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प्रकृति और मनुष्य

 यदि मनुष्य प्राकृतिक नियमों के अनुसार अपना जीवन यापन करता है तो उसे किसी भी प्रकार के रोग नहीं हो सकते हैं। यह भी सत्य है कि स्वास्थ्य इस संसार में सबसे बड़ा धन होता है। इसे किसी भी कीमत पर कहीं से भी खरीदा नहीं जा सकता है। अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा धर्म होता है। यदि हम अपने शरीर को स्वस्थ रखते हैं तो हमें सच्चे आनन्द की प्राप्ति होती है।

आहार :

          हमें अपनी रुचि, पाचन क्षमता और आर्थिक स्थिति के अनुसार भोजन करना चाहिए। हमें अपने भोजन में सभी प्रकार के तत्वों को शामिल करना चाहिए। भोजन को पकाने में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। हरी सब्जियों को पहले धोकर काटना चाहिए। यदि काटने के बाद हम हरी सब्जियों को धोते हैं तो उसमें पाये जाने वाले विटामिन तत्व भी पानी के साथ घुलकर बाहर निकल जाते हैं। इसी प्रकार दाल-चावल आदि को केवल साफ कर लेना चाहिए, धोना नहीं चाहिए। सब्जियों में मसालों का उपयोग कम से कम मात्रा में करना चाहिए। अधिक चटपटे मिर्च-मसाले और घी-तेल स्वास्थ्य के लिए अधिक हानिकारक होते हैं। गाय का दूध स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वोत्तम होता है। बकरी का दूध भी लाभकारी होता है। नवजात शिशुओं के लिए मां का दूध ही सर्वोत्तम आहार होता है। हमें भोजन हमेशा ताजा और गर्म ही सेवन करना चाहिए।

जल और स्नान :

          स्नान करना स्वास्थ्य के लिए बहुत अधिक लाभकारी होता है। हमें प्रतिदिन साफ और ताजे पानी से स्नान करना चाहिए। स्नान करने के बाद स्वच्छ और मुलायम तौलिये से शरीर को रगड़कर साफ करना चाहिए।

वायु :

          हमारे लिए सांस लेना बहुत ही आवश्यक होता है। श्वांस के जरिये विभिन्न प्रकार के कीटाणु हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए स्वच्छ और साफ स्थान में ही निवास करना चाहिए। हमारे घर के कमरे खुले, हवादार और रोशनीयुक्त होने चाहिए। रात में सोते समय रोशनदान और खिड़कियां खुली होनी चाहिए। मकान निर्माण के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मकान में सूर्य का प्रकाश आसानी से आ सके। रात्रि के समय वृक्षों के नीचे बैठना और सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

व्यायाम और टहलना :

          स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यायाम करना और टहलना हमारे स्वास्थ्य के बहुत अधिक लाभकारी होता है। प्रतिदिन सुबह के समय व्यायाम करने और टहलने से हमारा शरीर चुस्त-दुरुस्त और स्वस्थ रहता है। व्यायाम करने से पहले हमें तेल से शरीर की मालिश कर लेनी चाहिए। इससे शरीर को बहुत अधिक लाभ मिलता है।

निद्रा (नींद) :

          अच्छी नींद लेना भी स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक होता है। विद्वानों के अनुसार 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को प्रतिदिन 6 से 7 घंटे, बडे़ लड़के और लड़कियों को 8 से 9 घंटे की नींद और छोटे बच्चों को 10 से 12 घंटे की नींद प्रतिदिन लेनी चाहिए। प्रकृति के नियमानुसार ब्रह्यमुहूर्त में (सुबह के 4 बजे से सूर्योदय होने तक के बीच का समय) प्रतिदिन दक्षिणायन वायु चलती है। यह वायु सभी प्रकार के रोगों को नष्ट करने वाली होती है तथा स्वास्थ्य को उत्तम बनाने वाली होती है।

वस्त्र :

