परिचय-
रोगी की सेवा के सबसे प्रमुख तीन अंग है-परिष्कार-परिच्छत्रता, सब्र और निष्ठा। रोगी की सेवा करने के लिए ये तीनों नियमों का पालन करना बहुत जरूरी है। अगर कोई व्यक्ति किसी रोगी व्यक्ति की सेवा करने का जिम्मा उठाता है तो उसे यह तीनों बातें पहले ही अच्छी तरह दिमाग में बैठा लेनी चाहिए। अगर रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति के मन में इन तीनों बातों में से किसी एक की कमी भी होती है तो उसे रोगी व्यक्ति से दूर ही रहना चाहिए।
परिष्कार-परिच्छन्नता (साफ-सफाई)-
रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति के सम्बंध में पहली सबसे जरूरी बात यह ध्यान रखनी जरूरी है कि रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति का शरीर, कपड़े आदि बिल्कुल साफ होने चाहिए। अगर रोगी की सेवा करने वाला व्यक्ति खुद ही साफ नहीं होगा तो वो जिस रोगी की सेवा करेगा उसका रोग कम होने की बजाय और बढ़ जाएगा। आज के विज्ञान में यह बात साबित हो चुकी है कि रोगों के पैदा होने का असली कारण गंदगी ही होती है क्योंकि गंदगी से रोगों के जीवाणुओं की बढ़ोत्तरी होती है और रोगी के शरीर में नये जीवाणुओं को फैलाने में मदद करती है। इसके विपरीत सफाई रखने से रोगों के जीवाणु पनप नहीं पाते और उनमें से ज्यादातर नष्ट हो जाते हैं। वैसे भी कहा जाता है कि सफाई से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। अगर शरीर को साफ रखा जाए तो इससे मन भी शुद्ध और खुश रहते हैं और जब मन खुश होगा तो सारी चिंताए भी दूर होगी।
बाहर के देशों में संक्रामक रोग होने पर पूरी ईमानदारी के साथ साफ-सफाई पर ध्यान दिया जाता है। छोटी माता, चेचक आदि संक्रामक रोगों में शरीर की और शरीर के अन्दर की सफाई को ध्यान में रखकर रोगी और रोगी के बिस्तरों को छूने का नियम आज भी हमारे देश में प्रचलित है।
अगर रोगी के सोने वाले बिस्तरों और उसके शरीर को अच्छी तरह से साफ-सुथरा रखा जाए तो रोगी का कष्ट अपने आप ही कम होने लगता है और वह अपने आपको पहले से स्वस्थ और हल्का महसूस करने लगता है और रोग के कारण रोगी के चेहरे पर आई हुई उदासी दूर होकर मुस्कराहट आ जाती है। जिस तरह से किसी देश में संक्रामक रोग होने पर उस देश की सरकार पूरी कोशिश करती है कि यह इस फैलने वाले रोग को दूसरे देशों में फैलने से रोका जाए उसी तरह शरीर में संक्रामक रोग फैलने पर सफाई का ध्यान रखने से ये रोग एक अंग से दूसरे में नहीं फैल पाते। किसी रोगी को संक्रामक रोग होने पर उसके घर वालों को और आसपास वालों को ये ध्यान रखना चाहिए कि रोगी का रोग किसी और को न लग जाए और ये तभी सम्भव है जब रोगी से सम्बंधित हर व्यक्ति साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखें।
धैर्य (सब्र)-
परिष्कार-परिच्छन्नता (साफ-सफाई) के बाद रोगी की सेवा करने के लिए जरूरी होता है धैर्य (सब्र)। जो व्यक्ति रोगी की सेवा करता है उसको, रोगी के परिवार वालों को, मोहल्ले वालों को और चिकित्सक को सब्र रखना बहुत जरूरी है। रोगी से सम्बंधित किसी व्यक्ति ने भी अपना सब्र का बांध तोड़ दिया तो इससे रोगी को हानि होने की पूरी आशंका होती है। रोगी के मन में वैसे भी अपने रोग को लेकर बहुत से अजीब-अजीब विचार घूमते रहते हैं। उसे लगता रहता है कि पता नहीं वह ठीक होगा या नहीं और ये बात स्वाभाविक भी है। ऐसे मौके पर अगर रोगी सब्र नहीं रखेगा तो उसकी चिकित्सा करने वाले चिकित्सक के लिए भी मुश्किल पैदा हो जाएगी। रोगी के