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संतानहीनता के वैज्ञानिक कारण

परिचय

          किसी भी स्त्री-पुरुष के लिए संतान प्राप्ति की इच्छा उसके जीवन की सबसे बड़ी इच्छा होती है। शादी होने के कुछ साल बाद जब स्त्री मां नहीं बन पाती है तो उसके पड़ोस में रहने वाली स्त्रियां उसके बारे में तरह-तरह की बाते करने लगती हैं। इस तरह की बाते किसी भी स्त्री के लिए बहुत ही दुःखकारी होती हैं जो स्त्रियां गर्भधारण नहीं कर सकती या मां नहीं बन सकती ऐसी स्त्रियों के बारे में उसके परिवार वाले और सगे-संबंधी आदि तरह-तरह की बातें करते रहते हैं। इस तरह जब स्त्री मां नहीं बन पाती है तो परिवार वालों के साथ-साथ उसके पति भी उससे आंखे फेरने लगते हैं। ऐसे में विवाह के बाद हर युवती से उसके ससुराल वाले यही कामना करते हैं कि वह जल्दी मां बने।

          यह तो सभी जानते हैं कि पुरुष और स्त्री के परस्पर मिलन से ही स्त्री गर्भधारण करती है लेकिन जब स्त्री या पुरुष के प्रजनन अंगों में कोई खराबी या रोग ग्रस्तता हो तो स्त्री का गर्भवती होना असंभव है। स्त्री के अंगों में खराबी होने से वह बांझ बन सकती है। अतः स्त्री के प्रजनन अंगों और गर्भाधान की पूर्ण जानकारी होनी आवश्यक है। स्त्री के संपूर्ण अंगों को चार भागों में बांटा गया है- ओवरी, डिम्बवाहिनी नली, गर्भाशय और योनि

          ओवरी बादाम की तरह और लगभग उसी के आकार की दो ग्रथियां होती हैं। स्त्रियों में मौजूद इन्हीं ओवरियों में मनुष्य को जन्म देने वाले लगभग चार लाख जीवित अण्डे किशोरावस्था के आने तक सुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। प्रथम मासिक-धर्म के शुरू होते ही इस बात की सूचना मिल जाती है कि लड़की अब किशोरी हो गई है। इसके साथ ही उसके संपूर्ण संतानोत्पादक अंग सचेत होकर अपने-अपने कार्य में जुड़ जाते हैं। किशोरावस्था के आरंभ होते ही ओवरी में सोए हुए अंडे सचेत होकर बाहर निकलने का प्रयास करने लगते हैं। साधारणः लगभग 28 दिनों के अंतराल से दोनों ओवरियों में से किसी एक ओवरी में एक साथ कई अंडे पकने शुरू हो जाते हैं, लेकिन अंतिम रूप से केवल एक ही अंडा पककर बाहर निकलने योग्य हो पाता है, बाकी सब सूखकर बेकार हो जाते हैं।

          मासिक धर्म के बाद लगभग 10 दिनों तक यह अंडा ओवरी के अंदर अपनी छोटी सी पुटिका में बंद होकर पुटिका सहित बढ़ता रहता है। अंत में यह ओवरी के ऊपरी सतह पर उभरकर एक छोटा सा छाला बनकर दिखता है। पक जाने पर यह पुटिका फट जाती है और पका हुआ अंडा ओवरी से अलग हो जाता है। स्त्री की संपूर्ण आयु में लगभग 30 वर्षों तक प्रति माह एक अंडा (डिम्ब) ओवरी से बाहर निकलता है। इस प्रकार ओवरी के अंदर कुल चार लाख अंडों में से केवल 400 या 445 अंडे ओवरी से बाहर निकलते हैं। बाकी अंडे पूरी तरह न पक सकने के कारण नष्ट हो जाते हैं या उनके पकने की कभी बारी ही नहीं आती।