          हमारे शरीर के कपडे़ इस प्रकार के होने चाहिए जिससे हम अपने शरीर को सर्दी और गर्मी से बचा सकें। हमारे शरीर के कपडे़ साफ-सुथरे और मौसम के अनुसार होने चाहिए। एक हफ्ते में कम से कम दो बार कपड़े अवश्य ही बदलने चाहिए। घर में बिछाये जाने वाले बिस्तर भी साफ और सुथरे होने चाहिए। हमारे शरीर के लिए गीले कपडे़ और कसे हुए कपडे़ पहनना हानिकारक होता है।

मल त्याग (शौच क्रिया) :

          हमें प्रतिदिन मल त्याग करना चाहिए। मल और मूत्र के वेग को कभी भी रोकना नहीं चाहिए। हमें प्रतिदिन सुबह के समय अपने दांतों को अच्छी तरह से साफ करना चाहिए। मंजन करते समय जीभ, गले आदि को अच्छे प्रकार से साफ करना चाहिए। नाक को प्रतिदिन साफ करने से उसमे श्लेष्मा नहीं बनता है।

आचार-विचार और आदतें :

          अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए हमें अच्छी आदतों को अपनाना चाहिए। मन में हमेशा अच्छे विचार रखने चाहिए तथा अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। गंदे खेल, ताश, जुआ, ब्लू फिल्में, गंदे उपन्यास आदि से हमें अपने आप को दूर रखना चाहिए तथा गंदी आदतों वाले लोगों के साथ नहीं रहना चाहिए। विभिन्न प्रकार के नशा करना जैसे शराब, बीड़ी-सिगरेट, भांग, चाय, काफी, अफीम आदि पदार्थों का सेवन करने से बच्चों में हस्तमैथुन और बड़े लोगों में अति सेक्स क्रिया उत्तेजित होती है। इससे हमारा स्वास्थ्य अधिक बिगड़ जाता है। इसलिए हमें इस प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रहना चाहिए। यदि हमारे अंदर कोई भी गंदी आदत हो तो शीघ्र ही हमें उसका परित्याग कर देना चाहिए। 

रोगों के कारण, लक्षण और प्रकार :

  1. आयुर्वेद ऐसा शास्त्र है जिसमें मनुष्य के शरीर को निरोगी बनाये रखने के लिए रोगों के बारे में जानकारी दी जाती है।
  2. हमारे शरीर का निरोगी होना इस बात का सूचक होता है कि शरीर के सभी संस्थान या अवयव अच्छी तरह से प्राकृतिक तरीके से अपना कार्य कर रहे हैं। इन संस्थानों के कार्यों में अड़चनों और बाधाओं का होना `रोग` कहलाता है। रोगों की जानकारी के लिए हमें शरीर रचना का ज्ञान होना चाहिए जब तक हम शरीर की रचना अच्छी प्रकार से नहीं जानेंगे तब तक हम रोगों को नहीं समझ सकते हैं।

रोगों को उनके लक्षण, कारण और उनकी दशाओं के आधार कई संस्थानों में बांटा गया है जो निम्न हैं- 

