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कामसूत्र का परिचय

कामसूत्र को पढ़ने से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भारत के नागरिक विद्या तथा कला का उपयोग जिस सावधानी के साथ करता था, उस प्रकार वह धन का उपयोग नहीं करता था। उसकी दिनचर्या से प्रकट होता है कि वह सुबह जागने के बाद हाथ-मुंह धोकर दातून से दांतों को साफ करता था। उसकी दातून भी कुछ विशेष प्रकार की होती थी जिसका वर्णन वृहतसंहिता में मिलता है-

          सर्वप्रथम दातून को उसके पुरोहित एक सप्ताह पहले सुगंधित द्रव्यों से सुवासित करने की प्रक्रिया शुरू कर देते थे। इसके लिए दातून को हरड़युक्त पेशाब में एक सप्ताह तक भिगोकर रख देते थे। इसके बाद इलायची, दालचीनी, तेजपात, अंजनु, शहद और कालीमिर्च से सुवासित जल में डुबोते थे। इस प्रकार से तैयार की गयी दातून को मंगलदायिनी समझा जाता था। उस समय के लोग दातून का उपयोग सिर्फ दांतों की सफाई के लिए न करके मांगलिक कार्यों के लिए भी किया करते थे। इसलिए वे अपने पुरोहितों से यह पूछ लेते थे कि कौन-से पेड़ की दातून किस विधि से करें।

          दातून के बाद लोग लेप का प्रयोग करते थे। कामसूत्र के विशेषज्ञों के अनुसार शरीर पर सिर्फ चंदन का ही लेप लगाना चाहिए। विभिन्न ग्रंथों में यह बताया गया है कि चंदन को शरीर पर उल्टा-सीधा लेप लेना नियमों के विपरीत है।

          प्राचीन समय में लोग चंदन के अतिरिक्त अन्य विभिन्न प्रकार के द्रव्यों के भी अनुलेप तैयार करते थे। इनमें कस्तूरी, अगुरू और केसर आदि के साथ दूध अथवा मलाई के लेप प्रमुख हैं। इस प्रकार के लेपों की सुगंध काफी देर तक होती है। इन लेपों के प्रयोग से शरीर के अंग स्निग्ध और चिकने होते हैं।

          अनुलेपन के बाद केशों को धूप से धूपित करने की प्रक्रिया की जाती थी, ऐसा करने पर बाल नहीं उड़ते थे, बाल सफेद नहीं होते हैं तथा चिकने और मुलायम बने रहते हैं। वराहमिहिर के ग्रंथ वृहत्संहिता में उल्लेख मिलता है कि अच्छे से अच्छे कपड़े पहनों, सुगंधित माला धारण करो तथा कीमती गहनों से अपने शरीर के अंगों को सजा लो। लेकिन यदि बाल सफेद हो गये हो तो सभी आभूषण फीके पड़ जाएंगे। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भारत के निवासी बालों को काला बनाये रखने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते थे।  

          वृहत्संहिता के अंतर्गत बालों को धूप देने की निम्न विधि बतायी गई है। कपूर तथा केसर या कस्तूरी से सुगंधित उतारी जाती थी, उस सुगंधि से बालों को सुवासित करके कुछ देर तक उन्हें छोड़ दिया जाता है। इसके बाद स्नान किया जाता था।  

          बालों के सुवासित हो जाने के बाद लोग फूलों की माला धारण करते थे। माला को बनाने और फूलों के चुनाव में भी उसकी रुचि होती थी। उस समय के लोग चम्पाजुही और मालती आदि फूलों की मालाएं धारण करते थे लेकिन सेक्स क्रिया करने के समय विशेष प्रकार से तैयार की गयी माला धारण करते थे ताकि सेक्स के दौरान आलिंगन, चुंबन आदि के समय फूल गिरकर मुरझाएं नहीं।