सब्र के टूटने पर अगर रोगी अपने रोग को बढ़ा-चढ़ाकर बोलेगा तो चिकित्सक भी कमजोर पड़ जाएगा और रोगी की औषधि तथा बाकी बातों को भूल जाएगा जिसका दुष्परिणाम रोगी को ही भुगतना पड़ेगा। अगर रोगी ही अपने रोग के बारे में सब्र से काम नहीं लेगा तो रोगी के सेवा करने वाले, परिवार के लोग, आसपास के लोग भी डर के मारे साधारण से रोग को भी भयानक रोग समझ लेते हैं और बार-बार चिकित्सक बदलते रहते हैं। जिसके कारण रोगी ठीक होने की ओर तो नहीं बल्कि मौत की तरफ बढ़ता रहता है। इसलिए रोगी को ये बात समझना बहुत जरूरी है कि डर और कमजोरी कभी भी रोगी को ठीक नहीं होने देती, इसलिए रोगी को सब्र रखना बहुत जरूरी है। इसके अलावा कुछ रोग ऐसे भी होते हैं जिनका आने और जाने का एक समय होता है जैसे टायफायड, ऐसे रोगों की चाहे जितनी भी चिकित्सा करा लो ये अपने समय से पहले नहीं जाते। ऐसे रोगों में रोगी और उससे सम्बंधित हर व्यक्ति को सब्र रखना बहुत जरूरी है। सिर्फ रोगी का सब्र रखना ही जरूरी नहीं है बल्कि उसकी सेवा करने वाले, परिवार वाले, चिकित्सक और आसपास वालों को भी सब्र रखना बहुत जरूरी है। अगर रोगी की सेवा करने वाला ही अपना सब्र खो देगा और रोगी के सामने कमजोर पड़ जाएगा तो रोगी को भी महसूस होगा कि जरूर कोई बात है उसके रोग के सम्बंध में। यही बात रोगी के परिवार वालों और आसपास वालों पर भी लागू होती है। बहुत से मामलों में रोगी से मिलने वाले तथा घर वाले रोगी की हालत देखकर रोने लगते हैं जिसके कारण रोगी हताश हो जाता है और अपने जीने की आस छोड़ देता है।
अगर किसी व्यक्ति को कोई लंबी बीमारी है तो काफी समय से उसकी सेवा करने वाले व्यक्ति पर अपने आप ही विरक्ति पैदा हो जाती है। रोगी की सेवा करने वाले के स्वभाव में, चेहरे पर और बातचीत में अगर रोग का भाव प्रकट हो जाता है तो ये बात रोगी के शरीर में जहर की तरह काम करता है। रोगी के काफी दिनों तक एक ही घर में, एक ही बिस्तर पर, एक ही सेवा करने वाले का साथ पाकर अपने आप ही स्नायु-प्रधान हो जाता है। रोगी चाहने लगता है उसकी सेवा करने वाला व्यक्ति उसके दुख का साथी हो, उसके दुख में सहानुभूति दे। इसी कारण से और दूसरा कोई काम न रहने के कारण, बहुत दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रोगी अपनी सेवा करने वाले का चेहरे और हाव-भाव की ओर खासतौर पर ध्यान रखता है। अगर उसके चेहरे पर जरा सा भी दुख रोगी को दिखता है तो रोगी डर जाता है। रोगी को लगता है कि शायद मेरे रोग को लेकर उसकी सेवा करने वाला चिन्तित है। इसलिए रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को अपने चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट रखनी चाहिए और रोगी के प्रति स्नेह और सहानुभूति दिखाते रहना चाहिए। रोगी की हालत चाहे कैसी भी हो उसकी सेवा करने वाले व्यक्ति को हरदम रोगी को खुश रखने की और खुद भी खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए।
निष्ठा :
निष्ठा भी रोगी की सेवा करने का एक प्रमुख अंग है। जो व्यक्ति रोगी की हर तरह से मदद करके उसके स्वस्थ करने का संकल्प लिए बिना रोगी के घर में प्रवेश करता है तो वह व्यक्ति रोगी व्यक्ति की सेवा करने के योग्य नहीं है। रोगी को स्वस्थ होने में मदद करना ही सेवा करने वाले व्यक्ति का एकमात्र कर्त्तव्य है। ये ज्ञान, विश्वास और हठ-प्रतिज्ञा जिसमें है वही सही तरह से रोगी की सेवा कर सकते हैं। ईमानदारी से रोगी की सेवा करने वाला व्यक्ति जो शान्ति रोगी के मन में पैदा कर सकता है वह किसी और तरह से रोगी के मन में नहीं पहुंच सकती। पूरी तरह निष्ठा और लगन से सेवा करने वाला व्यक्ति जो खुशी और शक्ति रोगी के मन में पहुंचाता है उसी के नतीजे के तौर पर रोगी जल्दी ही ठीक हो जाता है।
