औषधि क्या है?-
औषधि वह होती है जो देखभाल कर और सही तरीके से खाई जाए तो वह एक मरते हुए इंसान को नया जीवन दे सकती है और अगर लापरवाही से खाई जाए तो अच्छे-खासे इंसान के स्वास्थ्य को खराब कर सकती है जैसे संखिया, क्रिनायन, अफीम आदि।
क्या है होम्योपैथी-
किसी व्यक्ति के स्वस्थ अवस्था में कोई औषधि खाने पर शरीर में जो सारे लक्षण प्रकट होने लगते हैं वैसे ही लक्षण वाली बीमारी उस औषधि की थोड़ी मात्रा के प्रयोग से आराम पड़ जाने का नाम होम्योपैथी है जैसे अगर किसी स्वस्थ व्यक्ति को थोड़ी सी संखिया (आर्सेनिक) औषधि सेवन करा दी जाए तो उस व्यक्ति में हैजा रोग की तरह दस्त, उल्टी, बार-बार प्यास लगना जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं। लेकिन अगर किसी हैजा के रोगी को दस्त, उल्टी, बार-बार प्यास लगना जैसे लक्षण प्रकट होते हो तो इस संखिया (आर्सेनिक) औषधि की थोड़ी सी मात्रा लेने से वह लक्षण दूर हो जाते हैं। इसी तरह एक स्वस्थ व्यक्ति अगर थोड़ी सी क्रिनाइन औषधि खा लेता है तो उसे मलेरिया के बुखार के लक्षण प्रकट हो जाते हैं और इन्हीं लक्षणों वाले रोगी को अगर क्रिनाइन औषधि की थोड़ी सी मात्रा खिला दी जाए तो रोगी ठीक हो जाता है। ऐसे ही अफीम भी है जैसे कोई स्वस्थ व्यक्ति अगर ज्यादा अफीम खा लेता है तो उसे पेट में कब्ज हो जाती है, रात को नींद नहीं आती, नशा सा चढ़ा रहता है और यही थोड़ी सी अफीम ऐसे लक्षणों वाले रोगी को खिलाने से लाभ होता है।
होम्योपैथी की खोज-
कम से कम 2000 साल पहले समे-समे (सिमिलिया सिमिलिबुस) होम्योपैथी मत का यह मन्त्र सिर्फ पहले आर्यावर्त और पुराने ग्रीस में जपा गया था। इसके लगभग 100 साल बाद हैनिमैन नाम के एक महात्मा ने बहुत मेहनत करके होम्योपैथी की साधना की और इसे संसार में फैलाया। इससे चिकित्सा संसार में चिकित्सा की एक नई लहर उठी और हैनिमैन का नाम भी अमर हो गया।
हैनीमैन-
चिकित्सा जगत में क्रान्ति लाने वाले हैनिमैन जी का जन्म 20 अप्रैल 1755 ईस्वी के दिन जर्मनी के सैक्सन राज्य के मांइसेन नगर में मिट्टी के बर्तन रंगने वाले एक गरीब घर में हुआ था। इनको अपनी लिखाई-पढ़ाई में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। हैनिमैन जी ग्रीक, हिब्रु, अरबी, लैटिन, इटालियन, स्पेनिश, सीरियन, फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी भाषा और चिकित्सा-शास्त्र तथा रसायन-विद्या के पूरे ज्ञाता थे। असल बात यह थी उनमें बहुत से विषयों की विद्या और सर्वोमुखी प्रतिभा का सुन्दर समावेश हो गया था जिससे लोग उन्हें `अलौकिक दो सर का जीव´ (डोफेल्कोफ डोयूब्ले हेडेड प्रोडिगी ऑफ इरूडिशन) कहते थे। हैनिमैन जी ने सिर्फ 24 साल की उम्र में ही एम. डी. की डिग्री प्राप्त कर ली थी। हैनीमैन सिर्फ 12 साल की उम्र में ही अपने साथियों को ग्रीक भाषा पढ़ाने लग गए थे।
