योग के विभिन्न अंगों का परिचय-
योगाभ्यास के मूल सिद्धांत का वर्णन ´कठोपनिषद´, ´भागवत गीता´ ´योग सूत्र´, ´पुराणों´, ´उपनिषदों´ और योग ग्रंथों में किया गया है। योग क्रिया का अभ्यास पहले ऋषि-मुनि अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए करते थे। योग क्रिया की उत्पत्ति मानव जाति को स्वस्थ बनाए रखने के लिए हुई है। योगाभ्यास को भारतीय संस्कृति में सबसे पहले अपनाया गया और फिर इसकी प्रसिद्धि पूरे संसार में हुई। शरीर, मन और आध्यात्मिक लाभ के लिए योग का प्रयोग मानव जाति के शुरुआती समय से ही रहा है। वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार योग ज्ञान हजारों वर्षों से चला आ रहा है। योग क्रिया परम्परागत रूप से एक गुरू के द्वारा अपने शिष्य को बताने के क्रमिक रूप से चली आ रही है। योग करोड़ों वर्षो से विभिन्न क्षेत्रों में लिखे गए सिद्धान्तों, धारणाओं पद्धतियों, क्रियाओं और नियमों पर आधारित है। इसके मूल नियम अपने सैद्धान्तिक व व्यवहारिक रूप में शास्त्रीय योग या अष्टांग योग के नाम से जाने जाते हैं। योग ग्रंथों में योग के 8 अंगों या शाखाओं का वर्णन किया गया है, जिसकी परिभाषा पतंजलि के ´योग सूत्र´ में सही प्रकार से दी गई है। योग के इन 8 अंगों को मुख्य 3 भागों में बांटा गया है जिसमें यम और नियम को योग आचार नीति के आधार पर रखा गया है। आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार को शरीर व मन के बाहरी योगाभ्यास माना गया है तथा धारणा, ध्यान और समाधि को आंतरिक योगाभ्यास माना गया है। हठयोग में योग के 8 अंगों के अतिरिक्त कुछ अन्य क्रियाएं भी हैं, जिनके अभ्यास से आंतरिक शरीर की शुद्धि होती है। आंतरिक शरीर को शुद्ध करने के लिए षट्क्रिया के अभ्यास को बताया गया है। षटक्रिया का अभ्यास आसन की तरह ही शरीर को स्वच्छ व स्वस्थ बनाने के लिए किया जाता है, जिससे ध्यान आदि क्रियाओं में जल्द लाभ प्राप्त हो सके। आसन और षटक्रिया दोनों का एक ही काम है, शरीर को साफ और स्वस्थ बनाकर मन को प्रसन्न रखना। हठयोग में अन्य क्रियाओं को भी बताया गया है, जिसे मुद्रा व बन्ध कहते हैं। योग में मुद्राओं व बन्धों का भी वर्णन किया गया है। इन मुद्राओं और बंधों को योग की अन्य क्रियाओं के साथ प्रयोग किया जाता है। आसन, प्राणायाम, धारणा आदि के साथ मुद्रा और बंधों के प्रयोग से उसका लाभ बढ़ जाता है। इस तरह हठयोग में मुख्य 8 अंगों का वर्णन किया गया है तथा मुद्रा और बंध इन योग क्रियाओं की सहायक योग क्रिया है।
यम-
योग क्रिया के अभ्यास में यम का पालन करना आवश्यक होता है। यम की मुख्य 5 क्रियाएं आवश्यक होती हैं तथा इन 5 क्रिया का पालन किसी भी देश, जाति एवं समय में किया जाए तो महाव्रत कहलाता है-
- अहिंसा-
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
- क्षमा
- धृति
- दया
- आर्जव
- मिताहार
- अहिंसा-
मानव जीवन में अहिंसा का बड़ा महत्व है, क्योंकि अहिंसा ही मन की एक ऐसी भावना है, जिसको धारण करने पर व्यक्ति स्वयं व दूसरों का अच्छा सोच सकता है।
अहिंसा के बारे में महात्मा बुद्ध ने कहा था- ´अहिंसा परमोधर्म:´ अर्थात अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है। यदि सभी व्यक्ति अहिंसा को धारण कर लें तो व केवल अपना ही नहीं बल्कि दूसरों का भी अच्छा कर सकते हैं। अहिंसा उन सभी व्यक्तियों के लिए जरूरी है, जो योग का अभ्यास करना चाहते हैं। अहिंसा से संसार में प्रेम और एक-दूसरे के लिए सम्मान पैदा होता है तथा इससे मन और मस्तिष्क भी स्वच्छ व प्रसन्न रहता है। अपने मन में दूसरों के प्रति घृणा या दोष का भाव पैदा न होने देना ही अहिंसा है। मन, वाणी तथा शरीर से किसी प्राणी (जीवन) को दुख न देना ही अहिंसा है। अहिंसा मनुष्य के अन्दर उत्पन्न होने वाले क्रोध को खत्म करके मन को शांत व स्थिर करता है।
सत्य-
सत्य-आत्मा के विकास का मुख्य आधार है। किसी के साथ छल न करना तथा किसी को धोखा न देना ही सत्य है। सभी से अच्छा व्यवहार करना ही सत्य है। यह विश्वजनित होता है। महात्मा गांधी ने कहा था- ´´सत्य ही परमात्मा है और परमात्मा ही सत्य है।´´ जिस तरह आग धातु को गलाकर उसे शुद्ध करती है। उसी तरह सत्य रूपी अग्नि से हमारी अंतरात्मा शुद्ध होती है। हमेशा सत्य बोलने वाले व्यक्ति ही ईश्वर को अच्छे लगते हैं। ऐसे व्यक्ति को ही भगवान अपने पास स्थान देते हैं और ऐसे ही व्यक्ति ईश्वर के अन्य रूप में अवतार लेते हैं। सत्य ही संसार की अंतिम सच्चाई है तथा सभी योगियों को सत्य कर्म ही करना चाहिए। मन या कर्म की असत्यता योगी को उसके लक्ष्य से भटका देती है। अत: सत्य का योग में बड़ा महत्व दिया गया है।
अस्तेय (लोभ का त्याग)-
किसी दूसरे की वस्तु को अपने लाभों के लिए न प्रयोग करना ही अस्तेय कहलाता है। किसी की वस्तु को उससे बिना पूछे प्रयोग करना उसकी चीजों का इस्तेमाल करना या उसके वस्तु को लौटाने की बजाए उसे अधिक दिनों तक अपने पास न रखना ही अस्तेय है। अपनी गलती, दूसरों से दुर्व्यवहार, दूसरे की चीजों का दुरुपयोग, दुर्व्यवस्था तथा विश्वासघात आदि कारणों का अपने अन्दर से नाश कारण ही अस्तेय कहलाता है। अस्तेय धारण करने से न केवल मानसिक शांति मिलती है, बल्कि आत्म शुद्धिकरण भी होती है। इसके धारण करने पर सामाजिक तनाव व बुराइयों से भी बचाव होता है। इसलिए योगाभ्यासी को अपने अन्दर की लालसा का त्यागकर अस्तेय धारण करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य-
योगाभ्यासी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। कुछ योग गुरुओं ने कहा है कि मन, वाणी (आवाज) तथा शरीर के सभी मैथुनों का किसी भी स्थिति में त्याग करना तथा सभी प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ही ब्रह्मचार्य है। कुछ योग ग्रंथों में इस बातों को माना गया है, परन्तु कुछ योग ग्रंथों में ब्रह्मचार्य की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि केवल अपने अन्दर वीर्य की रक्षा करना ही ब्रह्मचर्य नहीं है, बल्कि ब्रह्मचर्य वह है, जिसमें यौन क्रियाओं तथा यौन विचारों को अपने अन्दर आने से रोके रखना होता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार शरीर, वाणी और मन का संयम ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का संबंध गृहस्थ जीवन या दाम्पत्य जीवन से केवल नाममात्र का होता है। किसी को मोक्ष प्राप्ति के लिए बिल्कुल अविवाहित नहीं रहना पड़ता, क्योंकि व्यक्ति केवल संतान प्राप्ति के लिए तो दाम्पत्य कर्म का पालन कर सकता है, यौनानंद के लिए नहीं। इस तरह पारिवरिक जीवन जीते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। केवल मन व मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले बुरे व गन्दे विचारों को वश में कर लेना ही योग क्रिया के लिए ब्रह्मचर्य होता है।
अपरिग्रह-