रोगी का घर-
रोगी के लिए घर का सबसे अच्छा, हवादार, रोशनी वाला कमरा ही चुनना चाहिए। उसका कमरा बाकी कमरों से अलग ही होना चाहिए। क्योंकि रोगी को स्वस्थ करने के लिए सेवा, सेवा करने वाला और चिकित्सक जितना जरूरी है, उतनी जरूरी रोगी के लिए रोशनी भी है। बहुत से मामलों में रोगी बिना चिकित्सक के ठीक हो जाता है, लेकिन हवा और रोशनी के बिना रोगी का स्वस्थ होना मुश्किल है। धुनष्टंकार (पीठ का धनुष की तरह टेढ़ा हो जाना) तथा आंख के कुछ रोगों में रोगी को अंधेरे में या अंधेरे कमरे में रखा जाता है। लेकिन रोगी को रखने वाला कमरा खुला होना चाहिए जिसमें रोगी अपने आपको कैद न समझे। खुले कमरे में ज्यादातर शुद्ध हवा और रोशनी प्रवेश कर सकती है और विशुद्ध हवा को भी बाहर निकालने में मदद मिलती है। खुला कमरा रोगी के सेवा करने वाले व्यक्ति के लिए भी सही रहता है। घर के जिस कमरे में रोशनी और हवा आती हो वही कमरा रोगी के लिए चुनना चाहिए। रोगी के लिए दक्षिण की तरफ के दरवाजे वाला कमरा सबसे सही रहता है। रोगी के कमरे में फालतू की और रोगी की नापसन्द की चीजें नहीं रखनी चाहिए। रोगी का पलंग कमरे के बीच में ही बिछाना चाहिए। कमरे के दरवाजे पर पर्दा भी लगाकर रखना चाहिए। रोगी के पलंग के पास जरूरी चीजों दवा, पानी, कटोरी आदि रखने के लिए एक छोटी सी टेबल भी रखनी चाहिए। रोगी के कमरे में घड़ी भी होनी चाहिए। कमरे के दरवाजे के पास या किसी सही जगह पर जहां तक रोगी को पहुंचने में आसानी हो वहां पर एक तौलिया, हाथ धोने का साबुन, पानी और बर्तन आदि रखने चाहिए। घरों की खिड़कियों में साफ पर्दे लगने चाहिए, जिसमें से रोशनी और हवा सही तरह से आ सके। रोगी के पलंग के पास में उसकी सेवा करने वाले के लिए एक अलग पलंग बिछा देना चाहिए। सेवा करने वाले व्यक्ति की सुविधा के लिए पलंग के बगल में ही एक अलग से टेबल आदि रखना चाहिए जहां पर उसकी जरूरत की चीजें रखी हो। रोजाना दिन में 2 बार रोगी के कमरे को फिनाइल आदि से अच्छी तरह साफ कर देना चाहिए। रोगी के पलंग के बगल में ही नीचे थूकने के लिए उगालदान या चिकित्सक के कहे अनुसार राख, कोयला या औषधि मिला हुआ पानी भरकर रखना चाहिए।
रोगी के सोने वाला पलंग-
रोगी का पलंग कमरे के बिल्कुल बीचो-बीच में ही होना चाहिए जिससे रोगी को और दूसरे व्यक्तियों को आने जाने में परेशानी न हो। रोगी का पलंग ज्यादा चौड़ा नहीं होना चाहिए, लेकिन जिन रोगियों को रोग में दर्द ज्यादा होता हो या बेचैनी हो उनका पलंग चौड़ा ही होना चाहिए। शांत रोगी के लिए बिस्तर चौकी या खाट के ऊपर और बेचैन रोगी के लिए जमीन पर ही बिस्तर लगा देना चाहिए। चिकित्सक के अनुसार बिस्तर मोटा या पतला लगाना चाहिए। जिन रोगियों को अपने आप ही मल या पेशाब निकल जाता है उनके बिस्तर के नीचे एक प्लास्टिक की या रबड़ की पतली सी पन्नी लगा देनी चाहिए। जरूरत के मुताबिक रोजाना 2-3 बार चादर को बदलकर साफ चादर बिछा देनी चाहिए। बीच-बीच में रोगी के तकिये आदि को धूप में सुखा देना चाहिए। इसलिए लंबी बीमारी के रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति के लिए चादरों के 2 सेट रखने चाहिए।
चीज-वस्तु-