          यह निश्चित करना असंभव है कि किस ओवरी से अंडा पककर बाहर निकलेगा। एक माह में दोनों ओवरियों से साथ-साथ अलग-अलग अंडे पककर निकल सकते हैं। प्रत्येक ओवरी के निकट ऊपर की ओर मांस की एक पतली सी नली होती है- लगभग साढ़े पांच इंच लंबी। इसे डिम्बवाहिनी नली या फेलोपिन ट्यूब कहते हैं। इन नलियों का एक-एक सिरा ओवरी के समीप होता है। इसके साथ ही इन सिरों में से अनेक रेशे जैसे लटकते रहते हैं। इन नलियों के दूसरे सिरे कुछ पतले होकर गर्भाशय के ऊपर की ओर आकर दाएं-बाए मिल जाते हैं। ओवरी से ज्यों ही पका हुआ अंडा बाहर निकलता है, डिम्बवाहिनी के सिरे पर झूमते हुए रेशे उस अंडे को हाथी की सूंड की तरह पकड़कर नली के मुख छिद्र में डालकर अंदर धकेल देता है।

          अब यह डिम्ब लहराती हुई नली से रोमाभ (रोम की तरह बाल के रेशे) की पकड़ में आ जाता है। यह रोमाभ इस नए मेहमान को आदर सहित धीरे-धीरे धकेलकर नली के दूसरी ओर गर्भाशय में प्रवेश कराने के लिए आगे बढ़ाते रहते हैं। डिम्बवाहिनी नली की यात्रा पूर्ण करने में प्रायः 3 से 6 दिन तक का समय लग सकता है। ओवरी के अंदर रहकर ज्यों-ज्यों अंडे का विकास होता रहता है, स्त्री की कामवासना दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। जिस दिन डिम्ब, ओवरी को फोड़कर बाहर निकलता है, उस दिन विशेष रूप से कुछ अधिक बेचैनी अनुभव होती है जो प्रायः 2-3 दिन में ठंडी पड़ जाती है।

          इसका कारण यह है कि पके हुए अंडे यानी डिम्ब में पूर्णता प्राप्त करने के लिए पुरुष के वीर्य में उपस्थित शुक्राणु से मिलने की इच्छा होती है जो स्त्री की कामुक भावना से स्पष्ट होती है। मासिक-धर्म के प्रायः 10 दिन बाद डिम्ब ओवरी से बाहर निकलता है जिसे ओवूलेशन क्रिया कहते हैं। इस दिन यदि वह स्त्री किसी पुरुष से समागम करती है तो पुरुष के वीर्य में उपस्थित करोड़ों शुक्राणु किसी न किसी तरह गर्भाशय के मुख छिद्र में प्रवेश कर ऊपर डिम्बवाहिनी नलियों में पहुंच कर वहां पहले से उपस्थित पके हुए डिम्ब से मिल जाने का प्रयत्न करते हैं। इन शुक्राणुओं का शरीर बहुत सूक्ष्म धागे की तरह होता है। इसके 2 भाग होते हैं- एक सिर तथा दूसरा पूंछ।

          यह शुक्राणु इतने छोटे और चंचल होते हैं कि इनके लिए 5 या 6 इंच की यह छोटी सी यात्रा कठिन प्रतीत होती है। इस कठिन परिस्थिति में एक शुक्र के शायद जीवित बचने की आशा करना व्यर्थ है। इस बात को ध्यान में रखकर प्रकृति भी इस कठिनतम परीक्षा के लिए एक साथ करोड़ों शुक्राणुओं को निमंत्रण देती है। जीवन-मरण की इस दौड़ में शायद एक या दो शुक्राणु सफल हो पाते हैं क्योंकि योनि से लेकर डिम्बवाहिनी नली तक के मार्ग में अनेक बाधाएं इन नन्हे यात्रियों के प्राण ले लेती हैं।