बचपन में हैनीमैन जी की प्रतिभा देखकर उनके सारे शिक्षक बहुत ज्यादा प्रभावित थे। बचपन में हैनीमैन से प्रभावित होने वालों में सबसे ज्यादा हार्बर ग्रेथ पर्नर का नाम आता है। अच्छे संस्कारों के कारण ही बचपन से ही हैनीमैन का झुकाव चिकित्सा की तरफ हो गया था। वे सारे मनुष्यों की सेवा करके उन्हे निरोगी बनाना चाहते थे। चिकित्सक हार्बर ग्रेथ पर्नर ने लिपजिग नगर के मुख्य चिकित्सकों के नाम हैनीमैन को कई सिफारिशी पत्र दिए जिनमें उनकी कुशाग्रता का खासतौर पर उल्लेख करते हुए उनकी सहायता करने की सिफारिश की गई थी।
तत्कालीन चिकित्सा-प्रणाली-
आज से लगभग 2500 साल पहले जब रोमन सभ्यता का विस्तार शुरू हुआ उस समय यूरोप के सारे देश अज्ञानता के अंधेरे में डूबे हुए थे। उस समय अगर कोई भी व्यक्ति रोगी होता था तो उसे झाड़-फूंक और जादू-टोना से ठीक करने की कोशिश की जाती थी। अगर इनसे रोगी ठीक नहीं होता था तो उसे भगवान के भरोसे ही छोड़ दिया जाता था। जिसके कारण रोगी कुछ ही दिनों में परलोक सिधार जाता था।
इसी अज्ञानतापूर्ण माहौल में हिपोक्रेटिस का जन्म हुआ जिन्हें आधुनिक एलोपैथी का जन्मदाता कहा जाता है। महात्मा हैनिमैन जी ने अपनी रचनाओं में जिस पुरानी चिकित्सा-पद्धति का हवाला दिया है उसका अभिप्राय एलोपैथिक चिकित्सा-प्रणाली से ही है। हिपोक्रेटिस की यह ऐलोपैथिक चिकित्सा-प्रणाली असदृश विधान पर आधारित थी। इसके अंतर्गत रोगी का रोग पूरी तरह से ठीक न होकर सिर्फ ऊपर-ऊपर से दब जाता था। यह सब उस समय के अंधकारमय जीवन जी रहे यूरोप वासियों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। धीरे-धीरे करके यह चिकित्सा-प्रणाली बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हो गई। इस चिकित्सा-प्रणाली में उपचार और शल्य-चिकित्सा दोनों ही शामिल थे।
ऐलोपैथी के जन्मदाता हिपोक्रेटिस तथा उनके बाद होने वाले चिकित्सक, रोगियों की चिकित्सा के बारे मे जो-जो प्रयोग करने लगे तथा इस सम्बंध में उन्होने जिन-जिन औषधियों का प्रयोग किया उनके गुणों और प्रयोगों के बारे में लिखित जानकारी का संग्रह होने लगा। इसी तरह के संग्रह ने शुरुआत में मेटेरिया-मेडिका का रूप लिया। काष्ठ-औषधियों के बारे में उन्हें बहुत कुछ जानकारी उन यूनानी पुस्तकों से मिली जिनका कि वे प्रयोग करते थे।
यूनानी चिकित्सा-प्रणाली बहुत कुछ भारत के चरक-ग्रंथों पर आधारित थी और कालान्तर में एलोपैथिक-सिद्धांतों के मुताबिक ही उनका प्रयोग होने लगा। बहुत से चिकित्सकों ने उन ग्रंथों में लिखी औषधियों का प्रयोग रोगी व्यक्तियों पर किया और इसी प्रयोग के दौरान उन औषधियों के जो भी गुण उनकी समझ में आए वह उन्होंने लिख लिए।
कुछ चिकित्सकों ने इन औषधियों का प्रयोग पहले चूहों, बिल्लियों तथा दूसरे जीव-जंतुओं पर किए तथा प्रयोग के दौरान पैदा होने वाले लक्षणों को लिख लिया। लेकिन वह भी औषधियों के असली तथा मानसिक लक्षणों तथा जीवनी-शक्ति पर प्रयोगों के बारे में हमेशा अंजान रहे। मरे हुए लोगों की चीड़-फाड़, मानव शरीर यंत्र और उनकी क्रियाओं के बारे में उन्होंने जरूर ही चिकित्सा संसार को बहुत अच्छा ज्ञान दिया है। लेकिन साथ ही इस चीड़-फाड़ के दौरान ना दिखने वाले कीटाणुओं पर ही उन्होंने अपनी सूक्ष्म चिकित्सा-प्रणाली आधारित कर ली और यह मानने लगे कि भौतिक कीटाणुओं के कारण ही हर तरह के रोग पैदा होते हैं। जैसे ही इस सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त हुई उस समय के सारे एलौपैथि चिकित्सक इन्ही कीटाणुओं का अध्ययन करने में लग गए और इसी के साथ ही ऐलोपैथी सारे संसार में फैलती गई।
