परिचय-
संसार में जितने भी जीव पाए जाते हैं उन सभी को श्वास अर्थात सांस लेने की जरूरत होती है क्योंकि इसके बिना कोई भी जीव जिन्दा नहीं रह सकता है। श्वास क्रिया ‘शरीर में पाये जाने वाले विभिन्न ऊतकों अथवा अंगों तथा शारीरिक क्रियाओं को करने के लिये बहुत ही आवश्यक है। यह एक ऐसी क्रिया होती है जिसमें प्रत्येक प्राणी बाहर की हवा को अपने अन्दर ले जाता है तथा अपने अन्दर की हवा को बाहर निकालता है। इस क्रिया में प्राणी (जीव) जो हवा अन्दर ले जाता है वह ऑक्सीजन होती है तथा जिस हवा को बाहर निकालता है वह कार्बन डाइऑक्साइड होती है। सांस लेने की इस प्रकार की क्रिया को श्वास-प्रणाली कहा जाता है।
‘श्वास लेने की क्रिया 3 प्रकार की होती है-
- प्रश्वसन (इंसपिरेशन )
- नि:श्वसन ( एक्सपिरेशन )
- इन दोनों क्रियाओं के बीच में थोड़ी-सी विराम की क्रिया।
प्रश्वसन क्रिया के दौरान प्राणी बाहर की वायु को सांस द्वारा अपने अन्दर खींचता है तथा नि:श्वसन क्रिया के दौरान अपने अन्दर बनने वाली वायु को बाहर की ओर छोड़ता है और इन दोनों क्रिया को करने में बीच में जो समय रुकने का होता है वह क्रिया इन दोनों के बीच की क्रिया कहलाती है।
मनुष्य तथा सभी प्रकार के प्राणियों में सांस लेने की क्रिया तथा ऑक्सीजन को विभिन्न ऊतकों तक पहुंचाने के लिये एक विशेष प्रकार का यंत्र होता है।
निम्नलिखित प्रकार के अंग हर प्राणी के लिए श्वास क्रिया में सहायक होते हैं-
- मुख
- नाक
- स्वरयन्त्र
- वायुनली
- वायुनलियां (श्वासनलिकायें) तथा
- फेफड़े।
श्वास-प्रणाली के अंगों में पाए जाने वाले स्वरयन्त्र के ऊपरी भाग में एक छोटा सा पर्दा होता है जिसे उपजिन्हा कहते हैं। जब मनुष्य भोजन करता है तो ये उपजिन्हा स्वरयन्त्र को ढक देती है जिससे भोजन स्वर यन्त्र के अन्दर नहीं जाता है। जब कभी भोजन स्वरयन्त्र के अन्दर चला जाता है तो मनुष्य को बहुत तेज खांसी होती है और खाना स्वरयन्त्र से बाहर निकल जाता है। नाक नासिका पटल के माध्यम से दो नथुनों या नासापक्षकों में बंटी हुई और एक कोमल झिल्ली से ढकी होती है। इस कोमल झिल्ली को श्लेष्मकला या ‘श्लेष्मिक झिल्ली कहते हैं। ‘श्लेष्मिक झिल्ली पर छोटे-छोटे कोमल बाल उगे रहते हैं। ये बाल नाक के अन्दर धूल-मिटटी जैसे पदार्थों को जाने से रोकते हैं और अन्दर जाने वाली हवा को गरमाई देते हैं। यदि मनुष्य को किसी प्रकार का रोग हो जाता है तो इस ‘श्लेष्मकला में उसी वक्त सूजन आ जाती है। सांस लेने के दौरान जब हवा नाक के अन्दर जाती है तो वह नीचे स्वरयन्त्र की ओर बढ़ती है और वहां से वायुनली के अन्दर चली जाती है। वायु नली के अन्दर एक अर्ध छल्लेदार सफेद लचीला पदार्थ-उपास्थि द्वारा फैली हुई अवस्था में