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छोटी आंत संरचना

  यह आमाशय से लेकर बड़ी आंत तक खुलने वाली लगभग 7 मीटर लंबी नली होती है जो नाभि क्षेत्र में बड़ी आंत से घिरी हुई होती है। इसका घोडे की नाल के आकार का लगभग 25 सेमीमीटर लंबा पहला भाग अग्नाशय के सिरे को चारो ओर से घेरे होता है उसे ग्रहणी या डयोडिनम कहते हैं। इसके बीच सामान्य पित्त वाहिनी और अग्नयाशयिक वाहिनी आकार खुलती है।

       इसी प्रकार छोटी आंत में पहुंचकर भोजन अग्नयाशयिक रस तथा जिगर द्वारा उत्पन्न पित्त या वाईल एवं आन्त्रिय भित्तियों से उत्पन्न होने वाले आन्त्रिय रस के साथ मिल जाता है।

      छोटी आंत की भित्ति उन्ही चार परतों की बनी होती है जिनसे आमाशय की भित्ति का निर्माण होता है परंतु उनमें कुछ रूपांतरण होता है।

1- बाहरी सीरमी परत पेरिटोनियम की बनी होती है।

2- पेशीय परत अनैच्छिक पेशियों की बनी होती है, जिसमें बाहर की ओर लंबाकार तंतु तथा इसके नीचे वृत्ताकार तंतुओं की परत होती है। इन दोनों तंतु परतों के बीच वाले भाग में रक्त नलिकाएं, लसीका नलिकाएं तथा तंत्रिकाओं का जाल फैला रहता है। वृत्ताकार तंतुओं की परत के संकुचन से क्रमांकुचक गतियां पैदा होती है, जिसमें काइम बड़ी आंत की ओर अग्रसर होता है।

3- अवश्लेष्मिक परत (submucosal layer) अवकाशी ऊतक (areolar tissue) की बनी होती है, जिसमें अनेक रक्त नलिकाओं, लसीका नलिकाओं, ग्रंथियों तथा तंत्रिकाओं का जाल फैला रहता है। तंत्रिकाओं के जाल को मीस्नर्स जालिका (Meissner’s plexus) कहते हैं। ग्रहणी में कुछ खास प्रकार की छोटे-छोटे गुच्छों के रूप में ग्रंथियां पाई जाती है। इन ग्रंथियों को ब्रूनर्स ग्रंथियां ( Bruner’s glands) कहा जाता है। इनसे एक चिपचिपा क्षारीय तरल पैदा होता है जो आमाशय के खट्टे पदार्थों से ग्रहणी की आंतरिक परत की रक्षा करता है।

श्लेष्मिक परत (Mucosa)(numbering problems)- इस परत की तीन विशेषताएं होती है जो छोटी आंत में होने वाली पाचन और अवशोषण की प्रक्रियाओं को बढ़ाती है-

 (1)- इसमें झालर के जैसे गोलाकार वलय (plicae circulares) होते हैं जो अवशोषण के लिए श्लेष्मिक परत के उपलब्ध क्षेत्र को बढ़ाते हैं। आमाशय के वलि के विपरीत ये स्थायी होते हैं तथा आंत के फैलने पर गायब नहीं होते। ये ड्योडिनम और जेजुनम के संधि स्थल (junction) के पास ज्यादा होते हैं।

 (2)- इसमें काफी संख्या में 0.5 से 1 मिलीमीटर लंबे अंगुलियों के आकार के उभार निकले होते हैं। इन्हे आंत्र अंकुर या विलाई कहते हैं। इन उभारों के कारण श्लेष्मिक परत मखमल जैसा नजर आता है। इनसे श्लेष्मिक परत का अवशोषण क्षेत्रफल बढ़ जाता है। विलाई के आधारों के बीच उपकला के अंदर की ओर मुड़ने से नलिकाकार आंत्रीय ग्रंथियां (tubular intestinal glands) बनती है, जिनसे सतही क्षेत्र और अधिक बढ़ जाता है। हर अंकुर (villus) के अंदर रक्त-नलिकाएं और एक लसिका नलिका रहती है। इस नलिका को लैक्टीयल (lacteal) कहते हैं। लसीका नलिकाएं वसाओं के अवशोषण में खास होती है।

 (3)- इसमें (श्लेष्मिक परत के अंदर) साधारण, नलिकाकार ग्रंथियां रहती है। यह कई तरह के एंजाइम्स को स्रावित करती है जो कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा के पाचन में मदद करते हैं। श्लेष्मिक ग्रंथियां (आंत्रीय ग्रंथिया crypts of lieberkuhn) लैमिना प्रोपिया (उपकला को सहारा देने वाली संयोजी ऊतक की परत) में पहुंच जाती है। जो ग्रंथियां सबम्यूकोसा में पहुंचती है, उन्हे बूनर्स ग्रंथियां कहते हैं और यह केवल ग्रहणी में पाई जाती है। इन ग्रंथियों में चिपचिपा, क्षारीय श्लेष्मिक स्राव पैदा होता है जो आमाशय के अम्लीय काइम से आंत में श्लेष्मिक परत की रक्षा करता है।

छोटी आंत की संपूर्ण श्लेष्मिक परत में जगह-जगह एकाकी लसीका पुटक (follicles) होते हैं। इन्हें एकाकी ग्रंथियां (solitary glands) कहा जाता है। शेषांत्र में ये पुटक समूहों में रहते हैं तथा समूहित लसीका पुटक (Aggregated lymph follicles) या पेयर्स पैच (peyer’s patches) कहलाते हैं। ये गोलाकार या अंडाकार होते हैं। टाइफायड ज्वर में ये प्रदाहित हो जाते हैं। ये लिम्फॉइड ग्रंथियां उन सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट करने में मदद करती है जो छोटी आंत में भोजन से अवशोषित कर लिये जाते हैं।


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