हैनीमैन ने अपनी पुस्तक में इस बात पर बहुत जोर दिया है कि उस दौर में भी आज ही की तरह एलोपैथिक औषधियों की मात्रा इतनी ज्यादा होती थी कि रोगी व्यक्ति के जीवन पर उसका बुरा असर पड़ता था। इन औषधियों का असर इतना था कि रोगी का असली रोग कुछ समय के लिए बिल्कुल दब जाता था और उसे ऐसा लगता था कि वह अब बिल्कुल स्वस्थ हो गया है लेकिन कुछ समय के बाद वही रोग दुबारा अपनी दुगनी शक्ति के साथ लौटकर आता था और रोगी को अपनी जान बचाना मुश्किल हो जाता था। ऐसा पहले भी होता था और आज भी हो रहा है।
उस दौर में चिकित्सा के सम्बंध में चिकित्सकों को बहुत सी बातों की जानकारी नहीं थी। उन्हें यह नहीं पता था कि व्यक्ति के पूरी तरह ठीक होने की आखिरी क्रिया कैसी होती है। वह तो सिर्फ इतना ही जानते थे कि अगर रोगी को नींद नहीं आने का रोग है तो उसे थोड़ी सी अफीम खिलाने से नींद आ जाती है। इसी तरह किसी रोगी को बहुत तेज दर्द होने पर उसका दर्द कम करने के लिए नशीली औषधियों का सेवन कराकर उसे बेहोशी की अवस्था में पहुंचा दिया जाता था।
वैसे तो हैनिमैन जी ने खुद को सदृश-विधान की चिकित्सा का सबसे पहले आविष्कारक कहा है लेकिन भारतवासी उनके इस कथन को सही नहीं मानते क्योंकि भारत के सारे पुराने आयुर्वेदिक ग्रंथों में सम: समे समयति तथा विषस्त विषमौषम सूत्र लिखा हुआ है। यही नहीं आयुर्वेद के ग्रंथों में शल्य-चिकित्सा के बारे में भी लिखा हुआ है।
यह बात एकदम सच है कि यूरोप में सदृश चिकित्सा-विधान की स्थापना महात्मा हैनीमैन ने ही की थी। इसी कारण से उस समय के एलोपैथिक के चिकित्सकों ने हैनीमैन की बहुत ही आलोचना की थी। एक बात और भी हो सकती है कि शायद हैनीमैन को खुद ही न पता हो भारत में यह चिकित्सा-प्रणाली पहले से ही थी।
हैनीमैन जी का यश पूरे संसार में फैलने पर भी वह अपनी सफलता से पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं थे। उनकी चिकित्सा सम्बंधी जिज्ञासा शांत नहीं हो पा रही थी जिसके कारण वे मन ही मन दुखी रहने लगे थे। लेकिन इसके बावजूद भी वे अपनी चिकित्सा की खोज में पूरे उत्साह के साथ जुटे रहें।
कुछ समय के बाद हैनीमैन का नाम टैनसिलवेनिया के गर्वनर के कानों तक जा पहुंची। टैनसिलवेनिया की लाइब्रेरी बहुत बड़ी थी और वहां के गर्वनर उसके लिए एक बहुत ही योग्य अध्यक्ष की तलाश में थे। जब हैनीमैन को इस पद की पेशकश की गई तो उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया यह सोचकर कि इस पद को सम्भालने के साथ ही वे पुस्तकालयों के ग्रंथों का अध्ययन करके शायद अपनी जिज्ञासाओं को भी शांत कर सकें।