किसी भी वस्तु को एकत्रित करने की इच्छा का त्याग करना ही अपरिग्रह कहलाता है। किसी भी व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं को एकत्रित नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक समय में अधिक वस्तुओं की जरूरत नहीं पड़ती। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को जमा करने से व्यक्ति के अन्दर हमेशा वस्तु के नष्ट होने का डर बना रहता है। ईश्वर सभी की जरूरतों को समय पर पूरा करते हैं, फिर हम अपनी जरूरत से अधिक वस्तुओं को जमा क्यों करें। अपरिग्रह का पालन करने वाले व्यक्ति का जीवन सुखमय होता है, जिसमें भय या अविश्वास का कोई स्थान नहीं होता। एक आम व्यक्ति का जीवन दु:ख, पीड़ा, अस्त-व्यस्त तथा निराशा से भरा होता है, जिससे उसका दिमाग हर समय अशांत रहता है। इसका कारण है व्यक्ति की इच्छा की पूर्ति न होना या किसी वस्तु का अधिक हो जाना जिसका चोरी या लुटने का डर बना रहना। अत: अपने पास पड़ी वस्तु से ही प्रसन्न रहना अपरिग्रह का पालन करना हैं या किसी वस्तु को आवश्यकता से अधिक जमा न करना ही अपरिग्रह कहलाता है। अपरिग्रह का पालन करने वाले व्यक्ति हमेशा शांत, प्रसन्न तथा संतुष्ट रहते हैं। ऐसे व्यक्ति किसी भी प्रकार के सांसारिक भ्रम और दुखों के घेरे में नहीं पड़ते। उसका मस्तिष्क हमेशा शांत व शीतल रहता है। योग में इन पांचों नियम के अतिरिक्त कुछ और योग नियम भी है जैसे- क्षमा, धृति, दया, आर्जव और मिताहार।
क्षमा-
क्षमा व्यक्ति की वह भावना है, जिसको धारण करने पर व्यक्ति को सबसे अधिक सुख व शांति का अनुभव होता है। किसी के दोषों को या भूल को माफ कर देना ही क्षमा है। क्षमा देने की शक्ति अपने अन्दर बना लेना अर्थात क्रोध को वश में कर लेना है। इससे व्यक्ति के अन्दर का अहम अर्थात अहंकार नष्ट होकर परोपकार की भावना पैदा होती है। क्षमा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस प्रकार किया है-
क्षमा रोष के दोष गुन सुनि मनु मानहि सीख।
अविचल भी पत्ति, हरि भए भूसुर लहे न भील।।
अर्थात हे मन! क्षमा और क्रोध के गुण व दोषों को सुनकर उनसे शिक्षा ग्रहण कर।
कौरव पांडव जानिए, क्रोध क्षमा के सोम।
पांचहि मार्रि न सौ सके सयो संधारे भीम।।
अर्थात महाभारत में कौरवों के क्रोध को और पांडवों को क्षमा की सीमा से ही क्षमा की शक्ति को समझना चाहिए। क्रोध के कारण 100 कौरव 5 पांडवों को नहीं मार सके। इधर अकेले भीम ने 100 कौरवों का संहार कर दिया।
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
उसका क्या जो दंतहीन, विष रहित विनीत सरल हो।।
अर्थात क्षमा उसी को शोभा देता है, जिसके पास शक्ति होती है। क्षमा शक्तिशाली व्यक्ति का ही आभूषण है। जो शक्तिशाली होता है, वह क्षमा करता है जो व्यक्ति कमजोर होता है तथा शक्तिहीन होता है, वह किसी को क्षमा नहीं कर सकता क्योंकि उसका अपने क्रोध पर वश नहीं होता।
धृति-
धृति संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ ´धैर्य´ होता है। योगाभ्यास में धैर्य व आत्मविश्वास का होना अति आवश्यक है। किसी कार्य को शुरू करने के बाद उसके परिणाम को पाने के लिए समय की आवश्यकता होती है और अपने को उस समय तक रोककर रखना ही धैर्य है। धैर्य से मन की चंचलता दूर होकर मन स्थिर व एकाग्र होता है। जिसके पास धैर्य नहीं होता वह योगाभ्यास में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। राजा जनक बहुत बड़े योगी थे। सुखदेव मुनि जब राजा जनक के पास योग की शिक्षा लेने गये तो राजा जनक ने उनके धैर्य की परीक्षा ली। उन्होंने सुखदेव मुनि को 3 दिन तक इंतजार करवाया और फिर योग शिक्षा प्रदान की। वे देखना चाहते थे कि जो योग की शिक्षा लेने मेरे पास आया है, वह योग के लिए कितने समय तक अपने धैर्य को बनाए रख सकता है।
धीरज, धर्म, मित्र, अस नारी।
आपद काल परिखि आदि चारी।।
दया-
दया अर्थात मन की वह भावना जो दूसरों के कष्टों का अनुभव कर सके। दूसरों की अच्छाई के लिए किये जाने वाले कार्य को दया कहते हैं। दया की भावना मन में होना योगाभ्यास के लिए आवश्यक है क्योंकि दया की भावना से मन कोमल व निर्मल होता है।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़ियों, जब लगि घट में प्राण।।
अर्थात दया ही सभी धर्मों का मूल है तथा पाप घमंड और नाश का कारण। इसलिए दया की भावना को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
राम लखन विजाई भए, बनहु गरीब निवाज।
मुखर बालि रावण गये, घर ही सहित समाज।।
अर्थात भगवान श्री राम ने अपने जीवन में हमेशा दूसरों पर दया की तभी वे अपने जीवन में विभिन्न कष्टों को देखकर भी हिम्मत नहीं हारे। भगवान श्री राम अकेले रहते हुए भी रावण और बालि जैसे शक्तिशाली राजाओं पर विजय प्राप्त कर सके।
आर्जव-
संस्कृत में आर्जव का अर्थ सरल होता है। योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति के व्यवहार, पहनावे, भोजन तथा रहने आदि का ढंग बिल्कुल सरल होना चाहिए। योगाभ्यासी को अपनी आवाज में शांति व मधुरता लानी चाहिए। किसी बातों को घुमा-फिरा करके कहने के स्थान पर बातों को सरल ढंग से शांत भाव से कहना चाहिए। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए योगाभ्यासी के अन्दर आर्जव अर्थात सरलता का होना आवश्यक है।
मिताहार-
मिताहार का अर्थ है सादा और हल्का भोजन करना। भोजन का व्यक्ति के मन और मस्तिष्क पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। सात्त्विक (सादा) भोजन करने से व्यक्ति के शरीर और मन में 7 गुणों की वृद्धि होती है। सात्त्विक भोजन में अन्न, पक्के हुए शुद्ध फल, दूध, घी आदि आते हैं।
योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति को हमेशा हल्का भोजन करना चाहिए। हल्का अर्थात जितनी भूख हो उतना ही भोजन करना चाहिए। शरीर में भोजन का संतुलन बनाने के लिए योगाचार्यों ने एक नियम बनाया है, जिसमें भूख के अनुसार भोजन को लेकर उसे 4 भागों में बांटा जाता है। फिर उस में से 2 भागों में भोजन किया जाता है तथा तीसरे भाग में भोजन के स्थान पर पानी पिया जाता है और चौथे भाग में भोजन के स्थान पर वायु का सेवन किया जाता है। योग गुरूओं का कहना है कि व्यक्ति को अपने जीवन में जीने के लिए भोजन करना चाहिए न कि खाने के लिए जीना चाहिए।
´भागवत गीता´में सात्त्विक आहार तथा उससे प्राप्त फल का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
आयु: सत्ववलारोग्य, सुख प्राति विवधन:
रस्य: स्त्रिग्ध: स्थिस हृधा आहारा: सात्विक प्रिया:।
अर्थात व्यक्ति को ऐसे रस से भरपूर भोजन का सेवन करना चाहिए, जिससे रोग, दोष, आयु, शक्ति और बुद्धि का विकास हो। ऐसा भोजन करना चाहिए जिससे मन और मस्तिष्क सुख व शांति का अनुभव कर सके। ऋषि-मुनियों का कहना है कि जिन व्यक्तियों में अधिक भोजन करने की आदत होती है, वे कभी भगवान का ध्यान या आराधना नहीं कर सकते। अत: योगाभ्यास तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति बनाने के लिए हल्का भोजन करना चाहिए।
नियम-