रहता है। यदि ये छल्लेदार पदार्थ न हो तो वायु नली फटकर चकनाचूर हो जायेगी इसलिए इस छल्लेदार पदार्थ को वायु नली का रक्षक कहा जाता है। वायु नली एक ‘श्लेष्मिक झिल्ली से ढकी रहती है और इन ‘श्लेष्मिक झिल्लियों में कुछ ग्रन्थियां पाई जाती है जो वायु नली को नम तथा तर रखने के लिए एक प्रकार का चिपचिपा पदार्थ छोड़ती है जिसे ‘श्लेष्मा कहते हैं। वायु नली दाईं और बाईं दो प्रकार की नलियों में बंटी होती है जिन्हे सांस लेने की नलियां कहते हैं और ये उरोस्थि के ठीक ऊपर 5 सेन्टीमीटर की दूरी पर स्थित रहती है। इस प्रकार ये सांस लेने की नलियां दाएं और बाएं फेफड़ों के अंदर पहुंचती है और बहुत सारी छोटी-छोटी वायुनलियों में बंट जाती है और अन्त में फेफड़ों के अन्दर की थैलियों में प्रवेश कर जाती है। इन थैलियों को फुफ्फुस कोटर कहते हैं। इन फुफ्फुस कोटरों के द्वारा ही सांस के माध्यम से लिया गया ऑक्सीजन खून के अन्दर पहुंचता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड खून से वायुनलियों के अन्दर वापस लौट आता है।
एक व्यस्क व्यक्ति के फेफड़ों के अन्दर पाए जाने वाले वायु कोटरों की संख्या 300 से 400 लाख तक होती है और ये वायु कोटर 100 वर्गमीटर क्षेत्रफल घेरते हैं। सभी वायु कोटर फूलते हैं और छोटे-छोटे गुब्बारों की तरह फूट जाते हैं।
फेफड़ों का आकार शंकु के समान होता है और इनके ऊपर वाला हिस्सा नीचे वाले हिस्से की अपेक्षा तंग होता है। इसके दायें भाग में 3 खण्ड और बाएं भाग में 2 खण्ड पाए जाते हैं। फेफड़े ‘शरीर के अन्दर पेशी की एक गुम्बदाकार प्लेट के ऊपर स्थित रहते हैं जिसे मध्यच्छद कहते हैं। मध्यच्छद ‘शरीर से छाती तथा उदर गन्हरों (उदर का बाहय आवरण) को अलग करता है। फेफड़े एक पतली झिल्ली से ढके रहते हैं जिसे फुफ्फसावरण कहते हैं। ये फुफ्फसावरण फेफड़ों की जड़ पर स्वयं पीछे की ओर तह के रूप में अपने आप मुड़ जाता है और अन्दरूनी वक्ष प्राचीर के आरेखण का कार्य भी करता है।
श्वास-यन्त्र की बनावट-
जब व्यक्ति सांस लेता है तो उस समय मध्यच्छद सिकुड़ जाता है तथा इसका गुम्बदाकार आकार का केन्द्र चपटा हो जाता है और छाती को नीचे से ऊपर की ओर फैलने का मौका देता है। इसके साथ-साथ पसलियां भी ऊपर और नीचे की ओर उठ जाती है जिसके फलस्वरूप अन्दर वाली जगह समीचीन रूप में फैल जाती है। इस प्रकार फेफड़ों को लचीलापन तथा फैलने का मौका मिल जाता है जिसके फलस्वरूप वायुकोटरों में हवा भर जाती है। इसके बाद हल्की सी विराम की अवस्था आती है तथा विराम की अवस्था के बाद मध्यच्छद दुबारा फैल जाता है और फिर से अपने मूल आकार में हो जाता है। पसलियां भी अपनी पहली अवस्था में आ जाती है, जिसके फलस्वरूप फेफड़े सिकुड़ जाते हैं तथा अन्दर ली हुई हवा को बाहर निकाल देते हैं।
