री का सन्तुलित भोजन, पूर्ण आराम, कपडे़, जीवन-शैली, डॉक्टरी जांच, प्रसव की पूर्ण व्यवस्था, घर या हॉस्पिटल में व्यवस्था, प्रसव के समय स्त्री को सही समय पर हॉस्पिटल लेकर जाना, हॉस्पिटल में प्रसव साधारण औजारों से या फिर ऑपरेशन से चिकित्सा करवाने की रजामन्दी देना पति का ही कार्य होता है।

पिता बनने का सुख-

        जैसे ही पति को यह पता चलता है कि वह पिता बनने वाला है, उसकी अपनी जिम्मेदारियां बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में समय-समय पर बच्चे के बारे में जानना, उसको देखना, चेहरे और शरीर के बारे में बातें करना, पत्नी की देख-भाल, सुख-सुविधाओं को पूरा ध्यान रखना तथा रिश्तेदारों की देखभाल आदि उसके प्रमुख कार्य होते हैं।

        परिवार के अन्य सदस्यों और बच्चों का सम्बन्ध, उनके विचार और उनका व्यवहार आदि का भी पूरा ध्यान रखना पति की ही जिम्मेदारी होती है।

        बच्चे के जन्म के बाद रात में पति को बच्चे की देख-रेख करनी चाहिए ताकि पत्नी को आराम करने का मौका मिल सके। समय-समय पर बच्चे के लिए दूध, कपड़ों को लाकर देना आदि छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखने से पारिवारिक खुशियां बनी रहती हैं।

बच्चे का भविष्य-

        बच्चे के माता-पिता की शिक्षा, आपस में एक-दूसरे की भावनाओं को समझना, उनका प्रेम व्यवहार, एक-दूसरे के प्रति सम्मान और आदर, सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ, घर और समाज की छोटी-छोटी बातों को भूलना, एक-दूसरे की गलतियों को माफ करना, जीवन की अच्छी बुरी आदतें, जीवन के उपकार, परोपकार, सत्संग, हाथ से दिया दान, समाज से आपके सम्बंध, पारिवारिक सम्बन्ध, अन्य बच्चों के साथ सम्बंध, आय का साधन, मेहनत की सच्ची कमाई, भोजन, विचार, सोच आदि विभिन्न छोटी परन्तु असाधारण बातों का घर के छोटे बच्चों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

        इसलिए माता-पिता को अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए उपर्युक्त बातों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। वरना बच्चा गलत चीजें सीखकर अपने जीवन को अंधकारमय बना सकता है।

नवजात शिशु के प्रति घर के अन्य बच्चों को व्यवहार-

        घर में नये बच्चे के जन्म लेते ही माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों का ध्यान घर के बडे़ बच्चे की ओर से हटकर नवजात शिशु की ओर केन्द्रित हो जाता है। ऐसा होने पर घर के बडे़ बच्चों को पहले तो आश्चर्य और बाद में दु:ख होता है।

        शिशु के जन्म के बाद घर के सदस्यों का बदला रूख, अधिक मात्रा में छोटे शिशु को भेंट किए गये उपहार, फूल या फिर बच्चे के खिलौने, छोटे बच्चे को गोद में उठाना, इन सभी बातों का घर के बड़े बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके बाद धीरे-धीरे बडे़ बच्चे के मन में नवजात शिशु और घर के अन्य सदस्यों के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न हो जाता है।

        इस वातारण से बचने के लिए माता-पिता को अपने बडे़ बच्चों के व्यवहार और उनकी भावनाओं को ध्यान में रखकर समझाना चाहिए। स्त्रियों को गर्भावस्था के दौरान से ही बच्चे से पूछना चाहिए कि अपने साथ खेलने के लिए भाई या बहन चाहिए तथा तुम उसके साथ कौन-कौन से खेल खेलोगे। इससे बडे़ बच्चे के मन में शिशु के प्रति अपनापन का भाव उत्पन्न होगा। छोटे शिशु को मिलने वाले उपहारों और खिलौने को बड़े बच्चे को देना चाहिए तथा बड़े बच्चे को छोटे बच्चे के साथ बिठाकर समझाएं कि यह तुम्हारा छोटा भाई है। इसे भी अपने साथ खेल खिलाना।

        माता-पिता को पूरी तैयारी के साथ बड़े बच्चों को भरोसे में लेना चाहिए। प्रसव के दौरान हॉस्पिटल जाते समय बच्चे को यह समझाना चाहिए कि हम तुम्हारे लिए एक छोटा भाई या बहन लाने जा रहे हैं। इससे बडे़ बच्चों में विश्वास का भाव उत्पन्न होता है।

        बच्चे के जन्म के बाद यदि स्त्री को कुछ दिनों तक हॉस्पिटल में रहना पड़ता है तो बड़े बच्चों को इस दौरान छोटे बच्चे से अवश्य मिलाना चाहिए। पहली बार मिलने पर उस बच्चे के विचार तथा उसके चेहरे से जानने का प्रयास किया जा सकता हैं कि बडे़ बच्चों का व्यवहार और विचार छोटे बच्चे के प्रति कैसा है। इस तरह धीरे-धीरे बडे़ बच्चों को विश्वास में लिया जा सकता है। परिवार की बोल-चाल की भाषा, व्यवहार और आपकी सोच बडे़ बच्चे के प्रति अधिक अच्छी होनी चाहिए जिससे परिवार में शान्ति और खुशी का वातावरण बना रहता है।  


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