योग क्रिया के अभ्यास में आचरण से संबंधित नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करना ही योग क्रिया की सफलता का कारण है। महर्षि पंतजलि ने अपने योग ग्रंथ में 5 नियमों के वर्णन के साथ अन्य दूसरे ग्रंथों के 9 नियमों का वर्णन भी किया है।
- शौच
- संतोष
- तपस
- स्वाध्याय
- ईश्वर प्राणीधन
- तप
- आस्तिकता
- दान
- सिद्धांत वाक्यों का
- बुद्धि
- ईश्वर पूजन
- लज्जा
- जप
- हवन
- शौच-
योग क्रिया के अभ्यास के लिए शरीर व मस्तिष्क का शुद्ध होना अति आवश्यक है। शरीर को बाहर व अन्दर से स्वच्छ रखना ही शौच है। शौच क्रिया को 2 प्रकार का बताया गया है-
- ब्रह्म शौच (बाहरी सफाई)
- आभ्यान्तर शौच (आंतरिक सफाई)
- शरीर को साफ व शुद्ध करने के लिए प्रतिदिन मलत्याग के लिए जाना, हाथ-मुंह धोना, नहाना, साफ कपड़े पहनना, पौष्टिक व स्वच्छ भोजन करना आदि बाहरी शौच अर्थात सफाई है।
- आंतरिक सफाई का अर्थ मन और विचारों को शुद्ध व स्वच्छ बनाने से है। मन और विचारों को शुद्ध करने के लिए पूजा-पाठ करना, धर्मिक किताबों का अध्ययन करना, मन में अच्छे विचारों को धारण करना, सत्संग, महात्माओं और गुरुओं की अच्छी बातों को ग्रहण करना आदि होता है।
- जिस तरह शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए प्रतिदिन शरीर को शुद्ध व साफ रखना आवश्यक है, उसी तरह मस्तिष्क को साफ व शुद्ध करना भी आवश्यक होता है। मानसिक शुद्धि के लिए मन में उत्पन्न होने वाली घृणा, क्रोध, भावावेश, वासना, लालच, भ्रम और घमंड आदि मानसिक विचारों को दूर करना है। आसनों और प्राणायाम से शरीर के अन्दर मौजूद अशुद्ध तत्व को बाहर निकाल कर शरीर को शुद्ध व स्वच्छ बनाया जाता है। इससे शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ शारीरिक शक्ति भी प्रदान करता है। इससे मन में उत्पन्न होने वाले बुरे मानसिक विचारों का भी नाश होता है और मन शुद्ध व निर्मल बनता है। मानसिक शुद्धि के लिए धार्मिक किताबों का अध्ययन करना, पूजा-पाठ करना चाहिए। भक्ति से मन की कलुषता को नष्ट किया जा सकता है तथा स्वाध्याय द्वारा बुद्धि को निर्मल बनाया जा सकता है। शरीर, मन तथा बुद्धि की यह निर्मलता सौमनस्यता की स्थिति उत्पन्न करती है, जिससे मानसिक पीड़ा, हताशा, दुख और निराशा खत्म होकर व्यक्ति को संतुष्टी और आनंद का अनुभव करता है। मन व शरीर शुद्ध होने पर व्यक्ति मन को किसी भी विषय पर केन्द्रित कर अपनी इंद्रियों को वश में कर सकता है।
- शरीर की मूलभूत आवश्यकता भोजन है तथा शरीर व मन को स्वस्थ रखने के लिए उचित आहार लेना जरूरी है। भोजन के विषय में व्यक्ति को उसके बनने, उसकी उपयोगिता आदि के बारे में जानना आवश्यक है कि योगाभ्यास के क्रम में कैसा भोजन करना चाहिए, जो आसानी से पच सके तथा उससे शरीर में किसी प्रकार की कोई हानि न हो। योग साधना में ध्यान केन्द्रित करने व आध्यात्मिक विकास के लिए शाकाहारी भोजन करना चाहिए। भोजन, ऊर्जा व शक्ति को प्राप्त करने, स्वास्थ्य के विकास तथा स्वयं को पुन: शक्तिशाली बनाने के लिए किया जाता है। इसलिए भोजन हमेशा सादा, पौष्टिक, रसीला तथा प्रोटीन, विटामिन, खनिज लवण, कार्बोहाइड्रेट जैसे पोषक तत्वों व रेशे वाला करना चाहिए। खटटे्, कड़वे, नमकीन, तीखे, जलनकारी, गरिष्ट तथा अस्वच्छ आहार का त्याग करना चाहिए। भोजन के अतिरिक्त वातावरण आध्यात्मिक क्रियाओं और उपचारकारी उदे्श्य हेतु महत्वपूर्ण है। अभ्यास स्थान साफ-स्वच्छ, हवादार व सूखा होना चाहिए। आप के आस-पास कीड़े-मकोड़े व ध्वनि प्रदूषण नहीं चाहिए।
संतोष-
योग क्रिया के अभ्यास में व्यक्ति में आत्म संतुष्टि भाव उत्पन्न होना आवश्यक है। मन में लालच की भावना उत्पन्न होनी व्यक्ति के ध्यान केन्द्रित करने में कठिनाई उत्पन्न करता है। इसलिए व्यक्ति के पास जो कुछ भी हो उसमें ही संतुष्ट रहना चाहिए। अधिक की इच्छा करते हुए कोई बुरे कर्म नहीं करना चाहिए। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखनी चाहिए। व्यक्ति में असंतोष की भावनाएं अधिकतर धन-दौलत तथा दूसरों की सुख-समृद्धि को देखकर होती है। ये ही आपसी मतभेद व झगड़ों का कारण भी बनते हैं। ऐसी स्थिति में योगाभ्यास में मन एकाग्र नहीं हो पाता और योग में सफलता प्राप्त करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। असंतोष से मानसिक शांत भंग होती है और अशांति, असत्य व अप्रसन्नता उत्पन्न होने लगती है। इसलिए मन का संतुष्ट होना अत्यंत आवश्यक है।
तपस-
चरित्र निर्माण व उसके विकास की प्रक्रिया को तपस कहते है। इसका कारण है कि व्यक्ति को स्वयं की आंतरिक नियंत्रण ऊर्जा की सहायता से सभी प्रकार के कष्टों को भस्म किया जा सकता है। इसके लिए आत्म शुद्धि, आत्म अनुसासन तथा संयम के अलावा परमात्मा में लीन होने का सच्चा प्रयास जरूरी होता है। तपस 3 प्रकार का होता है और इसे शरीर, मन व वाणी से जोड़ा जा सकता है। ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा शारीरिक तपस होता है। किसी के लिए अपमानजनक शब्दों का उपयोग न करना, भगवान का भजन करना, परिणाम की चिंता के बिना ही हमेशा सत्य बोलना ´वाणी तपस´ है। संसार में मिलने वाले सुख-दुख को समान रूप में स्वीकार करना ही ´मानसिक तपस´ है। ´मानसिक तपस´ करने पर व्यक्ति आत्म नियंत्रण नहीं खोता। किसी कार्य को करते हुए उसके फल की इच्छा न करना ही तपस का मूल सिद्धांत है। इससे व्यक्ति के शरीर, मन और चरित्र का अधिक विकास होता है। इससे व्यक्ति में साहस, बुद्धिमता, निष्ठा व सादगी का विकास होता है।
स्वाध्याय-
स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं अध्ययन करना या शिक्षित बनना। अध्ययन करने से व्यक्ति का आंतरिक श्रेष्ठ रूप उभरता है तथा व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का बोध होता है। स्वाध्याय में व्यक्ति स्वयं ही बोलने वाला और सुनने वाला होता है।
स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति का हृदय व मस्तिष्क प्यार व सम्मान की भावना से भरा होता है। ऐसे व्यक्ति में निर्मल विचार उत्पन्न होते हैं, जो खून के प्रवाह में मिलकर जीवन का एक भाग बनते हैं। इससे व्यक्ति का जीवन के प्रति नज़रिया बदल जाता है और वह सम्पूर्ण संसार को पवित्र मानने लगता है तथा परमात्मा ने दूसरों के साथ उसे भी ऊर्जा का स्रोत दिया है।
´आचार्य विनोबा भावे´ ने कहा था कि स्वाध्याय स्वयं का अध्ययन होता है और उन सभी विषयों का आधार होता है, जिस पर अन्य आराम करते हैं, परन्तु व्यक्ति स्वयं किसी पर आराम नहीं करता।
शांत, सुखी, स्वस्थ एवं आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक होता है कि व्यक्ति स्वस्थ व पवित्र साहित्य का अध्ययन करे। इससे अज्ञानता दूर होती है और अविश्वास का भाव नष्ट होता है। इस तरह स्वाध्याय का पालन करने वाला अपने को परमात्मा से जोड़ता है।
ईश्वर प्राणीधन-