रोगी के कमरे में उसकी जरूरत की चीजों के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए। चिकित्सक के कहे अनुसार सेवा करने वाले की देखरेख में रोगी का बुखार देखने के लिए थर्मामीटर, पथ्य सेवन के लिए कई छोटे-बड़े चम्मच, फीडिंग कप या छोटी कटोरी, पेशाब करने का बर्तन (युरिनल), मल-पात्र (बैड-पैन), थूकने का बर्तन या स्पिटून, गर्म पानी से सिंकाई करने की थैली (हाट-वाटर बैग), पेशाब कराने का यन्त्र (कैथिटर), दस्त कराने की पिचकारी, डुश, आइस बैग (माथे पर ठंडक रखने के लिए बर्फ की थैली), घड़ी आदि जरूरी चीजें रोगी वाले कमरे में सजाकर रखना चाहिए।
सेवा करने वाला-
रोगी की सेवा करने के लिए माता-पिता, भाई-बहन, बंधु आदि नजदीकी रिश्तेदार और रोगी के प्रियजनों में से किसी को भी चुना जा सकता है क्योंकि रोगी को रोग वाली अवस्था में अपनों को हर समय पास देखने से बहुत आराम मिलता है। परन्तु अगर इनमें से कोई भी व्यक्ति रोगी की सेवा करने में असमर्थ होता है तो बाहर के व्यक्ति को भी रोगी की सेवा का भार दिया जा सकता है। बताए गए तीनों गुणों के साथ-साथ रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को स्वस्थ, गुस्से पर काबू करने वाला, नम्र और समझदार भी होना चाहिए। लंबी बीमारी के रोगी के लिए घंटों के हिसाब से 3-4 व्यक्तियों को रखा जा सकता है। रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को हल्की मुस्कराहट चेहरे पर रखकर रोगी के कमरे में आना चाहिए और जितनी देर तक रोगी की सेवा करता रहे तब तक उसे रोगी को खुश ही रखने की कोशिश करनी चाहिए। अगर रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति का चेहरा ही निराश होगा तो इससे रोगी भी हताश हो जाएगा और निराशा रोगी को ठीक करने में एक बहुत ही बड़ी रुकावट है। हैजा, चेचक आदि संक्रामक रोगों में रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को कभी भी खाली पेट नहीं आना चाहिए। रोगी की सेवा करने वाला व्यक्ति रोगी की सेवा करने के समय व्यक्ति जो कपड़े पहने हो उसे रोगी की सेवा करने के बाद रोगी के कमरे के पास ही ऐसी जगह पर उतारकर रख देना चाहिए कि कोई दूसरा व्यक्ति उसे छुए नहीं। संक्रामक रोगों वाले रोगियों की सेवा करने वाले व्यक्ति को जहां तक हो दूसरे लोगों से कम ही मिलना-जुलना चाहिए। रोगी की सेवा करते समय ज्यादा कपड़े न पहनकर ढीले-ढाले कपड़े ही पहनने चाहिए। रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति के बाल और दाढ़ी आदि नहीं बढ़ने चाहिए इस बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है। गांवों आदि में ज्यादा रात को लंबी बीमारी और संक्रामक रोग वाले रोगी की सेवा करने में लोगों को डर लगता है, ऐसे लोगों को रोगी की सेवा करने के लिए कभी नहीं रखना चाहिए। संक्रामक रोग वाले रोगी की सेवा करने से पहले सेवा करने वाले व्यक्ति को चिकित्सक के कहे अनुसार प्रतिषेधक औषधि सेवन करके और संक्रामक रोगों से लड़ने का उपाय चिकित्सक से अच्छी तरह समझकर ही रोगी की सेवा करने का भार उठाना चाहिए। रोगी की सेवा करते समय रोगी के कमरे में पान, सिगरेट, तंबाकू आदि चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि ये चीजें रोगी और रोगी की सेवा करने वाले दोनों के लिए ही हानिकारक है।
रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को ज्यादा भोजन नहीं करना चाहिए, समय से सोना चाहिए और संभोग आदि से दूर रहना चाहिए। खाली पेट रोगी की सेवा करने नहीं जाना चाहिए। प्लेग के रोग में, कमर या हाथ में इग्नेशिया-बीन बांधकर, हैजा रोग में कमर में तांबे का पैसा या अधेला अथवा हाथ में बड़ी हड़ बांधकर और पैर तथा हाथ में सल्फर या गंधक की बुकनी लगाकर, टी.बी., न्युमोनिया, प्लुरिसी, चेचक आदि रोगों में युकैलिप्ट आयल लगाकर ही रोगी की सेवा करनी चाहिए।