          इसके बाद वह शीशे में अपना मुंह देखता था। प्राचीन काल के धनी लोगों के घरों में कांच के शीशे का उपयोग नहीं होता है। सोने अथवा चांदी के शीशों का उपयोग किया जाता है। शीशे में चेहरा देखने के बाद लोग पान खाते हैं।

          भारतीय संस्कृति में ताम्बुल को सांस्कृतिक द्रव्य माना जाता है। ताम्बुल का उपयोग साधारण स्वागत समारोह से लेकर देवताओं की पूजा तक में किया जाता है। वराहमिहिर के ग्रंथ वृहत्संहिता में उल्लेख किया गया है कि ताम्बुल (पान) के सेवन से मुंह में चमक बढ़ती है तथा सुगंध प्राप्त होती है, आवाज में मधुरता आती है। अनुराग में भी वृद्धि होती है। चेहरे की सुंदरता भी बढ़ती है तथा कफ जनित विकार दूर होते हैं।

          स्कंदपुराण के कई अध्यायों के अंतर्गत ताम्बूल का विभिन्न तरीके से वर्णन किया गया है। ताम्बूल का बीड़ा लगाना तथा ताम्बूल खाना अपने आप में एक बहुत बड़ी कला है। भारत में प्राचीन काल में धनी लोगों के यहां ताम्बूल वाहिकाएं इस कला की विशेष मर्मज्ञ हुआ करती थी। ताम्बूल का बीड़ा लगाने की विधि का वर्णन करते हुए वराहमिहिर ने कहा है कि- सुपारी, कत्था तथा चूना का उपयोग मुख्य रूप से ताम्बूल में होता है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार के सुगंधित पदार्थ और मसाले आदि भी छोड़े जाते हैं।

          ताम्बूल के साथ उपयोग किये जाने वाले कत्था, चूना तथा सुपारी की मात्रा संतुलित होनी चाहिए। यदि ताम्बूल में कत्था की मात्रा अधिक हो जाती है तो लाली कालिमा में बदल जाती है, होंठों का रंग भद्दा हो जाता है। यदि सुपारी की मात्रा अधिक हो जाती है तो पान की लाली फीकी पड़ जाती है तथा होठों की सुंदरता बिगड़ जाती है। पान में चूने की अधिक मात्रा होने से जीभ कट जाती है तथा मुंह का सुगंध बिगड़ जाता है। यदि पान के पत्तियों की मात्रा अधिक हो तो पान की सुगंध खराब हो जाती है। इसलिए रात के पान में पत्ते की संख्या अधिक होनी चाहिए तथा दिन में सुपारी की मात्रा अधिक होनी चाहिए। पान का सेवन करने  के बाद लोग अपने कार्यों में लग जाते थे।

          आचार्य़ वात्स्यायन ने स्नान करने के बारे में कोई भी वर्णन नहीं किया है। इसका कारण यह है कि उस समय स्नान करने की कोई भी प्रचलित विधि नहीं थी तथा उसका कोई भी विशेष महत्व नहीं था।

          हमारे देश में प्राचीन काल में लोग किस प्रकार स्नान करते थे। इसकी जानकारी प्राचीन, काव्यों, नाटकों, कथा-ग्रंथों में बहुत अधिक मात्रा में मिलती है। कादम्बरी में स्नान करने की विधि का वर्णन इस प्रकार से किया गया है।

          लोग दोपहर से थोड़े समय पहले कार्यों को निपटाकर स्नान करने के लिए तैयार हो जाते थे। स्नान करने से पहले लोग कुछ हल्के व्यायाम करते थे। व्यायाम करने के बाद सोने-चांदी के बर्तनों से स्नान करते थे। स्नान के समय लोग अपनी सेविकाओं से शरीर की मालिश किसी सुगंधित तेल से कराते थे तथा बालों में आंवले का तेल लगाते थे।