अपनी सभी इच्छाओं, कामनाओं व कर्मो को परमात्मा को समर्पित कर देना ईश्वर प्राणीधन कहलाता है। जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास रखता है और मानता है कि सम्पूर्ण संसार परमात्मा की देन है, उसे न तो दुविधा घेरती है और न ही उसमें सत्ता या घमंड ही होता है। वह तो केवल आराधना में सिर झुकाता है। हमारी इंद्रियां लालच व मोह से प्रसन्न हो जाती हैं तथा इस प्रक्रिया में किसी तरह की रुकावट उत्पन्न होने पर दुःख का अनुभव होता है परन्तु जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता है, वह अपने ज्ञान की सहायता से उत्पन्न होने वाली ऐसी इच्छाओं से बचा रहता है। मन को नियंत्रित करना कठिन है, परन्तु पूर्ण चेतना की अवस्था में मन पर भी नियंत्रण हो जाता है। इसके लिए अतिरिक्त स्रोतों की आवश्यकता होती है और उन्हें परमात्मा से ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसके लिए पूर्ण ईमानदारी व निष्ठा के साथ ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है। यही अवस्था होती है, जब भक्ति की शुरुआत होती है। तब भक्त अपने मन, बुद्धि और इच्छाओं को नम्रतापूर्वक भगवान को अर्पित कर प्रार्थना करता है। मन में प्रेम व श्रद्धा की ऐसी भावना उत्पन्न होने से व्यक्ति की आत्मा का पूर्ण विकास होता है। मन में किसी तरह की लालसा होने पर भय रहता है कि ध्यानावस्था में मन की एकाग्रता बनी रहेगी या नहीं। मन में ऐसे विचार न होने पर मन ध्यान में लीन होता है और व्यक्ति को सम्पूर्ण आलौकिक व दिव्यज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार भक्ति भावना व्यक्ति को ज्ञान व आचरण की सही दिशा की ओर ले जाती है, क्योंकि ईश्वर का नाम सूर्य की तरह अंधकार को दूर कर प्रकाश को फैलाता है। जब व्यक्ति ध्यान करते हुए दिव्य ज्योति का सामना करता है तो व्यक्ति का जीवन भी ज्योतिमय हो जाता है। योग के नियम में कुछ अन्य नियम भी है जैसे- तप, आस्तिकता, दान, ईश्वर पूजन, जप तथा हवन।
तप-
तप अर्थात तपस्या। अपने किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करना ही तप है। अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए सुख-दुख, मान-अपमान, रोग-आरोग आदि को सहते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना ही तप है। इस तरह संसार की परम्पराओं को निभाते हुए अपने उद्देश्य या लक्ष्य को प्राप्त करना ही तप है।
कायेन्द्रिय सिदिर शुद्धि क्षयान्त यस:।
अर्थात तप के प्रभाव से अशुद्धि नष्ट हो जाती है।
आस्तिकता-
आस्तिकता वह है, जो पारलौकिक अर्थात भगवान की शक्ति में विश्वास करता है। जब साधना करते हुए व्यक्ति का विश्वास भगवान के प्रति इतना गहरा हो जाता है कि उसे भगवान के अतिरिक्त किसी का ज्ञान नहीं रहता। भगवान के प्रति ऐस़ी श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्ति जीवन और मृत्यु को भी जीत सकते हैं।
एतद्वि मुक्ति सोपनमेतत्कालस्य वज्वनम।
युद्ध या वृतं मनोभोगा, दास कतं परमात्मनि।।
अर्थात जब मन सांसारिक विषय-वस्तु से हटकर परमात्मा में लीन (मिल) हो जाए, तब व्यक्ति जीवन-मृत्यु पर विजय प्राप्त कर अंतत: मोक्ष को प्राप्त करता है। व्यक्ति की आस्तिक भावना ही संसार की महान व फलदायक शक्ति है। आस्तिकता ही आत्म विकास का मूल आधार है।
दान-
दान अर्थात देना। अपने पास रखी वस्तुओं में से दूसरों को देना ही दान है। ´गीता´ में 3 प्रकार के दान का वर्णन किया गया है-
सात्त्विक दान-
दात व्यमिति यद्वानं दीयते नुप। कारिण।?
देशे काले च पात्रे च तद्वानं सातिक समृतम।।
अर्थात जो दान देश और सुपात्र को और उपकार न करने वाले के प्रति किया जाता है, वह दान सात्त्विक कहलाता है।
तामस दान-
आदेश काले यद्वानम पात्रे भ्यश्रच दीयते।
असत्कृत ज्ञान तत्ताम समुदाय तम।
अर्थात जो दान बिना सत्त्कार या स्वागत के अर्थात दुर्व्यवहार पूर्वक देश, काल और कुपात्र के प्रति दिया जाए, वह तामस दान कहलाता है।
राजस दान-
यत प्रत्युय कारार्थ फल मुदिद्श्य वा पुन:।
दीयते च परिकिलिष्ट तददा्न राजस स्मृतम।।
अर्थात जो दान पूर्ण मन से उपकार की इच्छा न रखते हुए दिया जाता है या अपने दान से फल की इच्छा रखते हुए दिया जाता है, वह दान राजस दान कहलाता है।
अत: अपने मन में क्रोध व फल की इच्छा को त्याग कर पूर्ण मन व सच्ची श्रद्धा के साथ ही दान करना चाहिए।
सिद्धांत वचन को सुनना अर्थात शास्त्र वचनों को सुनना या पढ़ना-
सिद्धांत वचन अर्थात शास्त्रों को पढ़ना, समझना और उस ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना चाहिए। जिस तरह किसी काम को करने के लिए उसके तरीके को जानना जरूरी होता है, उसी तरह समाज व स्वयं को सही दिशा में ले जाने के लिए जीवन के मूल सिद्धांत अर्थात भगवान क्या है को जानना होता है। इस तरह जीवन के सिद्धान्तों का धारण कर से ही सफलता की ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता है।
बुद्धि-
बुद्धि अर्थात अपने मस्तिष्क से सोच-समझ कर किसी विचार को मानना। किसी भी कार्य को करने से पहले अपने मस्तिष्क में उस काम के अच्छे-बुरे की पहचान कर ही उस कार्य को करना चाहिए। हमेशा अपनी बुद्धि का प्रयोग समाज की उन्नत्ति के लिए करना चाहिए। ´गीता´ में बुद्धि को 3 भागों में बांटा गया है-
सात्त्विक बुद्धि
प्रवृत्तिम च निवृतिम च कार्य कायें, भयाभये।
बन्धमं मोक्षम च या वेति, बुद्धि: सा पार्थ सात्विकी।
अर्थात बुद्धि का प्रयोग अपने तथा देश की उन्नति के लिए करना चाहिए। जिस बुद्धि का प्रयोग उन्नति-अवनति, कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य तथा भय-अभय तथा बंधन और मोक्ष को जानने के लिए किया जाता है, वही बुद्धि सात्विक है।
राजसी बुद्धि-
यथा धर्मम् अधर्मम च कार्यम च अकार्यम एवं च,
अयथावत् प्रजातति बुद्धि: सा पार्थ राजसी।।
अर्थात मनुष्य जिस बुद्धि के कारण धर्म और अधर्म तथा कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के वास्तविकता को नहीं जानता है, वही राजसी बुद्धि कहलाती है।
तामसी बुद्धि´
अधर्म, धर्म मिति या मान्यते तमसा वृता।
सर्वार्धान् न्विपरीतरन च बुद्धि सा पार्थ तामसी।।
अर्थात जिसके मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के बुरे विचार उत्पन्न होते हैं तथा जो अधर्म को धर्म तथा पाप को पुण्य मानता है, वह ही तामसिक बुद्धि वाला कहलाता है। अत: अपने मस्तिष्क से ऐसे विचारों को त्याग कर अच्छे विचारों को निकालकर धारण करना चाहिए।
ईश्वर पूजन-
ईश्वर के किसी भी रूप को अपनी अंतर आत्मा में विश्वास और पूर्ण श्रद्धा के साथ बसाना ही भगवान की पूजा कहलाता है। भगवान की पूजा फल, फूल आदि के साथ करने से व्यक्ति में व्यवहार व विनय में निर्मलता आती है। उसमें प्रेम की भावना बढ़ती है और अहांकार व क्रोध का नाश होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ईश्वर भक्ति का वर्णन करते हुए कहा है कि सभी प्रकार के लौकिक और आलौकिक स्वार्थ पर विजय करके भगवान को प्राप्त करने के लिए पूजन करना ही ईश्वर पूजन है।
पुरुषार्थ स्वार्थ सकल, परमारथ परिनाम।