रोगी की सेवा करने वाले को रोगी के सम्बंध में एक साधारण ज्ञान रहना जरूरी है। लेकिन हर एक स्थान पर एकदम बंधी गति से रोगी की सेवा नहीं हो सकती और ये ठीक भी नहीं है। लेकिन हर रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह रोगी की सेवा चिकित्सक को बताए अनुसार ही करें। ऐसा भी हो सकता है कि साधारण प्रणाली से एक रोगी की सेवा करने पर उसका रोग और रोगी की तकलीफ कम होने के बजाय और भी ज्यादा बढ़ सकता है।
अक्सर हर तरह के रोग में रोगी के लिए सबसे जरूरी है पूरी तरह से आराम करना। इसलिए हर समय रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को रोगी पर पूरी नज़र रखनी पड़ती है। अपने अच्छे और सहानुभूति वाले व्यवहार से रोगी को पूरी तरह से अपने वश में करना सेवा करने वाले व्यक्ति का बहुत बड़ा गुण है। सहानुभूति और प्रबोध आदि द्वारा रोगी का मन जीतकर उसको चिकित्सक के कहे अनुसार चलना पड़ेगा।
हैजा, चेचक, छोटी माता, डिफ्थीरिया, टायफायड, टी.बी आदि संक्रामक रोग वाले रोगी की सेवा करने से पहले सेवा करने वाले व्यक्ति को चिकित्सक के आदेश अनुसार अपने आपको रोगों से बचाने का प्रबंध और प्रतिषेधक उपाय अच्छी तरह से जानकर ही रोगी की सेवा करने के लिए जाना चाहिए। रोगी की सेवा का भार लेने के लिए साथ-साथ इस बात पर नज़र रखने और ऐसा प्रबंध करने की जरूरत है कि रोगी का रोग कहीं घर में या मोहल्ले में न फैल जाए। रोगी पहले जिस घर में रहता था उस घर को चिकित्सक के कहे अनुसार जीवाणु-रहित करना होगा। रोगी का रोग पकड़ में आने से पहले रोगी के इस्तेमाल में आने वाली चीजें और कपड़ों को चिकित्सक के कहे अनुसार नष्ट कर देना चाहिए। रोगी का मल-मूत्र और थूक आदि को भी चिकित्सक के कहे अनुसार नष्ट कर देना चाहिए। रोगी के द्वारा इस्तेमाल की हुई चीजों को दूसरे लोगों को इस्तेमाल करने के लिए नहीं देना चाहिए। रोगी के कपड़े आदि को साफ किये बिना धोबी को धोने के लिए नहीं देने चाहिए और न ही तालाब आदि के पानी में धोने चाहिए। अगर रोगी के परिवार वाले इन बातों का ध्यान नहीं रखते तो इसी वजह से रोग फैलता है और महामारी पैदा हो जाती है।
रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को एक बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि रोगी के मल-मूत्र थूक आदि पर मक्खी-मच्छर आदि न बैठने पाए क्योंकि रोगों को फैलाने का काम ज्यादातर मक्खी-मच्छर ही करते हैं।
रोगी जब रोग की अवस्था में पहुंचता है तो उसका स्वभाव खुद ब खुद ही चिड़चिड़ा सा हो जाता है और उसे ज्यादा बोलने वाले या कमजोर स्वभाव वाले व्यक्तियों से नफरत होने लगती है इसलिए सबसे जरूरी है कि ऐसे लोगों को रोगी के पास इकट्ठा न होने दें। रोगी को देखने आने वाले व्यक्तियों को कमरे में आने से पहले ये समझा देना चाहिए कि रोगी के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा।
रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को एक कापी बना लेनी चाहिए जिसमें रोगी के रोजाना के बुखार, मल-मूत्र, उल्टी, पथ्य, नाड़ी की गति, सांस लेना और छोड़ना औषधि आदि के लक्षणों को लिख लेना चाहिए।
मल-