          सबसे पहले समागम के समय ही योनि के अंदर चारों तरफ की दीवारों में छिपी ग्रंथियों से एक तरल व चिकना पानी जैसा द्रव निकला करता है। इस द्रव में तेजाब के गुण होते हैं। वीर्य के साथ जो शुक्राणु योनि में आ जाते हैं, उन्हें यहां आते ही सबसे पहले तेजाब सागर में गोते लगाने पड़ते हैं जिससे अधिकांश शुक्राणु तो यहीं मौत के घात उतर जाते हैं जो थोड़े बहुत किसी तरह जीवित बच जाते हैं, वे शीघ्रता से गर्भाशय के मुख छिद्र द्वारा अंदर प्रवेश कर जाते हैं। इन शुक्राणुओं को डिम्बवाहिनी नली तक पहुचने के लिए चारों ओर चिपचिपी दीवार, पहाड़-पहाड़ियों की तरह उभरी हुई मांस की गद्दियों और चिपचिपे तरल पदार्थों की झीलों को पार करना पड़ता है।

          इस शुक्राणुओं को अंडे तक पहुंचने में डेढ़-दो दिन का समय लग जाता है। यदि ओवूलेशन क्रिया के बाद के 1-2 दिन में ही स्त्री किसी पुरुष से मिलाप नहीं कर पाती तो गर्भाधान का प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि बाद में डिम्ब में अपनी नली से निकलकर गर्भाशय में पहुंचकर शुक्राणुओं से मिलने की शक्ति नहीं रहती। जैसे ही कोई शुक्राणु नली के इस छोर पर इंतजार करते हुए अंडे के पास पहुंचता है, वैसे ही वे दोनों अपनी परस्पर आकर्षक शक्ति के कारण इतनी व्याकुलता और व्यग्रता से आलिंगन करते हैं कि देखते ही नन्हा-सा शुक्राणु अपने तीर जैसे नुकीले सिरे को डिम्ब की खाल में गड़ाकर किसी तरह घूम-घूमकर दीवार में छेद करता हुआ अंदर घुस जाता है। अंडा शुक्राणु को अपने में आत्मसात कर लेता है। बस इस क्रिया को गर्भाधान या अंग्रेजी में फर्टिलाइजेशन कहते हैं। अब इस गर्भित अंडे में अनेक नए परिवर्तन होने लगते हैं और तब यह अंडा शीघ्रता से एक जगह जमकर बैठने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज करता हुआ डिम्बवाहिनी नली से बाहर निकलकर गर्भाशय में प्रवेश करता है।

          गर्भाशय के चारों ओर मुलायम मांस की रस भरी गद्दियां बनकर बिछ जाती हैं ताकि गर्भिक अंडे को कहीं भी जमकर अंकुरित होने की सुविधा मिल सके। इसके अतिरिक्त ओवरियों को भी गर्भाधान की सूचना तुरंत मिल जाती है। जिससे इन ओवरियों में अगले 9 महीने अंडे का पककर निकलना बंद हो जाता है और न ही कोई शुक्राणु अंदर आ पाता है। मासिक-धर्म का क्रम भी रुक जाता है। शादी के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी यदि कोई स्त्री गर्भवती नहीं होती तो पति-पत्नी दोनों को डॉक्टरी परीक्षा करा लेना आवश्यक होता है।

          पुरुष की जननेन्दियों में खराबी होने की संभावना कम ही होती है क्योंकि जननेन्द्रियों की क्रियाशीलता में कमी या खराबी होने पर पुरुष द्वारा समागम ठीक तरह से नहीं हो पाता लेकिन कभी-कभी किसी पुरुष के वीर्य में शुक्राणुओं की उचित संख्या न होने से स्त्री गर्भवती नहीं हो पाती। संतानहीनता का अधिकतर कारण स्त्री संतानोत्पादक अंगों में से कोई गड़बड़ी होना होता है। विशेष रूप से स्त्री की डिंबवाहिनी नली अत्यधिक नाजुक होती है जिसमें कभी-कभी दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