सुलभ सिद्धि सव साहिनी सुमरित सीता राम।।
´गीता´ में ईश्वर पूजन के फल कें बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
अनन्या: चिन्तयन्त:, माम् ये जना: पर्यवासते।
तेषाम् नित्यभियुक्तनाम, योग क्षेमम वहमि अह्म।।
अर्थात जो भक्त अनन्त प्रेमी होता है और वह सदा भगवान अर्थात मुझे निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से भजता रहता हैं, उसके द्वारा की जाने वाली पूजा व चिंतन का योग क्षेम मैं स्वयं स्वीकार करता हूं।
लज्जा-
लज्जा व्यक्ति के मन की वह भावना है, जो व्यक्ति के अन्दर किसी बुरे कर्म को करते हुए महसूस होती है। इस भाव के कारण ही व्यक्ति कभी-कभी बुरे कार्य करने से बच जाता है। बुरे कार्य करते समय जो भावना उत्पन्न होती है, वही लज्जा है। लज्जा ही एक ऐसी मन की भावना है, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में हमारे चरित्र को बिगड़ने से बचाती है।
भक्ति सागर ग्रंथ में लज्जा का वर्णन करते हुए स्वामी चरन दास जी ने कहा है-
साधु-पुरुषों और गुरुओं से लज्जा करनी चाहिए। तन, मन और वचन से उनकी आज्ञा को मानना चाहिए। अपने अन्दर के बुरे कर्मों को त्यागकर हमेशा आंखों में लज्जा रखनी चाहिए। अत: योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति को अपने अन्दर लज्जा का भाव रखना चाहिए।
जप-
जप अर्थात भगवान का स्मरण करना या याद करना। जो व्यक्ति भगवान की प्रार्थना करता है, उसके नामों को जपता है, वह जप कहलाता है। जप बोलकर तथा मन ही मन दोनो ही रूप में किया जाता है। ´योग दर्शन´ में कहा गया है कि अपने मन की चंचलता को रोकना तथा आत्मा व परमात्मा पर मन को एकाग्र करना ही जप है। अत: योग में जप का बड़ा महत्व है, क्योंकि इसमें बहुत ही जल्दी और आसानी से मन को एकाग्र करने में सफलता मिलती है। जप के बारे में भगवान श्रीकृष्ण ने ´गीता´ में कहा है-
महर्षि भृगु: अहम गिराम, अस्मि एकम अक्षरम्।
यज्ञानाम् जपयज्ञ: अस्मि स्थावराणाम् हिमालय।।
अर्थात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जप सभी प्रकार के योगों में सर्वश्रेष्ठ (महान) यज्ञ है। आचार्यों ने जप को 3 प्रकार का बताया है-
बेखरी जप-
इस जप में ´ॐ´ कार मंत्र को जोर से बोल कर जप किया जाता है। इसमें मंत्रों की ध्वनि को दूसरों और स्वयं के लिए बोला जाता है। जप की शुरुआत में जप बेखरी वाणी के द्वारा ही किया जाता है।
उपांसुजय-
इस जप में मंत्रों को जोर से बोल कर नहीं पढ़ा जाता। इसमें मंत्रों को मन ही मन बोला व सुना जाता है। इस जप में होठ तो हिलते हैं, परन्तु आवाज सुनाई नहीं देती। यह अपने अन्दर मन ही मन किया जाने वाला जप है।
मानसिक जप-
ग्रंथों में मानसिक जप को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। मानसिक जप मंत्रों की ध्वनि नाभि (मणि पूरक चक्र) में होता है। इसमें मंत्रों की ध्वनि अन्दर ही गूंजती रहती है। जप की इस क्रिया तक पहुंचने में व्यक्ति में धैर्य और दृढ़ता की आवश्यकता पड़ती है। मानसिक योग में उच्च स्थिति को जप माना गया है। मानसिक जप से मन व आत्मा पवित्र होती है और मन में आध्यात्मिक की भावना पैदा होती है, जो व्यक्ति को आत्म उन्नत्ति की ओर ले जाती है।
हवन-
हवन एक ऐसी साधना है, जिसमें सभी देवताओं की पूजा की जाती है। सभी शुभ-अशुभ कार्यों में हवन किया जाता है तथा हवन के बिना कोई भी यज्ञ पूरा नहीं माना जाता। हिन्दू धर्म में हवन का बड़ा महत्व माना गया है तथा हवन का सबसे बड़ा उदाहरण होली का सामूहिक हवन है। एक मत के अनुसार व्यक्ति के जन्म से लेकर मरण तक सोलह संस्कार होते हैं और सभी संस्कारों में हवन आवश्यक है। आर्य समाज के लोग अग्नि पूजा किया करते थे।
´गीता´ में हवन से होने वाले लाभ और न करने से होने वाली हानि का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
यज्ञशिष्टामृत भुज: यान्ति, सनात नम्।
न अयम लोक: अस्ति अपज्ञस्य कुत: अन्य: कुरूमतम।।
अर्थात यज्ञ करने वाले व्यक्ति पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं। यज्ञ न करने वाले व्यक्ति को भू-लोक में भी सुख की प्राप्ति नहीं होती, फिर ब्रह्म लोक में सुख की कल्पना करना भी व्यर्थ है। हवन में घी का प्रयोग किया जाता है या अग्नि में घी को डालने से व्यक्ति के अन्दर त्याग और समर्पण की भावना उत्पन्न होती है।
हवन का एक वैज्ञानिक लाभ यह है कि अग्नि में घी डालने से वायु शुद्ध होती है तथा हवा में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा कम होती है। इससे आस-पास का वातावरणं शांत व शुद्ध रहता है।
आसन-
महर्षि पतंजलि ने अपने योग ग्रंथ में योग के 8 अंगों का वर्णन किया है, जिसमें आसन को तीसरा स्थान दिया है। ´हठयोग प्रदीपिका´ में आसनो का वर्णन करते हुए आसनों को प्रथम स्थान दिया गया है। ´मंडल ब्राह्मोपनिषद´ में आसनों का वर्णन करते हुए कहा गया है- ´´ऐसी मुद्रा जिसमें व्यक्ति लम्बे समय तक आराम से बैठ सके, उसे आसन कहते हैं।´´ योग ग्रंथों में आसनों की संख्या हजारों में बताई गई है, परन्तु इन आसनों में 84 आसनों को ही महत्वपूर्ण आसन माना गया है। सभी आसनों का अभ्यास लाभकारी है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन की मुद्रा ऐसी होनी चाहिए जिसमें व्यक्ति आराम से बैठ सके, ऐसी मुद्रा को ही आसन कहते हैं। ऐसे आसन हैं ´स्थिर सुखमासनम´। आसन से शरीर के सभी अंगों में स्थिरता, स्वस्थता तथा सरलता मिलती है, जो अंत में मानसिक चिंता आदि को दूर कर मन को शांत व स्थिर करते हैं।
योग ग्रंथों के अध्ययन करने वाले तथा अभ्यास करने वाले योग गुरुओं ने कहा है कि आसन और शारीरिक व्यायाम में कोई समानता नहीं होती। व्यायाम में अभ्यास के लिए वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जबकि आसनों में किसी भी प्रकार के कोई साधनों की जरूरत नहीं होती। आसनों का अभ्यास कहीं भी बिना विशेष तैयारी के ही कर सकते हैं। केवल आसन के लिए प्रकृति का ही सहयोग होता है जैसे हवादार स्थान, आसन के लिए एक छोटे सी दरी और आत्म-विश्वास। आसन का अभ्यास करने से शारीरिक स्वास्थ्य, सहनशक्ति और जीवनशक्ति का विकास होता है। इन सबसे ही व्यक्ति को लम्बी आयु प्राप्त होती है।
योग ग्रंथ में आसनों को 3 वर्गों में बांटा गया है-
- ध्यानात्मक आसन
- मानसिक प्रशांतिदायक आसन
- शारीरिक शक्तिदायक आसन
ध्यानात्मक आसन- ध्यानात्मक आसन ध्यान के अभ्यास के लिए महत्वपूर्ण होता है। इसलिए इन आसनों का अभ्यास ध्यान से पहले करना चाहिए।
मानसिक प्रशांतिदायक आसन- यह आसन मन से संबंधित होता हैं तथा इस आसन का अभ्यास मानसिक शांति व मन की चंचलता को रोकने वाला होता है।
शारीरिक शक्ति बढ़ाने वाला आसन- शरीर की शक्ति को बढ़ाने तथा शारीरिक स्वस्थ्यता बनाए रखने के लिए आसनों का अभ्यास करना चाहिए।