          स्नान के दौरान लोग अपनी गर्दन की मालिश दिमागी तंतुओं को स्वस्थ बनाने के लिए करते थे। स्नान करने के बाद लोग शरीर को साफ कपड़े से पोछकर कपडे़ पहनता था। इसके बाद वह पूजाघर में जा करके शाम की पूजा का उपासना करता था।

          कामसूत्र में वर्णित स्नान की विधि व्यवहारिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी होती है। वैसे तो स्नान प्रतिदिन करना चाहिए लेकिन शरीर का उत्सादन एक-एक दिन का अंतर करके करना चाहिए। शरीर की स्वच्छता तथा कोमलता के लिए साबुन का उपयोग अवश्य ही करना चाहिए। लेकिन साबुन का उपयोग प्रतिदिन न करके हर तीसरे दिन करना चाहिए।

          उस समय के लोग अपने दांतों, नाखूनों और बालों की सफाई बहुत अच्छी तरह से करते थे। नाखूनों के काटने की कला की चर्चा वैदिक कालीन साहित्य में भी मिलती है। संस्कृत साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि लोग नाखूनों को त्रिकोणाकार, चंद्राकार, दांतों के समान तथा अन्य विभिन्न आकृतियों में काटते थे। कुछ लोगों को लंबे नाखून पसंद थे। कुछ लोगों को छोटे आकार के तो कुछ लोगों को मध्यम आकार के नाखून रखने के शौक था।

          आचार्य वात्स्य़ायन के अनुसार हर चौथे दिन पर सेविंग करना चाहिए। भारत में हजामत (सेविंग करना) कराने तथा नाखून काटने की प्रथा बहुत ही पुरानी है। वैदिक काल में भी लोग हजामत (सेविंग करना) तथा नाखून पर विशेष ध्यान देते हैं।

          वैदिक साहित्य के अंतर्गत क्षुर और नखकृन्तक शब्द का प्रयोग से ही प्रमाणित होता है। ऋग्वेद तथा उसके बाद के साहित्य में नाखून को श्मश्रु कहा जाता है तथा सिर के बालों को केश कहते हैं। यजुर्वेद, अथर्वेद औऱ ब्राह्मण ग्रंथों में सिर के बालों का वर्णन मिलता है। वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि वैदिक काल में आर्यों में बालों के बारे में विभिन्न प्रयोग मिलते हैं। अथर्ववेद के अंतर्गत विभिन्न मंत्र ऐसे होते हैं जिनमें बालों के बढ़ने के बारे में औषधियों का वर्णन किया गया है लेकिन ऐसे प्रयोग सिर्फ औरतों के लिए ही हैं।

          अधिकांश ऋषि-मुनि सिर पर लंबे बाल रखते थे तथा बालों को विभिन्न तरीके से गूंथकर रखते थे। कुछ ऋषि-मुनि बालों का जूड़ा बनाकर रखते थे तो कुछ बालों को समेटकर रखते थे। इसके अलावा कुछ ऋषि-मुनि बालों को कपाल की ओर झुकाकर बांधते हैं।  

          इस प्रकार के बालों को वेदों में कपर्द के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद में एक स्थान पर युवती को "चतुष्कपर्दा" तथा एक स्थान पर सिनी वाली देवी को सुकपर्दा कहा गया है। इसी प्रकार स्त्रियां भी बालों को विशेष प्रकार से बालों को संवारती हैं।

          ऋग्वेद में वशिष्ठ ऋषियों को दक्षिणतः कपर्दा अर्थात दाहिनी तरफ जटा वाले कहा जाता है। कुछ देवता और ऋषि-मुनि लंबे बाल रखते हैं लेकिन बालों में गांठ नहीं बांधने देते थे, उन्हें पुलस्ति के नाम से जाना जाता है। जो देवता और ऋषि-मुनि बाल, दाढ़ी और मूंछ बढ़ाये रहते हैं उन्हें ऋग्वेद में मोटी दाढ़ी और मूंछ वाला कहा गया है।


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