रोगी के मलत्याग करने का समय घड़ी में देखकर कापी के अन्दर लिख देना चाहिए। रोगी के मल में अगर कोई बदलाव नज़र आता हो तो उसे भी कापी में लिख देना चाहिए। जो रोगी चलने-फिरने में असमर्थ होते हैं उनके लिए बैड पर ही किसी बर्तन में मल करने का इन्तजाम करा देना चाहिए।
मूत्र (पेशाब)-
रोगी के पेशाब कराने के नियम भी मल के नियम के अनुसार ही चलते है। रोगी को युरिनैल या मिट्टी के बर्तन में नहीं तो चौड़े मुंह वाले बोतल में पेशाब कराने का इंतजाम करा देना चाहिए।
उल्टी-
रोगी को उल्टी कराने के नियम भी मल और मूत्र वाले नियम की तरह ही होते हैं।
नाड़ी-
रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति को चिकित्सक के बताए अनुसार रोजाना के निर्धारित समय के अनुसार समय के अतंराल से नाड़ी की गति, नाड़ी का कंपन, कोमलता, कमजोरी या रुककर चलना या कोई दूसरी परेशानी हो तो उसे ध्यान से कापी में लिख देना चाहिए। घड़ी की सैकेण्ड वाली सुई जब एक स्थान से चलकर दुबारा उसी स्थान पर पहुंचती है जितनी बार नाड़ी का स्पन्दन होता है, नाड़ी की गति मिनट में उतनी ही बार भागनी चाहिए।
सांस लेना और छोड़ना-
न्युमोनिया, प्लुरिसी, थाइसीस, दमा, सांस सम्बंधी रोगों में और दूसरे सारे रोगों में जिनमें सांस लेने और छोड़ने के सम्बंध में हर खबर चिकित्सक को जानना जरूरी होता है, उन सब रोगों में निर्दिष्ट समय के अन्तर से प्रति मिनट जितनी बार सांस चलती है, सांस लेने और छोड़ने में परेशानी होती है या नहीं आदि को कापी में लिख देना चाहिए। रोगी के सीने पर हाथ रखकर या रोगी के सीने पर घड़ी रखकर घड़ी की सेकेण्ड वाली सुई के एक बार पूरी तरह घूम जाने के समय के बीच में कितनी बार रोगी ने सांस ली या छोड़ी इसको आसानी से गिना जा सकता है।
पथ्य-
चिकित्सक के बताए अनुसार अपने हाथ से या अपनी ही देखरेख में किसी काबिल व्यक्ति से पथ्य तैयार कराकर एक निश्चित समय के अन्तर से रोगी को सेवन कराना पड़ता है और कापी में ये लिखना पड़ता है। बहुत से रोगियों को रोग में ऐसी चीजें खाने की इच्छा होती है जो रोग के दौरान वह नहीं खा सकता, इसके लिए वह सेवा करने वाले व्यक्ति से विनती करता है या डराता, धमकाता है। इसलिए सेवा करने वाले व्यक्ति को इस मामले में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। हर बार पथ्य देने के पहले नया पथ्य तैयार करवाना पड़ता है। पथ्य का सामान कभी भी बिना ढके नहीं रखना चाहिए। कमजोर व्यक्तियों को तरल पथ्य लेटे-लेटे ही कप, चम्मच आदि के सहारे से थोड़े-थोड़े समय के बाद देना चाहिए। रोग चाहे जैसा भी हो रोगी को पथ्य एकसाथ न खिलाकर थोड़ी-थोड़ी देर के बाद थोड़ा-थोड़ा करके खिलाना चाहिए।
औषधि-
रोगी को चिकित्सक के कहे अनुसार सही समय पर औषधि देनी चाहिए और उसे देने का समय भी कापी में लिख देना चाहिए। रोगी को नींद में से जगाकर कभी भी औषधि नहीं देनी चाहिए या नाड़ी या सांस लेने और छोड़ने की गति नहीं जांचनी चाहिए।
खास लक्षण आदि-
रोगी के खास लक्षण जैसे- रोगी का तेजी से या धीरे से रोना, चिल्लाना, पसीना, प्यास, नींद, भूख, दिमागी अवस्था, बिस्तर पर पड़े-पड़े शरीर में जख्म होना, शरीर में अलग-अलग जगहों से खून आना, लार गिरना, जलन, सिर में दर्द, हाथ-पैरों की ठंडक, पंखे की हवा खाने की बहुत ज्यादा इच्छा होना, मुंह में जख्म, सांस लेने में परेशानी, बेचैनी जैसे लक्षणों को कापी में लिख देना चाहिए। नाड़ी का अनियमित या कमजोर होना, सांस लेने में परेशानी होना, खून की उल्टी, असामान्य और तेजी से बढ़ती हुई उदासी, आंख, मुंह बैठ जाना, हिमांग आदि खतरनाक लक्षण प्रकट होने पर तुरन्त ही चिकित्सक को खबर कर देनी चाहिए।