योगाभ्यास में हठयोग का भी बड़ा महत्व है। आसनों के अतिरिक्त ´हठयोग प्रदीपिका´ ग्रंथ में मुद्राओं और बंधों का भी वर्णन किया गया है। योगाभ्यास में इन मुद्राओं का बड़ा महत्व है। इन मुद्राओं को भी आसन के साथ ही रखा गया है तथा बंधों को भी आसन के साथ ही रखा गया है। योग ग्रंथों में 3 बंध और अनेक मुद्राओं का वर्णन किया गया है। इन मुद्राओं में 10 मुद्राएं ही महत्वपूर्ण मानी गई हैं। इन मुद्राओं का अभ्यास आसन या अन्य योग क्रियाओं के साथ किया जाता है। मुद्राओं का ध्यान क्रिया में विशेष महत्व है। बंध 3 होते हैं- जालनधर बंध, उडडी्यान बंध और मूलबंध। योग क्रिया के अभ्यास के साथ बंधों को लगाने की विधि बताई गई है। प्राणायाम में बंधों का विशेष महत्व है तथा इससे कुण्डलिनी शक्ति जागरण में सहायता मिलती है।
योग आसनों का विकास और उपयोग सदियों से होता आ रहा है। आसनों के अभ्यास से जहां शरीर शक्तिशाली बनता है, वहीं हड्डियों में लचीलापन आता है और साथ ही रोग भी दूर होते हैं। आसन के अभ्यास से थकान मिटती है और स्नायुओं को आराम मिलता है। आसन का सबसे अच्छा लाभ यह होता है कि इससे मस्तिष्क को शांति मिलती है।
आसन की अवस्था-
वैसे तो आसन की 3 अवस्थाएं होती हैं। आसन में पहले मुद्रा अर्थात आसन की स्थिति बनाई जाती है। दूसरे में उस मुद्रा को स्थिर या नियंत्रित किया जाता है तथा तीसरी अवस्था में आसन को त्याग कर अपनी वास्तविक स्थिति में आ जाना पड़ता है। आसनों का अभ्यास धैर्यपूर्वक धीरे-धीरे करना चाहिए और अपने ध्यान को सांस लेने व छोड़ने की गति पर एकाग्र करना चाहिए। जब किसी आसन का अभ्यास हो जाता है, तो व्यक्ति उस आसन की स्थिति में लम्बें समय तक रह सकता है। आसनों का उपयोग विभिन्न मांसपेशियों के प्रणालीगत इस्तेमाल के लिए किया जाना चाहिए जिससे शारीरिक, मानसिक व आंतों की क्रियाओं का संतुलित तालमेल प्राप्त किया जा सके। विज्ञान के द्वारा किये गए परिक्षणों से पता चला है कि आसन, ध्यान व समाधि के लिए आरामदायक मुद्राओं से शारीरिक स्थिरता और शरीर का भौतिक विकास होता है। योगासनों से शारीरिक संरचना, जैव रासायनिक और मानसिक बदलाव जैसे विभिन्न लाभदायक परिवर्तन भी हो सकते हैं। इस योग क्रिया से अधिक वजन का घटना, सांस की गति संतुलित होना, खून में मिठास की मात्रा कम होना, कोलेस्ट्रोल की घटी मात्रा, खून में प्रोटीन की अधिकता, अंत:स्रावी ग्रंथियों की विकसित क्रिया तथा विकसित मानसिकता जैसे बुद्धि स्तर (आई. क्यू), कार्य क्षमता, मानसिक थकान का दूर होना आदि में लाभ होता है। आसनों के अभ्यास से अच्छी शारीरिक स्थिति तथा मानसिक संचेतना के बीच संतुलन से अच्छा स्वास्थ्य बना रहता है। अत: स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए आसनों का अभ्यास जरूरी है। आसन के अभ्यास से ही व्यक्ति शारीरिक विकलांगता और मानसिक विभ्रांति को दूर कर सकता है। जब व्यक्ति का शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न व स्थिर होता है, तभी शरीर, मन और आत्मा के बीच सच्चा संबंध स्थापित होता है अत: सभी व्यक्ति जो जीवन की पूर्ण उपयोगिता को समझना चाहते हैं और जीवन के आनंद को प्राप्त करना चाहता है, उन्हे योगासनों का अभ्यास करना चाहिए।
प्राणायाम-
प्राणायाम को योग में श्वास क्रिया या श्वास विज्ञान कहते हैं। योग सूत्र में कहा गया है- ´´तस्तिन सति श्वास प्रश्वास योर्गति विच्छेद: प्राणायाम:´´ अर्थात प्राणायाम का संबंध प्राण (वायु) से होता है। प्राणायाम दो शब्दों के मेले से बना है- प्राण़+आयाम अर्थात प्राणायाम। प्राण का अर्थ होता है, ´जीवन´ और आयाम का अर्थ होता है, ´विस्तार´ करना। प्राण के साथ वायु को जोड़ने से उसका कार्य नाक द्वारा सांस लेकर फेफड़ों में तथा उसके ऑक्सीजन अंश को रक्त (खून) के बीच से समस्त शरीर में पहुंचाना होता है। शरीर की यही प्रक्रिया प्राण को जीवित रखती है। प्राणायाम में फेफड़े को खाली करने और सांस क्रिया द्वारा फेफड़े में वायु को भरने के लिए विशेष समय की आवश्यकता होती है। शरीर के प्रत्येक कोश कार्बनडाईआक्साइड के बदले में ऑक्सीजन को प्रति 3 मिनट में लेते रहते हैं और कार्बनडाइआक्साइड को सांस को बाहर छोड़ने के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। फिर भी थोड़ी सी वायु बची रह जाती है। अत: इस अशुद्ध वायु को निकालने के लिए प्राणायाम की लम्बी व गहरी सांस क्रिया की जाती है। प्राणायाम के सांस क्रिया से छाती का विस्तार होता है और छाती का विस्तार होने से अधिक से अधिक वायु को एकत्रित किया जा सकता है। प्राणायाम में जितनी अधिक शुद्ध वायु को ग्रहण किया जाता है, आंतरिक अंग भी उतने ही अधिक स्वच्छ होते हैं।
प्रत्याहार-
योगाभ्यास की जिस क्रिया के अभ्यास से व्यक्ति अपनी सभी इंद्रियों को वश में कर अंतर आत्मा में स्थिर करता है, उसे प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार में व्यक्ति स्वयं को सांसारिक वस्तुओं से अलग करता है। मनुष्य का अगर अपने इंद्रियों पर सही नियंत्रण रहें तो वह उसके द्वारा मिलने वाली अनेकों परेशानियों से बचा रह सकता है। अपने इंद्रियों को वश में करना ही प्रत्याहार है। योग के 8 अंगों में प्रत्याहार योग के 5 अंग हैं। इंद्रियों के भटकने से रोकने के लिए मनुष्य को भक्ति रूपी छाया की जरूरत पड़ती है, जिसमें वह मन ही मन शरीर में ऐसे अंग व भावनाओं को बनाने वाले सर्वशक्तिमान परमात्मा का स्मरण करता है, जिससे इंद्रियां बाहरी वस्तुओं से हटकर अंतर आत्मा में स्थिर हो जाती है।
वास्तव में मन ही शरीर का ऐसा केन्द्र बिन्दु है, जिसके चारों ओर सुख-दु:ख, गुलामी-स्वतंत्रता तथा आनंद व कष्ट नामक विचार घूमते रहते हैं। यदि मन किसी विशेष क्रिया में दुख मनाता है, तो व्यक्ति को गुलामी, पीड़ा और कष्ट का अनुभव होता है, परन्तु मन अगर किसी भी प्रकार की इच्छा व भय से मुक्त रहता है तो वह आनंद, स्वतंत्रता व खुशियों का अनुभव करता है। वैसे जीवन का उदे्श्य ´सुख´ प्राप्ति के स्थान पर ´अच्छी´ चीजों को प्राप्त करने का होना चाहिए। परन्तु साधारण व्यक्ति जीवन के इस महत्व को समझ नहीं पाते हैं। प्रत्याहार का मुख्य लक्ष्य अंतर आत्मा को शुद्ध कर मन को स्थिर करना तथा मन में अध्यात्मिक विचारों व अच्छी भावनओं को पैदा करना है। प्रत्याहार के लक्ष्य है, जीवन की वास्तविक सच्चाई व मानव के अस्तित्व के बारे में व्यक्ति को ज्ञान करना। प्रत्याहार का अभ्यास करते हुए आत्म संतोष और परमानंद का अनुभव करना। प्रत्याहार से व्यक्ति को अपने मन और मस्तिष्क को किसी वस्तु या ज्ञान की प्राप्ति की ओर लगाना चाहिए।
योग के नियमों का पालन करने वाले व्यक्ति अपनी सभी तरह की लालसा, मोह आदि को छोड़ कर योग के मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है। वह जानता है कि सांसारिक वस्तुओं का लोभ जीवन के विनाश का कारण बनता है। योग क्रिया कठिन होते हुए भी शरीर व मन को स्वस्थ रखते हुए जीवन की उच्च स्थिति प्रदान करती है।
