पित्त लवण कॉलेस्ट्राल से पैदा होते हैं। पित्त में दो लवण पाये जाते हैं- सोडियम टॉरोकोलेट (Sodium taurocholate) और सोडियम ग्लाइकोकोलेट (Sodium glycocholate)। ये पित्त में सक्रिय रूप से स्रावित होते है तथा अन्य पित्ताशयी (biliary) स्रावों के साथ-साथ ग्रहणी में पहुंच जाते हैं। वसा के पाचन एवं अवशोषण में भाग लेने के बाद, इनमें से ज्यादातर लवण दुबारा रक्त में अवशोषित हो जाते हैं। जहां से पित्त लवण हिपेटिक पोर्टल सिस्टम के द्वारा जिगर में लौट आते हैं, जो उन्हें दुबारा पित्त में स्रावित करता है। छोटी आंत तथा जिगर के बीच पित्त लवणों एवं अन्य पित्ताशयी स्रावों का इस प्रकार का चक्र एन्टेरोहिपेटिक सरकुलेशन (Enterohepatic circulation) कहलाता है।
पित्त रंजक (Bile pigments)- पित्त में दो रंजक पाए जाते है- बिलिरूबिन (bilirubin) एवं बिलिवर्डिन (biliverdin)। इनमें से बिलिरूबिन मुख्य रंजक माना जाता है, जो पित्त को पीला रंग देता है। ये प्लीहा एवं अस्थिमज्जा में नष्ट हुई लाल रक्त कोशिकाओं से मुक्त हुए हीमोग्लोबिन से उत्पन्न होते हैं ओर रक्त द्वारा जिगर में पहुंच जाते हैं। जहां से यह ग्रहणी से होकर पित्त के साथ बाहर निकल जाते हैं। जब बिलिरूबिन आंतों से होकर गुजरता है तो जीवाणु एन्जाइम्स द्वारा विघटित होकर यूरोबिलिनोजन (urobilinogen) में बदल जाता है, जिसका ज्यादातर भाग स्टर्कोबिलिनोजन (Stercobilinogen) के रूप में मल के साथ शरीर के बाहर उत्सर्जित हो जाता है, इसी के कारण मल भूरे या कत्थई रंग का दिखाई देता है। यूरोबिलिनोजन का शेष भाग दुबारा अवशोषित होकर रक्त परिसंचरण में पहुंच जाता है और मूत्र के साथ उत्सर्जित होकर मूत्र को रंगीन बना देता है। बहिःकोशिकीय द्रवों (Extracellular fluids) में बिलिरूबिन की ज्यादा मात्रा जमा हो जाने से त्वचा एवं नेत्रश्लेष्मा (conjunctiva) पीली हो जाती है। इस दशा को पीलिया (jaundice) कहा जाता है। बिलिवर्डिन हरे रंग का रंजक होता है, जो बिलिरूबिन के ऑक्सीकृत होने से बनता है। पित्तरंजकों का पाचन क्रिया पर किसी प्रकार प्रभाव नहीं पड़ता है।