परिचय-
प्रकृत्ति प्रदत स्वभाव होने के कारण हर प्राणी प्रजनन क्रिया करता है लेकिन उनमें से उच्च वर्गीय पशु तथा मनुष्य एक विशेष प्रजनन प्रणाली द्वारा यह क्रिया करते हैं जिसमें विभिन्न आन्तरिक तथा बाहरी अंगों की भूमिका होती है। इन अंगों को प्रजनन क्रिया के अंग कहते हैं। प्रजनन क्रिया के अंग पुरुष तथा स्त्री में अलग-अलग पाए जाते हैं जो इस प्रकार है-
पुरुष जननांग में पाए जाने वाले अंग-
- दो वृषण
- वीर्यपुटक
- वीर्य को ले जाने वाली ‘शुक्राणुनली
- पुर:स्थ-ग्रन्थि
- बाहरी जननांगों में वृषणकोश ( अण्डकोश) (वृषणों की बाहरी थैली और लिंग)
स्त्री जननांगों में पाए जाने वाले अंग-
- दो अण्डनलियां
- दो डिम्ब-ग्रन्थियां
- गर्भाशय (बच्चेदानी)
- भगशिश्नका
- भग
- योनि।
इन अंगों द्वारा ही स्त्री तथा पुरुषों में प्रजनन क्रिया होती हैं। स्त्री तथा पुरुषों में प्रजनन प्रणाली निम्न हैं-
पुरुष प्रजनन प्रणाली-
पुरुषों में प्रजनन क्रिया करने के लिये वृषण प्रमुख जननांग माने जाते हैं। ये जननांग ही शुक्राणुओं की उत्पत्ति करते हैं। ये शुक्राणु अण्डे की आकार की कोशिका होती है जिन्हे युग्मनज कहते हैं। यह कुछ समय बाद भ्रूण के रूप में विकसित हो जाते हैं। पुरुषों में पाए जाने वाले वृषण अण्डाकार होते हैं और ये अण्डाकार वृषण वृषणकोश थैली में रहते हैं। ये वृषण जिन बीजाणुओं तथा कोशिकाओं (वीर्य) की उत्पत्ति करते हैं उन्हें दो नलियां ले जाती है। इन नलियों को वृषण-रज्जु कहते हैं। प्रजनन क्रिया में जब तक वीर्यस्खलन नहीं हो जाता तब तक वीर्य, वीर्य-पुटकों में पड़ा रहता है। वृषण-रज्जु के आखिरी भाग को प्रवाह या प्रवाह नली कहते हैं और ये नली वीर्य-पुटकों से जुड़ी हुई एक नली को खींचती हुई मूत्रमार्ग से जुड़ी रहती है। मूत्रमार्ग से एक ग्रन्थि जुड़ी होती है जिसे पुर:स्थ-ग्रन्थि कहते हैं। ये ग्रन्थि पानी के समान एक द्रव्य छोड़ती है जो वीर्य का एक हिस्सा बनता है। मूत्र मार्ग की लम्बाई पूरे शिश्न के बराबर होती है। वीर्य-पुटकों में जो द्रव्य बनता है उसे वीर्य कहते हैं। एक बार वीर्य-स्खलन में जो वीर्य निकलता है उसमें शुक्राणुओं की संख्या लगभग 200 लाख होती है और स्त्री के गर्भाशय में इन शुक्राणुओं का विकास करने के लिये एक ही बीजाणु काफी होता है।
वीर्य में पाए जाने वाले शुक्राणु का एक सिर, गर्दन तथा एक पूंछ होती है। इसके सिर में आनुवांशिक पदार्थ भरा होता है तथा इसकी पूंछ शुक्राणु को गतिशील बनाए रखती है।
प्रजनन अंग में पाए जाने वाले शिश्न के आखिरी सिरे पर एक नोंक होती है जिसे शिश्न-मुण्ड (लिंग-मुण्ड) कहते हैं। यहीं पर मूत्र मार्ग का छेद होता है जिससे मूत्र बाहर निकलता है। इस मूत्र मार्ग की ग्रीवा होती है तथा शिश्नमूल रहता है। पूरा लिंग एक कोमल त्वचा से ढका रहता है जिसे शिश्नच्छद कहते हैं।
जब पुरुष तथा स्त्री आपस में प्रजनन क्रिया करते हैं तो पुरुष का वीर्यपात होने के बाद शुक्राणु स्त्री के प्रजननांग के अन्दर जाकर जमा हो जाते हैं।
स्त्री प्रजनन प्रणाली-
स्त्रियों में प्रजनन क्रिया करने के लिये डिम्बग्रन्थियों का एक जोड़ा पाया जाता है जिसका वजन लगभग 5 ग्राम होता है और ये गोणिका के अन्दर पाया जाता है। ये डिम्बग्रन्थियां कोशिका अथवा अण्डाणु की उत्पत्ति करती है और डिम्बग्रन्थियों के अन्दर कुछ पुटक होते है जो स्त्रियों की यौवनारम्भ पर पूरी तरह परिपक्व हो जाता है और पुटक परिपक्व होने में 28 दिन का समय लगता है। पुटक के अन्दर एक अण्डाणु पाया जाता है जो डिम्बग्रन्थियों में विकसित होता है और परिपक्व पुटक की प्राचीर फट जाने से बाहर निकल आता है। अण्डाणु को इसके बाद एक नली के अन्दर ले जाया जाता है जिसे डिम्बवाहिनी-नली कहते हैं और वहां इसका निषेचन होता है। अण्डाणुओं की परिपक्वता की प्रक्रिया और पुटक से इसकी हटी हुई अवस्था को डिम्बक्षरण कहा जाता है। जब पुटक फट जाता है तो उसके स्थान पर एक पीला पिण्ड बनता है जिसे पीतपिण्ड कहते हैं। जब अण्डाणु का निषेचन गतिशील रहता है तो यह स्थिर रहता है नहीं तो यह सिकुड़कर मर जाता है और उस स्थान पर एक चकता सा बन जाता है। इस तरह जब स्त्री गर्भवती हो जाती है तो उनमें मासिक स्राव आना बंद हो जाता है और डिम्बग्रन्थि भी निष्क्रिय हो जाती है तथा निषेचन हो जाने पर अण्डाणु एक भ्रूण के रूप में विकसित होने लगता है और डिम्बवाहिनी नलियों से नीचे की ओर आगे बढ़ता हुआ गोणिका के अन्दर पाए जाने वाले गर्भाशय के अन्दर चला जाता है।
स्त्रियों की योनि नली की लम्बाई 8-10 सेंटीमीटर होती है। इसमें संभोग क्रिया के दौरान वीर्य जमा हो जाता है। यहां से बीजाणु तैरते हुए गर्भाशय के अन्दर चला जाता है और स्त्री गर्भवती हो जाती है।