इस लाइब्रेरी में दुनिया भर के सारे श्रेष्ठ ग्रन्थ थे। हैनीमैन जी को जिन भाषाओं का ज्ञान था उन्होंने उन सभी भाषाओं के ग्रंथों को पढ़ डाला। वहां के चिकित्सा शास्त्र के सारे ग्रंथों को पढ़ने के बाद भी उनकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई। लेकिन वे यह बात अच्छी तरह समझ चुके थे कि उस समय की चिकित्सा-प्रणाली बिल्कुल सारहीन और खोखली थी। लेकिन उस समय वे इस स्थिति में नहीं थे कि खुलकर उस चिकित्सा-प्रणाली की आलोचना कर सकते। इसलिए उन्होंने पहले एम.डी. की डिग्री हासिल की। इस डिग्री को प्राप्त करने के बाद उन्होंने डॉक्टरी प्रेक्टिस शुरू कर दी। 1782 में वो गोमर्न नगर के सरकारी चिकित्सक के पद पर नियुक्त हुए। इसके साथ ही उनके अध्ययन का क्रम बराबर चलता रहा। चिकित्सा-कार्य के साथ वे रसायन-शास्त्र, खनिज-विद्या आदि का अध्ययन करते रहें। गोमर्न में अपने पद को सम्भालते हुए उन्होंने रसायन-शास्त्र की कई पुस्तकों का अनुवाद किया। उनके इन अनुवादों की विद्वानों ने बहुत ज्यादा सराहना की।
हैनीमैन जी की चिकित्सा-विज्ञान के क्षेत्र में सबसे पहले मौलिक पुस्तक थी “स्क्रोफुलोयूस सोरे एण्ड इट्स ट्रेएटमेन्ट”। यह पुस्तक जैसे ही प्रकाशित हुई उस समय के सारे चिकित्सक यह समझ गए कि डॉ. हैनीमैन उस समय की चिकित्सा प्रणाली से बिल्कुल खुश नहीं है। अपनी पुस्तक में डॉ. हैनीमैन ने यहां तक लिख डाला था कि इस प्रकार की चिकित्सा करने से अच्छा तो यह है कि वह इस काम को ही कर छोड़ दें।
इसके बाद डा. हैनीमैन ने अपने चिकित्सक के पद को ठुकराकर अलग हो गए और साहित्य सेवा करके अपना और अपने परिवार का गुजारा करने लगे। उन्होंने फ्रेंच, अंग्रेजी और इतालवी भाषा की बहुत सी पुस्तकों का अनुवाद किया। इनकी रसायन-शास्त्र में अच्छी-खासी रुचि थी और इसी विषय पर उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी थी।
डॉ. हैनीमैन ने 1787 से 1789 के बीच दो बहुत ही विलक्षण ग्रंथों की रचना की। उन्होंने विनिगर तैयार किया और पूरी दुनिया को बताया कि उसे कैसे और किस तरीके द्वारा तैयार किया जाता है। विनिगर अंगूर से बनाई गई एक प्रकार की विशुद्ध शराब थी जिसमें एल्कोहल या सुरासार की जरा सी भी मात्रा नहीं थी। अपनी दूसरी पुस्तक में उन्होंने औषधियों की शुद्धता की जांच करने की विधियों का सविस्तार वर्णन किया। इसके अलावा उन्होंने कितने ही नए रसायनों का भी आविष्कार किया। शराब की शुद्धता की जांच करने, पोटेशियम से सोड़ा तैयार करने आदि की विधियों का भी उन्होंने पूरा विवरण बताया। उनकी सबसे बड़ी सफलता पारा भस्म करने या गुण से संयुक्त करने की विधि थी। आयुर्वेद में भी यह माना गया है कि विशुद्ध पारा भस्म गुणों की दृष्टि से अमृत के समान होता है।