डूश देना-
चिकित्सक के कहे अनुसार रोगी को रोजाना सही समय पर डूश देना रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति के लिए बहुत जरूरी है। इसके लिए हल्के गर्म पानी में साबुन या नमक मिला लेना पड़ता है। साधारणत: वृहदंत्र से दूषित मल निकालने के लिए ही डूश दी जाती है। छोटे कृमि (कीड़े) आदि उपसर्गों में ज्यादा मात्रा में लवण या काक्सिया के पानी से डूश दी जाती है।
डूश देने से पहले-
डूश, डूश का नल, नल के मुंह का कैथिटर इन सबको गर्म पानी में अच्छी तरह से धो लेना चाहिए। इसके बाद इसमें जरूरत के मुताबिक साबुन या नमक मिलाकर थोड़ा गर्म पानी लें लें। इसे बिस्तर से थोड़ा ऊपर रखना चाहिए। डूश में पानी भरकर डूश देने से पहले थोड़ा सा पानी निकाल लेना चाहिए। इससे डूश के नल से हवा निकल जाती है।
रोगी के पलंग पर आयल-क्लाथ को बिछाकर रोगी को दाईं करवट सुला देना चाहिए या रोगी बहुत कमजोर न हो तो उसके घुटने मोड़कर पेट के बल सुलाकर डूश का प्रयोग करना चाहिए। डूश के कैथिटर के मुंह पर और मलद्वार में थोड़ा सा ओलिव आयल, नारियल का तेल या घी लगा देना अच्छा रहता है। कैथिटर या नोजल मलद्वार में धीरे-धीरे 1-2 इंच परिमाण में घुसाकर धीरे-धीरे नल की चाबी खोल देनी चाहिए, जिसमें पानी धीरे-धीरे रोगी की आंतों में पहुंच जाए। डूश-कैन का पानी कम होते हुए दिखाई देने से मालूम हो जाता है कि पानी अन्दर जा रहा है। इस समय धीरे-धीरे डूश-कैन ऊंचे उठाना और नल दो से ढाई इंच मलद्वार में घुसा देना चाहिए। रोगी के मलद्वार में पानी जाने के समय रोगी को जोर का पाखाना लग सकता है, ऐसे मौके पर नल को बंद करके थोड़ी देर के लिए पानी के प्रवाह को बंद कर देना चाहिए।
अक्सर 750 मिलीलीटर से लेकर 1 लीटर 250 मिलीलीटर तक पानी रोगी की आंतों में जाने से ही काम हो जाता है। डूश-कैन का सारा पानी समाप्त होने से पहले ही नल को बंद करके पानी का आना बंद कर देना चाहिए। आंतों में पानी जाने के समय दुबारा डूश-कैन में पानी डालना सही नहीं है।
डूश की नली को रोगी के मलद्वार से बाहर निकालने के साथ-साथ ही थोड़े से साफ कपड़े या रूई से सिर्फ मलद्वार को कसकर दबाकर रखना चाहिए।
अगर रोगी को बार-बार डूश दी जाए तो वह कमजोर हो जाता है इसलिए रोगी के विशेष लक्षणों में ही डूश देनी चाहिए। नहीं तो रोगी को हवा करके और माथा, आंख और मुंह को धुलाकर रोगी को शांत करना चाहिए।
पिचकारी और ग्लिसरीन सपोजिटरी प्रयोग-
चिकित्सक के कहे अनुसार रोगी को समय पर पिचकारी में ग्लिसरीन भरकर, डूश देने की तरह रोगी को मलद्वार में पिचकारी देनी पड़ती है। पिचकारी देने के बाद नली को बाहर निकालकर डूश की ही तरह मलद्वार को साफ कपड़े या रूई से कुछ देर तक दबाकर रखना पड़ता है, जिससे गिल्सरीन मलद्वार के मल के साथ अच्छी तरह मिल जाए। ग्लिसरीन सपोजिटरी को भी मलद्वार में घुसाकर कुछ देर तक साथ कपड़े से मलद्वार को दबाकर रखना पड़ता है, जिससे शरीर की सपोजिटरी गलकर मल से अच्छी तरह मिल जाए। इसके बाद मिट्टी के बर्तन में पाखाना फिराना पड़ता है। पिचकारी या सपोजिटरी के बाद मलद्वार का मल निकालने में मदद मिलती है।
कैथिटर से पेशाब कराना-
