परिचय-
होम्योपैथिक चिकित्सा में सबसे पहले हमें औषधि और रोगी की प्रकृति को अच्छी तरह से जानने की जरूरत है। औषधि की प्रकृति तो हमेशा एक ही रहती है वह तो किसी भी हालत में बदल नहीं सकती। लेकिन रोगी की प्रकृति के बारे में यह बात निश्चित तौर पर नहीं कही जा सकती जैसे आज के दिनों में रोगी को कोई तरुणरोग जैसे बुखार, खांसी, जुकाम आदि नहीं है तो इस समय जो उसकी प्रकृति होगी वह स्थिर-प्रकृति कहलाती है वह प्रकृति बदलती नहीं, ठीक उसी तरह औषधि की सर्द या गर्म रूप में जो स्थिर-प्रकृति है वो कभी बदलती नहीं। रोगी को अपने स्वस्थ रूप में जब उसे किसी तरह का कोई रोग नहीं है और उसे अपने स्वाभाविक रूप से ठंड ज्यादा लगती है तो व्यक्ति को शीत-प्रकृति का कहा जाता है और अगर उसे गर्मी ज्यादा लगती है तो वह गर्म प्रकृति का कहलाता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों को जब तरुणरोग हो जाए जैसे खांसी, जुकाम, बुखार आदि तो रोगी शीत-प्रकृति का होते हुए भी वह ऊष्ण-प्रकृति का ही कहलाया जाएगा। ऐसी हालत में ऊष्ण-प्रकृति का होने के कारण उसे नक्स-वोमिका औषधि भी नहीं दी जा सकती थी लेकिन तरुणरोग के घेर लेने के कारण वह उस रोग से शीत-प्रकृति का हो जाता है। अगर रोगी ऊष्ण-प्रकृति का होते हुए भी शीत-प्रकृति की तरह व्यवहार कर रहा है, बहुत सारे कपड़े पहन रहा है फिर भी उसे ठंड लग रही है। उस समय हमें यह नहीं देखना है कि रोगी स्वभाव से पहले ऊष्ण-प्रकृति का था तो हम उसे शीत-प्रकृति वाली औषधियां नक्स-वोमिका और फॉस्फोरस आदि क्यों दें। तरुणरोग में हमें रोगी कि चिकित्सा करते समय जो उसकी प्रकृति है वह देखनी है जैसे वह ऊष्ण-प्रकृति का होते हुए भी शीत-प्रकृति की तरह व्यवहार कर रहा है तो उसे शीत-प्रकृति वाली औषधि ही देनी चाहिए।
यह बात तो हुई रोगी के बारे में लेकिन रोगी की तरुणरोग के बिना भी अपनी स्वरूप की प्रकृति होती है। तरुणरोग होने की हालत में तो प्रकृति बदल सकती है। गर्म प्रकृति का व्यक्ति तरुणरोग में सर्द-प्रकृति का व्यवहार कर सकता है। सर्द-प्रकृति का व्यक्ति तरुणरोग की हालत मे गर्म प्रकृति का व्यवहार कर सकता है। लेकिन जब कोई तरुणरोग न हो तब व्यक्ति की जो प्रकृति होती है वह बदलती नहीं। स्वाभाविक रूप से जो व्यक्ति गर्म-प्रकृति का होता है वह गर्म का ही रहेगा और सर्द-प्रकृति का व्यक्ति सर्द-प्रकृति का ही रहेगा।