परिचय-
होम्योपैथी चिकित्सक जब भी किसी रोगी के जीर्ण-रोगों की चिकित्सा करना शुरु करता है तो वह सबसे पहले यह देखता है कि रोगी की प्रकृति क्या है क्योंकि जिस तरह की रोगी की प्रकृति होगी उसी प्रकृति की औषधि देने से रोगी को लाभ मिलेगा और उसका रोग पूरी तरह से समाप्त होने में मदद मिलेगी। लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि जीर्ण-रोगों को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए सिर्फ व्यक्ति तथा औषधि की प्रकृति को जानना ही काफी है। यहां कहने का अर्थ यह है कि अगर रोगी गर्म प्रकृति का है और उसके रोग के सारे लक्षण नक्स-वोमिका औषधि से मिलते हैं लेकिन नक्स-वोमिका औषधि शीत-प्रकृति की है तो बाकी सारे लक्षणों के मिल जाने पर सिर्फ इसी प्रकृति के भेद के कारण यह औषधि रोगी को किसी तरह का लाभ नहीं देगी। इसके लिए हमें वह औषधि लेनी होगी जिस औषधि की प्रकृति भी गर्म हो।
इसके अलावा रोगी की प्रकृति को एक नज़रिये से और जानना भी जरूरी है। अक्सर बहुत से लोगों को आए दिन कोई न कोई रोग होता रहता है जिन्हें तरुण रोग कहते हैं जैसे खांसी, जुकाम आदि। ऐसे लोगों को हल्की सी ठण्ड लगते ही खांसी, जुकाम घेर लेता है और ठीक होने के बाद उन्हें फिर से ठण्ड लगने लगती है। यह इस कारण से होता है कि ऐसे रोगियों के शरीर में धातुदोष होता है जो तरुण रोग के एक बार ठीक होने के बाद भी बार-बार उभरकर आता है। बार-बार खांसी होना, जुकाम लग जाना, टांसिल बढ़ जाना आदि सारे रोग धातुदोष के कारण पैदा होते हैं। इस धातुदोष के कारण होने वाले रोगों को जीर्णरोग कहा जाता है। अगर किसी रोगी को पूरी तरह से स्वस्थ करना है तो उसके शरीर से सबसे पहले धातुदोष को दूर करना चाहिए। यह धातुदोष 3 प्रकार के होते हैं- सोरा, सिफिलिस और साइकोसिस। महात्मा हैनीमैन के मुताबिक इन धातुदोषों के कारण ही रोगी को गठिया, आम-वात, दमा, ब्लडप्रेशर, जिगर तथा मासिकधर्म के रोग पैदा होते है। रोगों को भी दो रूपों में बांटा गया है- तरुणरोग और जीर्णरोग। तरुण रोग में जब रोगी को कोई रोग घेरता है तो उस समय रोगी की जो प्रकृति होती है उसी प्रकृति वाली औषधि उसे देनी चाहिए। कोई भी रोग जब तरुणरोग में प्रकट होता है तब शीत-प्रकृति का व्यक्ति भी अन्दर से गर्म हो जाता है और उसे शीत-प्रकृति का होते हुए भी गर्म-प्रकृति की औषधि दी जाती है। लेकिन जब जीर्णरोगों की चिकित्सा की जाती है तो यानी कि धातुदोष की चिकित्सा की जाती है जिसके कारण उसको गठिया, दमा, ब्लडप्रेशर जैसे रोग पैदा होते है तो उस समय उसकी जो हमेशा की प्रकृति होती है उसको ध्यान में रखकर औषधि दी जाती है जैसे अगर रोगी शीत-प्रकृति का है तो उसको औषधि भी शीत-प्रकृति की ही दी जाती है।
जिस प्रकार ऊपर बताया गया है कि रोग 2 प्रकार के होते हैं- तरुण और जीर्ण। उसी तरह से औषधियां भी 2 प्रकार की होती है- तरुणरोगों की औषधियां और जीर्णरोगों की औषधियां। तरुणरोगों में सेवन करने वाली औषधियों का असर कुछ समय तक ही रहता है और जीर्णरोगों की औषधियों का असर काफी लंबे समय तक रहता है जैसे ऐकोनाइट, बेलाडोना आदि तरुण रोग की औषधियों में आती है और सल्फर, फॉस्फोरस आदि जीर्णरोगों में आती है। होम्योपैथिक चिकित्सक को तरुणरोगों को पहले तरुणरोगों की औषधियों के द्वारा ही ठीक कर लेना चाहिए। इसके बाद अगर यह मालूम पड़ता है कि तरुणरोग किसी धातुदोष के कारण बार-बार उभरकर आ जाता है तो उस समय जीर्णरोग में प्रयोग की जाने वाली औषधियों सल्फर, फॉस्फोरस आदि औषधियों का सेवन किया जा सकता है। अगर तरुणरोग की शुरुआत में ही जीर्णरोगों की औषधि दे दी जाएगी तो रोगी के रोग के लक्षण बढ़ सकते हैं और रोग और तेज हो सकता है या नहीं भी हो सकता। इसलिए समझदारी इसी में ही है कि तरुणरोगों को पहले तरुणरोगों में दी जाने वाली औषधियों के द्वारा ही कम कर लिया जाए।
तरुणरोगों में कम समय तक असर करने वाली औषधियों का प्रयोग किया जाता है बार-बार किया जाता है। जीर्ण रोग में लंबे समय तक असर करने वाली औषधियों का प्रयोग किया जाता है, काफी-काफी समय के बाद किया जाता है। जीर्णरोग जब तरुणरोग में प्रकट होता है तो उसकी तरुणरोग के अनुरूप ही चिकित्सा करनी चाहिए और जब वह रोग जीर्णरूप में प्रकट हो जाए तो उसे जीर्णरोग समझकर ही चिकित्सा करनी चाहिए।