डॉ. हैनीमैन को 1790 में कालेज कृत मेटेरिया मेडिका के अनुवाद का जिम्मा सौंपा गया। इस समय वे अनुवाद करके ही अपना जीवन गुजारा करते थे। अनुवाद के दौरान जिस समय वे क्विनाइन औषधि के बारे में लेखक के अनुभव लिख रहे थे उसी दौरान उनके मन में यह जिज्ञासा उठी कि औषधि का प्रयोग करके उसके गुणों का प्रत्यक्ष अनुभव किया जाए। उस पुस्तक में इस औषधि के प्रभावों के बारे में जो बताया गया था उनको उस बारे में पूरी तरह विश्वास नहीं हुआ। इसका एक कारण और था कि ज्यादातर एलोपैथिक चिकित्सक औषधियों को जानवरों को सेवन कराकर जांचा करते थे किसी मनुष्य को नहीं।
अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए एक दिन डॉ. हैनीमैन ने खुद ही 14 मिलीलीटर क्विनाइन का सेवन कर लिया और एक ही जगह ध्यान लगाकर उस औषधि की होने वाली क्रिया का अनुभव करने लगे। कुछ देर के बाद ही उस औषधि का असर उनपर होने लगा। उनको बहुत तेज शीत-ज्वर हो गया और शीत-ज्वर में प्रकट होने वाले लक्षण उनके शरीर में आने लगे।
इस औषधि के सेवन से हुए अनुभव ने डॉ. हैनिमैन जी के दिलों-दिमाग में एक तरह की हलचल पैदा कर दी। उनके मन में यह बात बार-बार उठने लगी कि किसी औषधि का सेवन करने पर शरीर में जो लक्षण पैदा होते है क्या वैसे ही लक्षणों वाले प्राकृतिक रोगों में उस औषधि का सेवन करने से रोग को समाप्त किया जा सकता है। उनके मुताबिक ऐसा ही होना चाहिए था।
अपने ऊपर किए गए इस प्रयोग के बाद वे उत्साह के साथ प्रयोगों में जुट गए और इसके लिए उन्होंने खुद पर और अपने कुछ दोस्तों पर प्रयोग करने शुरु कर दिए। डॉ. हैनीमैन एक-एक औषधि का प्रयोग करके बहुत ही सावधानी के साथ उनकी क्रियाओं को देखने लगे तथा लिखने भी लगे। इन प्रयोगों के जरियह उन्हें यह बात पता चली कि जिस औषधि की ज्यादा मात्रा एक स्वस्थ शरीर में जो-जो लक्षण पैदा करती है उसी औषधि की थोड़ी सी मात्रा लेने से उन लक्षणों वाले रोगी को ठीक किया जा सकता है। यही ``सम: समे समयति´´ सूत्र का अर्थ है और इसी को सदृश-विधान भी कहा जा सकता है। इसी सिद्धांत के आधार पर ही उन्होंने अपनी नई चिकित्सा-प्रणाली का नाम `होम्योपैथी´ रखा।
उनकी इस नई खोज से यूरोप के चिकित्सा संसार में हलचल मच गई। धीरे-धीरे करके डॉ. हैनीमैन के पास रोगियों की भीड़ लगने लगी। उस दौर में अपने हाथों से तैयार की गई औषधियों का प्रयोग करना गैर-कानूनी था। डॉ. हैनीमैन खुद ही अपनी औषधियों को तैयार करके रोगियों को देते थे इसलिए बहुत से ऐलोपैथिक चिकित्सकों ने मिलकर उनके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। इसी वजह से दुखी होकर डॉ. हैनीमैने ने डेसडन नगर छोड़ दिया तथा अलटोना नामक नगर में रहने लगे।
डॉ. हैनीमैन के पास औषधियों का भण्डार होने के साथ-साथ उनका नाम भी पूरी दुनिया में फैलता चला गया। 1805 में उन्होने `मेडिसिन आफ एक्सपीरियन्स´ नामक ग्रंथ प्रकाशित कराया और अपनी `मेटेरिया मेडिका´ तैयार करने का काम शुरु कर दिया। यह `मेटेरिया मेडिका प्योरा´ जो नाम से मशहूर है 1811 में तैयार हो गई थी।
इसी समय डॉ. हैनिमैन जी ने सदृश-विधान के आधार भूतसूत्रों का प्रकाशन किया। इसके छठे संस्करण में उन्होने इनके बदलाव और संशोधन खुद किए।
सन 1843 के जुलाई के महीने में यह महान आत्मा संसार को त्यागकर परमात्मा में विलीन हो गई।