  1. आर्गनिक डिजीज वह रोग जिससे हमारे शरीर के किसी अवयव की संरचना में अंतर आ गया हो।  
  2. फंक्शनल डिजीज : ऐसा रोग जिसके कारण शरीर के किसी अवयव के कार्य में अंतर हो, परन्तु उसकी बनावट में किसी प्रकार का कोई भी भेद न हो।
  3. एक्सूट डिजीज : वह रोग जिसके लक्षण अधिक तीव्र (तेज) और भयानक हो। इस प्रकार के रोग हमारे शरीर में थोड़े ही समय तक रहते हैं।
  4. क्रोनिक डिजीज :  क्रोनिक डिजीज वे पुराने रोग होते हैं जिनके लक्षण अधिक तीव्र और भयानक नहीं होते है। इस प्रकार के रोग अधिक समय तक स्थिर रहते हैं।
  5. लोकल डिजीज : लोकल डिजीज वह रोग कहलाता है तो हमारे शरीर के किसी एक अंग अथवा उसके किसी एक अवयव में स्थित हो।
  6. जनरल डिजीज : ऐसे रोग जिनका प्रभाव हमारे शरीर के सभी अंगों पर पड़ता है। वे रोग जनरल डिजीज के अर्न्तगत आते हैं।
  7. पीरियाडिकल डिजीज : ऐसे रोग जिनकी एक निश्चित अवधि होती है तथा दो अवधियों के बीच एक निश्चित समय का अंतर होता है। वे पीरियाडिकल डिजीज के अन्तर्गत आते हैं।
  8. कंटेजियस डिजीज : कंटेजियस डिजीज उन रोगों को कहते हैं जो संक्रमण द्वारा एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को हो जाते हैं। एलौपैथी में इन रोगों को-इन्फैक्शन्स डिजीज के नाम से भी जाना जाता है।
  9. हेरिडिटरी डिजीज : ये रोग वंशानुगत होते हैं जो माता-पिता के द्वारा उनके बच्चों में पहुंच जाते हैं। इस प्रकार के रोग कभी-कभी एक-एक पीढ़ी को छोड़कर, दूसरी पीढ़ी में होते हैं।
  10. इण्डेमिक डिजीज : वे रोग जो किसी विशेष देश अथवा किसी स्थान में पाये जाते हैं। इण्डेमिक डिजीज के अन्तर्गत आते हैं।
  11. एपेडेमिक डिजीज : ऐसे रोग जो एक ही समय में किसी स्थान के बहुत से मनुष्यों को होते हैं और हवा की तरह फैलते हैं जैसे महामारी आदि।

रोगों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-

  1. नया रोग।
  2. पुराना रोग।
  3. जायुज (औषध-जनित) रोग।

नया रोग :

          ऐसे रोग आहार सम्बंधी दोषों, हवा लगने, मौसम बदलने, अधिक परिश्रम करने, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, आदि दोषों के कारण होते हैं। इस प्रकार के रोग साधारण परहेज करने से ही दूर हो जाते हैं। दूसरे नये रोग वे होते हैं जो शरीर में किसी प्रकार के विशेष विष अथवा बीज के प्रवेश हो जाने से हो जाते हैं जैसे चेचक, हैजा, प्लेग आदि संक्रामक रोग। इन रोगों की प्रथमावस्था में विशेष कष्ट नहीं होता है, परन्तु दूसरी अवस्था में यह बढ़ना शुरू हो जाती है तथा कभी-कभी यह बहुत अधिक तेज होता है। रोग जितना अधिक बढ़ना होता है इसी अवस्था में बढ़ जाता है। इसके बाद रोग की अंतिम अवस्था तृतीय अवस्था होती है।

पुराना रोग :

          पुराने रोगों से पीड़ित व्यक्ति जीवन भर उस रोग से परेशान रहता है। ये रोग वंशानुगत होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं। प्रमेह अथवा सूजाक आदि के कारण भयंकर रोग होते हैं। रोग का उत्पन्न होना इस रोग की प्रथम अवस्था होती है। दूसरी अवस्था में रोग बढ़ता जाता है। इससे रोगी को पूरे जीवन में लाभ नहीं मिल सकता है जब तक कि वह उचित परहेज और चिकित्सा नहीं करता है।

औषधिजनित रोग :

            औषधिजनित रोग तीव्र औषधियों का सेवन करने से, शराब, भांग, अफीम आदि नशीले पदार्थों का सेवन करने से होते हैं। इन रोगों में सोचने-समझने की शक्ति घट जाती है, यकृत बढ़ जाता है और रोग पुराना बन जाता है। 

रोग का कारण :

          जब कोई व्यक्ति किसी रोग से ग्रस्त होता है तो उस रोग के होने का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। बिना किसी कारण के शरीर में रोग हो ही नहीं सकते हैं। इसीलिए रोगों का इलाज करने से पहले उनके कारणों को नष्ट करते हैं।