अगर रोगी का पेशाब आना बंद हो जाता है तो चिकित्सक के कहे अनुसार रोगी को कैथिटर की मदद से पेशाब कराना पड़ता है। कैथिटर 2 तरह का होता है धातु का और रबड़ का। आजकल सूजाक रोग और पथरी के अलावा किसी दूसरे रोग में धातु के कैथिटर का इस्तेमाल नहीं होता। कैथिटर डालने से पहले, कैथिटर, रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति का हाथ और रोगी का मूत्रद्वार साफ और जीवाणु-रहित कर लेना जरूरी है। इसके बाद रोगी को पीठ के बल लिटाकर, उसके दोनों पैर फैलाकर, रोगी की दाईं तरफ बैठकर, बाएं हाथ से उपस्थि ऊपर की ओर उठाकर धीरे-धीरे कैथिटर को रोगी के मूत्रद्वार में डालना पड़ता है। कैथिटर को रोगी के मूत्रद्वार में डालने से पहले विशुद्ध ओलिव आयल या ग्लिसरीन लगाकर बिल्कुल चिकना कर लेना चाहिए। कुछ देर तक कैथिटर को रोगी के मूत्रद्वार में डालने के बाद, उसका शरीर पलंग पर सीधी ऊपर की ओर रखकर धीरे-धीरे कैथिटर को प्रवेश कराना पड़ता है। कैथिटर के नल के मुंह पर एक चौड़े मुंह की बोतल या युरिलन रखना चाहिए। कैथिटर को रोगी के मूत्रद्वार में प्रवेश कराने के समय अगर बीच में रुकावट आती है तो कैथिटर को जोर से नहीं घुसाना चाहिए। इसके लिए कैथिटर को बाहर निकालकर उसमें फिर से तेल या ग्लिसरीन लगाकर पूरी तरह से चिकना करने के बाद धीरे-धीरे से मूत्रद्वार में प्रवेश कराना चाहिए। अगर कैथिटर को जबरदस्ती मूत्रद्वार में प्रवेश कराया जाता है तो इससे पेशाब की नली संकुचित हो जाती है। स्त्रियों को कैथिटर का प्रयोग करना ज्यादा दर्ददायक नहीं है लेकिन उन्हें साफ-सफाई की ओर खास तरह से ध्यान देना जरूरी है।
स्पंज करना-
रोगी के कमरे का दरवाजा, खिड़कियां बंद करके और रोगी को आयल क्लाथ पर सुलाकर, चिकित्सक के कहे अनुसार ठण्डे या गर्म पानी में साफ कपड़ा या तौलिया भिगोंकर रोगी के पूरे शरीर को पोंछ लेना चाहिए। पानी या तो इतना ठण्डा नहीं हो कि रोगी को ठंड लगने लगे या इतना गर्म भी न हो कि रोगी का शरीर जलने लगे। साधारण ठण्डा या गर्म पानी ही स्पंज के लिए इस्तेमाल में लेना चाहिए। रोगी को स्पंज कराने के बाद उसका पूरा शरीर साफ कपड़े से ढककर धीरे-धीरे एक-एक करके सारे दरवाजे और खिड़कियां खोल देने चाहिए।
थर्मामीटर-
किसी भी व्यक्ति के शरीर का तापमान मापने के लिए थर्मामीटर का इस्तेमाल किया जाता है। साधारण स्वस्थ व्यक्ति के शरीर का तापमान 97 डिग्री या 98 डिग्री रहता है। व्यक्ति को बुखार आने पर ये तापमान बढ़ जाता है। सुबह के समय शरीर के तापमान से शाम के समय व्यक्ति के शरीर का तापमान आधे से एक डिग्री ज्यादा रहता है। पूरे दिन काम करते रहने की वजह से शारीरिक ऊर्जा नष्ट होना ही शाम के समय शरीर का तापमान बढ़ने का मुख्य कारण है। तापमान मापने के लिए थर्मामीटर को बगल में ही लगाना सबसे सही रहता है। अगर रोगी के बगल में पसीना आता हो तो पसीने को पोंछकर और थर्मामीटर का पारा 95 डिग्री तक उतारकर थर्मामीटर को बगल में लगाकर हाथ से 4-5 मिनट तक दबाकर रखना चाहिए। साधारणत: थर्मामीटर आधा मिनट या एक मिनट तक लगाने का नियम है लेकिन ये सब पूरे तरह से परीक्षित नहीं रहते। इसलिए आधे मिनट में अक्सर किसी में भी ठीक नहीं उठता है। ताप लिखकर फिर थर्मामीटर का पारा 95 डिग्री तक उतारकर, थर्मामीटर रख देना चाहिए। मुंह के अन्दर का ताप बगल के ताप से एक डिग्री ज्यादा रहता है। हवा-पानी के बदलाव से मुंह के तापमान का बदलाव नहीं होता इसलिए मुंह का तापमान ही ठीक रहता है। लेकिन अगर थर्मामीटर टूटकर उसका पारा मुंह में चला जाए तो रोगी को बहुत ही भयानक अंजाम भुगतना पड़ सकता है। इसलिए थर्मामीटर को बगल में ही लगाना सही है। एक रोगी को थर्मामीटर लगाकर दूसरे को तभी लगाना चाहिए जब उसे रोगों के जीवाणु नष्ट करने वाली औषधि में डुबोया जाए।