एक वृद्ध व्यक्ति एक मिनट में लगभग 15 से 18 बार सांस लेता है और हवा को बाहर छोड़ता है। अधिक मेहनत का काम करने, व्यायाम करने तथा तापमान आदि अवस्थाओं में सांस लेने की यह दर भिन्न-भिन्न होती है। जो भी व्यक्ति सांस लेता है वह पूरी-पूरी हवा को बाहर नहीं छोड़ता है अर्थात सांस लेने के दौरान जितनी हवा अन्दर खींची जाती है, उतनी हवा बाहर नहीं निकलती है। हम जितनी भी जोर से हवा को बाहर की ओर छोड़े फिर भी पूरी हवा बाहर नहीं निकल पाती है और थोड़ी बहुत हवा की मात्रा फेफड़ों के अन्दर बची रह जाती है। जो हवा फेफड़ों के अन्दर रह जाती है उसे अवशिष्ट वायु कहते हैं। इस तरह श्वास-प्रणाली की क्रिया होती है।
‘श्वासयन्त्र का चित्र
‘शरीर की सभी कोशिकाओं में खून के माध्यम से ऑक्सीजन पहुंचता है और वायु कोटरों के अन्दर ही हवाओं की अदला-बदली होती है। सांस द्वारा जो हवा अन्दर ली जाती है उसमें नाइट्रोजन 79 प्रतिशत, कार्बन डाईऑक्साइड 0.03 प्रतिशत, ऑक्सीजन 21 प्रतिशत और अन्य गैसों की मात्रा पाई जाती है। जो हवा सांस द्वारा बाहर छोड़ी जाती है उसमें कार्बन डाइऑक्साइड 4 प्रतिशत, ऑक्सीजन 16 प्रतिशत तथा नाइट्रोजन 80 प्रतिशत तथा अन्य गैसे पाई जाती है । सांस लेने की पूरी क्रिया मेरुरज्जु, स्नायु तन्तुओं तथा ‘श्वासपेशी के माध्यम से मस्तिष्क में स्थित ‘श्वास केन्द्र द्वारा नियन्त्रित और नियमित होती है।
सांस लेने का तरीका कई प्रकार की अवस्थाओं में बदलता रहता है जैसे कि दौड़ने-भागने में सांस लेने की क्रिया तेज हो जाती है। बीमारी की अवस्था में सांस लेने की क्रिया कम हो जाती है। चिकित्सक को रोगी की सांस लेने की अवस्था को जान कर ज्ञान हो जाता है कि वह व्यक्ति किस बीमारी से पीड़ित है उदहारण के लिये टी.बी. के मरीज को सांस लेते समय खरखराहट होती है और सांस लेने में लम्बा समय लग जाता है। इस प्रकार की सांस लेने की अवस्था को फफोलेदार सांस कहते हैं। जब सांस लेते समय कर्कश तथा सीटी बजने की आवाज सुनाई देती है। प्रश्वसन-नि:श्वसन के मध्य एक स्पष्ट विरामकाल होता है तथा ऊह,हो,हौ जैसी आवाज हो तो, इस प्रकार की सांस की अवस्था को श्वसनिका सांस कहते हैं। इस प्रकार की अवस्था फेफड़ों के कुछ रोगों में पाई जाती है। छींकना तथा खांसना आदि कुछ सामान्य लक्षण सांस-प्रणाली से जुड़े रहते हैं। सांस की नलियों की श्लेष्मिक झिल्ली तथा स्वरयन्त्र में किसी प्रकार के धूल के कण तथा भोजन के कुछ पदार्थ चले जाते हैं तो इस प्रकार की अवस्था उत्पन्न हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि धूल के कण तथा भोज्य पदार्थ बाहर निकल जाये तथा सांस की प्रणाली सही रूप से चलती रहे।