प्रत्याहार का अभ्यास करने वाला व्यक्ति आलौकिक (ईश्वर) शक्ति का अनुभव करता है। अभ्यास से व्यक्ति का मन निर्मल व शुद्ध होकर दिव्य ज्योति के प्रकाश में प्रकाशमय हो जाता है, जिससे इसके अन्दर की सांसारिक वस्तुओं की लालसा व इच्छाएं लुप्त हो जाती है तथा वह सुख-दु:ख, भाग्य-दुर्भाग्य तथा आदर-अनादर जैसी बातों से निकलकर आत्मा ज्ञान का अनुभव करता है। व्यक्ति के अन्दर दिव्य शक्ति व आत्म ज्ञान का अनुभव कराना ही प्रत्याहार है। इसमें व्यक्ति आत्म संयम व अपने मन को एकाग्र करने की क्षमता प्राप्त करता है।
धारणा-
योगाभ्यास में धारणा का स्थान छठा है। अपने मन की चंचलता को दूर करने के लिए मन को शरीर के किसी एक बिन्दु या बाहरी वस्तुओं पर स्थिर करने की क्रिया को ´धारणा´ कहते हैं। धारणा में मन को भौंहों के बीच, नाक के अगले भाग, हृदय के बीच स्थित अनाहत चक्र पर अथवा नाभि चक्र पर स्थिर किया जाता है। धारणा में व्यक्ति अपने मन को किसी विचार या वस्तु पर केन्द्रित करने का अभ्यास करता हैं। प्रत्याहार से व्यक्ति को मन को एकाग्र व स्थिर करने की जो शक्ति प्राप्त होती है, उसी के अनुसार व्यक्ति धारणा में अपने मन को किसी विषय, वस्तु पर स्थिर कर चिंतन व मनन करने में सामर्थ्य प्राप्त करता है। धारणा में व्यक्ति की आंतरिक चेतना जागृत होती है, जिससे मस्तिष्क में विभिन्न विचार एकत्रित होते हैं और सभी मानसिक तनाव दूर होते हैं। धारणा के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। धारणा में व्यक्ति ईश्वर (परमात्मा) या ज्ञान से संबंधित विचारों पर अपने ध्यान को केन्द्रित करता है। इसलिए जब तक ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करने वाले परमात्मा पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया जाएं, तब तक व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व या आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता।
धारणा के अभ्यास से मन पूर्ण रूप से शुद्ध होकर आत्मा में खो जाता है। मन पर आत्मा का नियंत्रण हो जाता है और जब मन और आत्मा का मिलन होता है, तब व्यक्ति को आत्मज्ञान होता है। अधिकतर व्यक्तियों के मन व आत्मा का मेल नहीं हो पाता। मन पर आत्मा का अधिकार न होने पर मन के इच्छाओं में पड़कर व्यक्ति सांसारिक बुराईयों में फंस जाता है और बुरे कर्म करते हुए अंत में काल के अधीन हो जाता है। बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं, जिनका मन भावनाओं के अधीन होकर उत्तेजना में पड़कर अपने रास्ते से भटक जाता है। ऐसे में व्यक्ति को अपने मन को एकाग्र करना कठिन हो जाता है। मन की ऐसी प्रकृति मानवीय प्रकृति की मूलभूत गलतियां हैं, मानव मन की ऐसी भावनाएं उतनी ही पुरानी हैं, जितनी मानव की निर्माण प्रकृति। अत: मन की ऐसी प्रकृति से बचने के लिए योग में बहुत समय पहले ही एक उपाय को खोजा गया, जिसे ´धारणा´ करते हैं। धारणा के अभ्यास से व्यक्ति मन को भटकने से रोककर अपनी इच्छा के अनुसार किसी वस्तु के चिंतन में लगाता है। इस तरह धारणा के द्वारा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है।
धारणा में किसी वस्तु पर ध्यान को केन्द्रित करना आवश्यक होता है। अपने मन को स्थिर करते हुए किसी विचार-वस्तु या भगवान की आकृति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अपने मन को स्थिर विचारों के अतिरिक्त किसी दूसरी ओर भटकने न दें। व्यक्ति को धारणा में अपने ध्यान को केन्द्रित करने के लिए शांत रहना चाहिए अर्थात अपने मन को तनाव, चिंता और व्यग्रता के भावों से शून्य रखना चाहिए। इससे व्यक्ति को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। धारणा के अभ्यास की शुरुआती अवस्था में ध्यान को केन्द्रित करते समय मन में कई प्रकार की भावनाएं या अन्य आकृतियां (प्रतिबिम्ब) आदि उत्पन्न होती हैं। मन में उत्पन्न होने वाली ऐसी भावनाएं आप के एकाग्र ध्यान को भंग कर सकती है। अत: ध्यान के समय ऐसी आकृति पर ध्यान न दें तथा अपनी एकाग्रता बनाएं रखें। इससे कुछ क्षण बाद सभी आकृति अपने आप गायब हो जाएंगी। शुरू में खाली ध्यान केन्द्रित करना कठिन होता है। अत: धारणा में अपने ध्यान को पहले किसी मोमबत्ती की लौ (रोशनी) पर केन्द्रित करना चाहिए।
ध्यान-
महर्षि पतंजलि ने ध्यान को सातवां अंग माना है। ´ध्यान´ योगाभ्यास की वह क्रिया है, जिसमें व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व, प्रकृति और आलौकिक अस्तित्व के बारे में जानने के लिए ध्यान लगाता है। ध्यान के अभ्यास में व्यक्ति अपने मन और आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है। ध्यान के द्वारा मन में उत्पन्न होने वाले विचारों को स्थिर कर व्यक्ति अपने अन्दर मौजूद प्रज्ञा तथा प्रशांति को खोज सकता है।
ध्यान क्रिया के बारे में वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस तरह विद्युत ऊर्जा को ट्रांसफार्मर में एकत्रित करके रखा जाता है और आवश्यकता के अनुसार उसका प्रयोग किया जाता है। वैसे ही ध्यान के द्वारा मन में उत्पन्न विभिन्न विचारों को एकत्रित कर अपनी इच्छा के अनुसार चिंतन या मनन में लगाया जाता है। ध्यान के द्वारा मन को वश में करने से मानसिक शक्ति व आंतरिक चेतना में वृद्धि होती है। ध्यान के निरंतर अभ्यास से व्यक्ति में इच्छा शक्ति का विकास होता है।
स्वामी विष्णु देवानंद ने अपनी किताब में लिखा है- ´´ध्यान का अभ्यास आसान नहीं है, इसके लिए दृढ़ता, धैर्य व आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। उनका कहना है कि जिस तरह पौधे को लगाकर उसे पेड़ बनने व फल की प्राप्ति के लिए समय व धैर्य का होना आवश्यक है, उसी तरह ध्यान में पूर्ण शांति के लिए समय और आत्मविश्वास का होना आवश्यक है। ध्यान से मिलने वाली शांति व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व में मौजूद होती है। अत: इसका फल मिलना निश्चित है।´´ परन्तु इसके लिए धैर्य व आत्मविश्वास का होना आवश्यक है।
प्रत्याहार व धारणा से मन को स्थिर व एकाग्र किया जाता है। मन के उस एकाग्रता को सही दिशा में प्रयोग करना ही ´ध्यान´ क्रिया के अभ्यास का आत्म नियंत्रण की दिशा में पहला और आखिरी लक्ष्य है। ध्यान के द्वारा व्यक्ति स्वयं के जीवन की विशेषता एवं स्वतंत्रता को समझने में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ध्यान के द्वारा जीवन के ज्ञान को प्राप्त करना किसी एक व्यक्ति या वस्तु-विषय का ज्ञान प्राप्त करना नहीं है बल्कि यह तटस्थ रूप से व्यक्ति को बनावटी प्रभावों के प्रति प्रभावित करता है।
एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतियोगिताओं के कारण होने वाला तनाव, भय का प्रभाव तथा किसी के विश्वासघात को सहन करने वाला आम व्यक्ति आसानी से बेचैनी का शिकार हो जाता है। ऐसे लोग समाज के द्वारा बने बनावटी जीवन के अनुसार जीने को मजबूर होते हैं। परन्तु जो लोग आम जीवन से हटकर अपने ज्ञान का प्रयोग यह जानने में करते हैं कि मैं कौन हूँ? मैं क्या चाहता हूँ? ऐसे प्रश्नों के उत्तर में वे अपने ज्ञान का उपयोग करते हैं, तो वे जल्द ही इस संसार के बनावटी जीवन से मुक्त होकर स्वयं के प्रति सच्चा बनना सीख जाते हैं। इस तरह ध्यान क्रिया के अभ्यास से व्यक्ति जागरुकता के कारण सांसारिक वस्तुओं के लोभ से मुक्ति पाता है।