हमारे शरीर में रोगों के होने के दो प्रमुख कारण होते हैं-

  1. प्राडिस्पोजिंग।
  2. रिमोट काजेज।

          ये वे कारण होते हैं जो हमारे शरीर को रोग ग्रहण करने के लिए तैयार करते हैं। इस प्रकार के कारण रोग उत्पन्न होने के समय कुछ समय पहले रोगी के शरीर के किसी अवयव के कार्य अथवा रचना में इस प्रकार का परिवर्तन कर देते हैं कि वह अंग किसी रोग से ग्रस्त हो जाता है।

एक्साइटिंग काजेज :

          यह हमारे शरीर में रोग को ग्रहण करने के लिए उत्तेजित करते हैं अर्थात इससे हमारा किसी रोगों से ग्रस्त हो जाता है।

स्थान के आधार पर हमारे शरीर में रोगों के होने के तीन प्रमुख कारण होते हैं-

  1. आंतरिक कारण।
  2. बाहरीय कारण।
  3. विशेष।

आंतरिक कारण : रोगों के होने का आंतरिक कारण व्यक्ति के प्रकृति में उपस्थित होता है। यह प्रमुख रूप से 6 बातों पर निर्भर करता है। जैसे अवस्था, लिंग (स्त्री या पुरुष), शरीरिक रचना, प्रकृति, वंशानुगत तथा उद्यम।

बाहरीय कारण : हमारे शरीर में रोगों का कारण बाहरी तत्वों पर निर्भर करता है। यह कारण भी 6 प्रकार के होते हैं, जैसे वायुमंडल, भोजन, सफाई, भाषा, वस्त्र, देश तथा, प्रकृति।

विशेष कारण : रोग होने के विशेष कारणों में कई प्रकार के कारण होते हैं-

  1. विष : जैसे- संखियां, सीसा, तांबा, फास्फोरस आदि।
  2. अम्ल जैसे- शोरा और गन्धक आदि।
  3. विषैलों जन्तुओं का काटना अथवा डंक मारना जैसे सर्प, बिच्छू अथवा पागल कुत्ते के काटने पर।
  4. विभिन्न रोगों को उत्पन्न करने वाले कीटाणु जो प्राय: शरीर में अनेक प्रकार से प्रवेश करके रोगों के उत्पन्न होने का कारण होते हैं जैसे- विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया।
  5. पेट के कीड़े आदि।

रोग के लक्षण :

सभी रोगों के लक्षण अलग-अलग होते हैं। ये विभिन्न प्रकार के होते हैं-

  1. प्राकृतिक लक्षण :  प्राकृतिक लक्षण वे होते हैं जिनका सम्बंध हमारे पूरे शरीर से होता है तथा जो हमारे पूरे शरीर में होता है जैसे बुखार होने पर हमारे शरीर का गर्म हो जाना।
  2. स्थानीय लक्षण : रोगों के स्थानीय लक्षण वे होते हैं जिनका सम्बंध शरीर के किसी विशेष स्थान से होता है जैसे किसी अवयव का प्रदाह आदि।
  3. आब्जेक्टिव लक्षण : आब्जेक्टिव लक्षणों को चिकित्सक आसानी से पहचान सकता है जैसे- सूजन और लालिमा।
  4. सब्जेक्टिव लक्षण : ये लक्षण केवल रोगी को ही प्रतीत हो सकते हैं।
  5. डायरेक्ट आर आइडियोपैथिक लक्षण: ये लक्षण विशेषकर रोगी के पीड़ित अंगों पर पाये जाते हैं जैसे- प्रदाहयुक्त स्थान पर जलन और पीड़ा का होना आदि।
  6. इन्डायरेक्ट या सिम्पैथेटिक लक्षण :  ये लक्षण रोग से पीड़ित अंग से दूर शरीर के किसी दूसरे हिस्से में पाये जाते हैं। जैसे- वृक्क पीड़ा।
  7. प्रीमानिटरी लक्षण:  प्रीमानिटरी लक्षण उन लक्षणों को कहते हैं जो किसी रोग के प्रकट होने से उसका लक्षण प्रकट करते हैं जैसे वृद्धावस्था में सिर का चकराना आदि।
  8. पैथानोमोनिक लक्षण : किसी रोग के निश्चित लक्षण पैथानोमोनिक लक्षण के अन्तर्गत आते हैं।


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