हमारे देश की संस्कृति और और प्रत्येक धर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से मौन व्रत की विशेष भूमिका होती है। मौन धारण करने से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है।
अधिक बोलने से शारीरिक ऊर्जा, समय तथा शारीरिक शक्ति नष्ट होती है। मौन रहना अप्रत्यक्ष रूप से शरीर के लिए शक्तिवर्द्धक होने की प्रक्रिया है।
मौन धारण करने से व्यक्ति बेकार की झूठी बातों से बचा रहता है। मौन धारण करने से काम, क्रोध और लोभ पर विजय प्राप्त होती है। इससे व्यक्ति का जीवन अनुशासित हो जाता है। इससे व्यक्ति की वाणी संतुलित हो जाती है तथा उसका आध्यात्मिक विकास होता है। मौन रहने से मानसिक रोगों से छुटकारा मिल सकता है। क्रोध पर विजय प्राप्त करने के लिए मौन धारण करना चाहिए। इससे व्यक्ति का क्रोध शांत हो जाता है।
मौन रहने से व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता में विकास होता है। इसलिए व्यक्ति को आवश्यकता पड़ने पर ही तथा कम से कम संतुलित और मधुर भाषा में बोलना चाहिए। किसी भी प्रकार के व्यर्थ के वाद-विवाद और तर्क-वितर्क में नहीं पड़ना चाहिए। व्यक्ति की वाणी का संयम सबसे बड़ा संयम माना जाता है जो व्यक्ति मौन रहता है, कम बोलता है वही कुछ कर गुजरता है।
व्यक्ति को केवल रचनात्मक वाद-विवादों में भाग लेना चाहिए जिसमें कि उसे कुछ नया ज्ञान मिल सके। यदि वाद-विवाद बिल्कुल अर्थहीन और केवल शक्ति और समय को नष्ट करने वाला हो तो उसमें हिस्सा नहीं लेना चाहिए बल्कि बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप उसे सुनते रहना चाहिए तथा अवसर मिलते ही वहां से निकल लेना चाहिए।
एक निश्चित समय तय करके प्रतिदिन कुछ समय तक मौन व्रत अवश्य रखना चाहिए। सप्ताह में एक बार कुछ घंटों का मौन रखने से अधिक शक्ति संचय हो सकती है तथा 24 घंटों तक मौन रखने से शरीर को अधिक शक्ति प्राप्त होती है।
मौन व्रत के समय कागज पर लिखकर अपनी बातें, जरूरत पड़ने पर ही लिखनी चाहिए। मौन व्रत के समय टेलीविजन और रेडियो नहीं देखना चाहिए।