यह सत्य है कि जब किसी पर कोई समस्या आती है तो समय के साथ वह उन समस्याओं का समाधान भी ढूंढ लेता है। इस तरह मनुष्य अपनी मानसिक क्रियाओं को बदल सकता है, अपने अन्दर विशेष बदलाव ला सकता है। इसके लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि अध्यारोपित छवियों के तालमेल में उसका वास्तविक रूप क्या है? उसी आधार पर उसे यह निर्णय लेना है कि कौन-कौन सी समस्याओं को वह दूर कर सकता है और किसके साथ उसे तटस्थ रहना पड़ेगा। जब उसे इस प्रकार का आत्मज्ञान प्राप्त हो जाएगा, तब वह अनुभव करेगा कि व्यर्थ का परिश्रम बेकार है। इसमें ऊहापोह के स्थान पर आंतरिक शांति का भाव उत्पन्न हो जाता है।
एकाग्रता की तुलना में ध्यान का अभ्यास आसान होता है। एकाग्रता में मन के विचारों को एक ही स्थान पर केन्द्रित किया जाता है, जब कि ध्यान के अभ्यास में मन के विचारों को एक स्थान पर केन्द्रित करने के स्थान पर मस्तिष्क में चारों ओर चिंतन व मनन के लिए छोड़ दिया जाता है, परन्तु ऐसे में व्यक्ति को ध्यान रखना पड़ता है कि मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले सभी विचार वास्तविक विचारों से अलग न हो। ध्यान के अभ्यास में कभी-कभी योगी भी अपने विचारों को भटकने से रोकने के लिए एकाग्रता का अभ्यास करते हैं। ऐसे में अपने मन को शरीर के किसी भाग पर केन्द्रित किया जाता है। ध्यान के अभ्यास में अपने मन के विचारों व भावनाओं को उसके उत्पत्ति के स्थान पर ही केन्द्रित करना चाहिए। ध्यानाभ्यास में अपनी व्याग्रता (उत्तावलापन) को शांत रखें, स्नायुओं (नर्वसिस्टम) को शांत रखें तथा वास्तविक विषयों पर चिंतन के लिए स्वयं में धैर्य व आत्मविश्वास रखना चाहिए। ध्यानाभ्यास में अपने आप को सभी चिंताओं व मन में उत्पन्न होने वाली नकारात्मक या अन्य विचारों से बचे क्योंकि इनसे आपका ध्यान भंग हो सकता है।
ध्यान का अभ्यास नियमित रूप से करने से प्राप्त होने वाले आत्मज्ञान अभ्यास के क्रम में व्यक्ति के स्वयं का आत्मवलंबन तथा आत्म विश्वास को बनाए रखता है और बाद में वही आत्मज्ञान मानव समाज के विकास में सहायक होता है। ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति जो सांसारिक सूक्ष्मता को जानने का ज्ञान प्राप्त करता है, उसी से सापेक्ष (निम्न दृष्टि वाला) महत्व का पता चलता है। इसी सूक्ष्म ज्ञान के आधार पर वह अपने आस-पास के संसार को तटस्थ (गहराई या उदासीन) के साथ देखता है, कठोर सत्यों को स्वीकार करता है,
यह ज्ञान व्यक्ति को संसार की अच्छाईयों व बुराईयों को समझाने में सहायता करता है तथा इस ज्ञान के कारण व्यक्ति अपने अन्दर किसी प्रकार की हार (पराजय) या निकम्मेपन का भाव मन में उत्पन्न नहीं होने देता। ध्यान का अभ्यास करने वाले व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार का ईश्र्या, घृणा या बदले की भावना नहीं रहती। व्यक्ति के मन में ऐसी भावना तभी उत्पन्न होती है, जब मन में दुर्बलता, भय तथा आत्मविश्वास की कमी होती है। व्यक्ति के अन्दर किसी प्रकार की हीनभावना उत्पन्न होना शारीरिक व मन के विकारों के कारण होता है। ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति के अन्दर ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि वह अपने अन्दर उत्पन्न होने वाले बुरे विचारों के स्थान पर अपनी आंतरिक शक्ति का अनुभव कर उस विकार को दूर कर सकता है। ध्यानाभ्यास से मिलने वाली शक्ति व ज्ञान के कारण व्यक्ति अपने जीवन को संतुलित करते हुए सभी शारीरिक व मानसिक अनियमितता या उलझनों को दूर कर सकता है। अत: ध्यान का अभ्यास व्यक्ति के आत्मज्ञान के लिए अति आवश्यक क्रिया है और सुखमय जीवन व्यतीत करने का आधार भी है।
विभिन्न ग्रंथों के अनुसार ध्यान के प्रकार-
योग संबंधी साहित्य में मुख्य 2 प्रकार के ध्यान का वर्णन किया गया है-
घेरन्ड संहिता में ध्यान का वर्णन करते हुए ध्यान को 3 प्रकार का बताया गया है-
- स्थूल ध्यान
- ज्योर्तिमय ध्यान
- सूक्ष्म ध्यान
भक्ति सागर में ध्यान का वर्णन करते हुए इसे 4 प्रकार का बताया है, जो इस प्रकार है-
- पदस्थ ध्यान
- पिन्डस्थ ध्यान
- रूपस्थ ध्यान
- रूपातीत ध्यान
ध्यान के लिए आसन-
ध्यान के लिए सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन, उपादासन आदि आसनों में बैठ कर अभ्यास कर सकते हैं। आसन में बैठकर ध्यान का अभ्यास करने में असमर्थ होने पर कुर्सी आदि पर बैठकर भी अभ्यास कर सकते हैं।
समाधि-
समाधि योग क्रिया का सबसे अंतिम रूप है। व्यक्ति आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा व ध्यान का अभ्यास करने के बाद समाधि में पहुंचता है। योगियों के अनुसार ध्यान की अंतिम अवस्था ही समाधि होती है। जब व्यक्ति ध्यान का अभ्यास करते हुए अपनी अंतरआत्मा में इस तरह खोने लगता है कि उसे बाहरी वस्तु का कोई ज्ञान नहीं रह जाता, तब वह समाधि की अवस्था होती है अर्थात गहन ध्यान का नाम ही समाधि है। समाधि में लीन होने पर व्यक्ति को स्पर्श, रस, गंध एवं शब्द तथा भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी, मान-अपमान एवं सुख-दुख की कोई चिंता नहीं रहती। व्यक्ति जब ध्यानाभ्यास करते हुए शारीरिक रूप से नींद या बेहोशी की अवस्था में चला जाता है, परन्तु उसका मन व मस्तिष्क अपना कार्य करता रहते हैं। इसी अवस्था को व्यक्ति में संचेतना की स्थिति कहते हैं अर्थात इसी अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधि में व्यक्ति को केवल ध्येय वस्तु का ही ज्ञान रहता है तथा ध्यान, ध्याता व ध्येय तीनों एक हो जाते हैं। वास्तव में जब कोई व्यक्ति योग की सभी क्रियाओं को करते हुए समाधि की अवस्था में पहुंचता है, तब वह अपने शरीर, सांस, मन, बुद्धि तथा स्वयं को भूल जाता है। जब समाधि में चिंतन व मनन स्थूल वस्तु पर किया जाता है, तो उसे निर्वितर्क समाधि कहते हैं तथा जब चिंतन व मनन किसी सूक्ष्म वस्तु पर किया जाता है, तो निर्विचार समाधि कहलाता है। इस तरह योग के आठों अंगों के अभ्यास से शरीर व मन के सभी दोष व विकार आदि दूर होकर मन व आत्मा शुद्ध होकर आत्म ज्ञान का प्राप्त करते हैं। समाधि में लीन व्यक्ति को अस्त्र-शस्त्र काट या छेद नहीं सकता तथा कोई भी संसारिक वस्तु उसको हानि नहीं पहुंचा सकती है। समाधि में व्यक्ति का मन अंतर आत्मा व दिव्य ज्ञान में इस तरह के सुख व शांति में लीन हो जाता है, जहां उनका मन और आत्मा ईश्वर के ध्यान में प्रज्ञा व पवित्रता, सच्ची भावनाओं के साथ मिलकर जगमगाता रहता है। समाधि के अभ्यास में आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है और व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है।