डिंबवाहिनी नलिका के दोष आमतौर पर इस तरह के होते है-

  1. पहला दोष यह है कि किसी स्त्री में डिंबवाहिनी नलिका ही नहीं होती। यदि होती भी है तो कटी-फटी या सूखी-मुरझाई हुई होती है। ऐसा जन्म से भी हो सकता है या किसी दुर्घटनावश भी हो सकता है।
  2. डिंबवाहिनी नलिका का दूसरा दोष बचपन की किसी नादानी के कारण या किसी संक्रामक रोग से पीड़ित पुरुष के साथ समागम करने के कारण हो सकता है। ऐसे रोग डिंबवाहिनी नलिका के छिद्र में अवरोध पैदा कर गर्भित डिंब को गर्भाशय तक पहुंचना से रोकता है।
  3. तीसरा दोष यह है कि जिस तरह मनुष्य के फेफड़े अत्यंत कोमल तंतुओं से बने होते हैं, उसी तरह स्त्री की डिंबवाहिनी नलिका भी कोमल तंतुओं से बनी होती है। कुछ स्त्रियां डिंबवाहिनी नलियों में टी.बी. हो जाने के कारण भी गर्भवती नहीं हो पाती।
  4. चौथे दोष के रूप में स्त्रियां तब मां नहीं बन पाती जब डिंबवाहिनी नलियों में किसी कारण से कोई अवरोध बन जाता है। इस तरह की आशंका जान-बूझकर गर्भपात कराने वाली स्त्रियों में ज्यादा होती है क्योंकि गर्भपात कराने से कभी-कभी खून का थक्का या मांस का टुकड़ा डिंबवाहिनी नलिका के छिद्र द्वार पर फंस जाता है।
  5. स्त्रियों के मां न बनने का पांचवा कारण है कभी-कभी स्त्री द्वारा जरूरत से ज्यादा उछल-कूद करना। ऐसे कारणों से डिंबवाहिनी नलियों में सूजन आ जाती है तथा स्त्री के पेट में नीचे की तरफ दाहिनी ओर दर्द रहने लगता है।

          इसके अलावा कभी-कभी स्त्री के गर्भाशय में सूजन, ट्यूमर या कोई अन्य संक्रामक रोग हो जाने पर भी स्त्री गर्भधारण नहीं कर पाती। यदि संतानहीनता का कारण स्त्री के संतानोत्पत्ति अंगों में आया कोई विकार है तो इस बारे में स्त्री को किसी कुशल व अनुभवी स्त्री रोग विशेषज्ञ से सलाह लेकर अपनी चिकित्सा शुरु कर लेनी चाहिए। छोटे-मोटे विकार आसानी से दूर हो सकते हैं परन्तु किसी विशेष उपचार के लिए किसी अनुभवी सर्जन से सलाह लेनी चाहिए। यदि पुरुषों में कमी हो तो आजकल संतानहीन विवाहित स्त्रियों को कृत्रिम गर्भाधान द्वारा संतान प्राप्ति की सुविधाएं दी जाती हैं।

           कृत्रिम गर्भाधान से बच्चे में मां का अंश शत-प्रतिशत होता है तथा पिता का पूरा विश्नास भी होता है। इस विधि में बहुत ही स्वस्थ व उत्तम कोटि का वीर्य निरोग स्त्री में मासिक आरंभ होने के लगभग 13-14 दिन बाद जब ओवूलेशन हो रही हो और डिम्ब फूट जाए तब प्रविष्ट कराया जाता है तथा पूरी तरह से गोपनीय रखा जाता है। यह विधि बहुत विश्नसनीय होती है तथा इस तरह के गर्भाधान द्वारा बहुत से निःसंतान दम्पति बेझिझक होकर स्वस्थ एवं सुंदर संतान प्राप्त करके इज्जत और शान से सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

          उपयुक्त कृत्रिम गर्भाधान विधि में विवाहित स्त्री को किसी पर पुरुष के सीधे संपर्क में आने की जरूरत नहीं होती। इसलिए यह तरीका भारत की प्राचीन नियोग प्रथा की अपेक्षा कहीं अधिक नैतिकता संपन्न है।


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